जल संरक्षण से सूखे का मुकाबला

सूखे की स्थितियों से निपटने के लिए समुदाय की सामूहिक रणनीति के तहत जल संरक्षण की गतिविधि बेहतर साबित हुई जिससे न सिर्फ सिंचाई की समस्या हल हुई वरन भयंकर गर्मी में पशुओं की प्यास भी बुझी।

संदर्भ


जनपद महोबा के विकास खंड कबरई में अत्यंत पिछड़ा व दुर्गम रास्ते वाला गांव चकरिया नाला के दोनों तरफ बसा हुआ है। जिला मुख्यालय व महोबा कानपुर रोड से लगभग 7 किमी. की दूरी पर उत्तर व पश्चिम के बीच यह गांव स्थित है, जो महोबा-कानपुर रोड से एक पक्के सम्पर्क मार्ग के द्वारा जुड़ा हुआ है। 2555 लोगों की आबादी वाले इस गांव की आजीविका का मुख्य साधन कृषि है। कृषिगत भूमि का रकबा लगभग 2400 एकड़ है, जिसमें से केवल 100 एकड़ ज़मीन सिंचित है। यहां पर सिंचाई के साधनों में व्यक्तिगत कुआं ही हैं। कुल कृषि योग्य भूमि में से 1100 भूमि राकड़ है, जो ढालू तथा उबड़-खाबड़ है। ढलान की स्थिति यह है कि कहीं-कहीं पर खेत का ढाल 1 मीटर तक है। अतः यहां पर बरसात का पानी रुकता नहीं है। मात्र 200 एकड़ ज़मीन ही समतल व उपजाऊ किस्म की है।

सूखा की स्थिति के संदर्भ में देखें तो जनपद महोबा में वर्ष 1979 से लगातार प्रत्येक 4-5 वर्षों के अंतराल पर सूखा पड़ रहा है और पूरा जनपद इससे प्रभावित होता है, परंतु ग्राम गंज अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण सूखा से सबसे अधिक प्रभावित हुआ है। पशुओं का चारा-भूसा गांव में उपलब्ध न होने के कारण पशुपालन भी नहीं हो पाता है। यहां के किसान मुख्य रूप से रबी की फसल पर निर्भर करते हैं पर निरंतर प्राकृतिक आपदाओं के चलते औसतन 50-60 प्रतिशत फसल प्रतिवर्ष सूखा से प्रभावित रहती है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि पेयजल स्रोतों जैसे – कुओं व हैंडपम्पों ने पानी देना बंद कर दिया है, गांव में पीने के लिए पानी भी नहीं मिल रहा है। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए लोगों द्वारा अपने तई प्रयास किये जा रहे हैं, परंतु दरकार एक ऐसे सामूहिक प्रयास की थी, जो लोगों को समुदाय के स्तर पर लाभान्वित कर सके। ऐसी स्थिति में लोगों ने जल संरक्षण की दिशा में प्रयास शुरू किया।

प्रक्रिया


समुदाय की पहल
प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती निरंतरता एवं सरकारी उदासीनता के बीच पहली बार वर्ष 1996 में संस्था द्वारा एक खुली बैठक का आयोजन कर आजीविका के स्थाई एवं दीर्घकालिक विकल्पों व संभावनाओं पर चर्चा की गई। चर्चा में निकल कर आया कि यहां की आजीविका का मुख्य साधन खेती है, परंतु अधिकतर ज़मीन ऊसर व ढालू होने के कारण बेकार पड़ी रहती है। यदि आजीविका के साधनों को इस सुधार से जोड़ा जाए तो कुछ स्थाईत्व की बात की जा सकती है। लोगों ने यह भी कहा कि यहां पर सिंचाई के साधनों की अनुपलब्धता ने कोढ़ में खाज की तरह काम किया है। यदि इस ज़मीन में पानी रूकने की व्यवस्था की जाए तो ज़मीन भी उपजाऊ हो सकती है और साथ ही नाले में चेकडैम बना दिया जाए तो वर्षा के पानी से कुछ क्षेत्रफल की सिंचाई भी की जा सकती है और पशुओं के पीने के लिए पानी हमेशा मिल सकेगा। पर मुख्य समस्या थी कि इन कार्यों को करने के लिए पैसा कहां से आयेगा।

जल संरक्षण हेतु किये गए कार्य


जल संरक्षण के लिए काम शुरू करने से पहले गांव में संस्था द्वारा स्वयं सहायता समूह का गठन व संचालन किया जाता था। समूह की एक महिला श्रीमती रामप्यारी देवी ने वर्ष 2002 में समूह से रु. 1500.00 ऋण लेकर बकरी पालन किया। इनके पास भूमि तो थी, परंतु सिंचाई के अभाव में खेती नहीं हो पाती थी। तब इन्होंने अपने खेत में मेड़बंदी कराकर खेत का पानी खेत में ही रोकने का काम किया, जिससे इन्हें फायदा हुआ। इनके खेतों में नमी बनी रही। पुनः चकरिया नाला में एक चेकडैम व गैबियर ढाँचा समुदाय के सहयोग से बनवाया गया, जिसमें कुछ वित्तीय सहयोग वाटर एड प्रोजेक्ट का रहा। इस चेकडैम में एकत्रित पानी के द्वारा श्रीमती रामप्यारी देवी ने अपने एक एकड़ खेत में सब्जी उत्पादन कर पूरे वर्ष अपने परिवार का भरण पोषण किया। इनकी सफलता को देखकर गांव के ही उमाशंकर जी ने अपने सभी खेतों में मेड़बंदी करवाई तथा गड्ढा बोर के द्वारा सूखे की स्थिति में भी रबी की फसल कठिया गेहूं व चना सफलतापूर्वक उगाया। अब तो गांव के अन्य लोगों ने भी अपने खेतों में चेकडैम व जल निकास बनाने का काम प्रारम्भ कर दिया। चकरिया नाला में चेकडैम के आगे गांव तक पानी का बहाव तेजी से रोकने के लिए जगह-जगह गली प्लग बनवाए गए। इतनी व्यवस्था होने पर पशुओं को पीने के लिए पानी सुगमतापूर्वक मिलने लगा तथा नाले के किनारे रबी के मौसम में फसलें उगाई जाने लगी।

जल संरक्षण की यह प्रक्रिया सघन रूप से वर्ष 1996 से 2006 तक चलाई गई और आज तक गांव में 1800 एकड़ भूमि में मेड़बंदी का कार्य पूर्ण हो चुका है। गांव में 21 चेकडैम, जलनिकास – 64, गलीप्लग – 56 तथा 12 कुओं का गहरीकरण हुआ है, जिसमें संस्था व समुदाय की बराबर की भागीदारी रही है। संस्था ने वित्तीय सहयोग किया तो समुदाय ने श्रमदान किया।

लागत व लाभ


लगातार 10 वर्षों तक चलाई गई इस जल संरक्षण प्रक्रिया में लागत के तौर पर रु. 15-20 लाख का खर्च हुआ, लगभग 300 दिनों तक श्रमदान किया गया, जिसके एवज में प्राप्त लाभ को रुपये में तो नहीं आंका जा सकता, फिर भी इस कार्य के लाभ को निम्नवत् देखा जा सकता है –

आज गांव में सूखे का असर बहुत कम दिखता है।
मेड़बंदी कार्य से ऊसर भूमि में नमी का संरक्षण हुआ है तथा मृदा का कटाव न होने से मिट्टी में जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ी है। परिणामतः रबी की फसल भी निश्चित हुई है और पिछले वर्ष 2008 से उत्पादन भी 10 प्रतिशत बढ़ा है।
पूरे मौजे में कठिया गेहूं, चना, मटर व मसूर की खेती बिना सिंचाई के सफलतापूर्वक हो रही है।
गांव के हैंडपम्प तथा कुओं का जलस्तर बढ़ा है, जिससे सूखे में भी वर्ष भर पीने के लिए पानी उपलब्ध रहता है।
खरीफ के मौसम में भी तिल व उर्द की खेती ऊसर भूमि में की जाने लगी है।
चकरिया नाला में पानी संरक्षित रहने से आस-पास के क्षेत्र के पशुओं के लिए हरा चारा उगाया जाने लगा है।
अन्य पशुओं के लिए भी चारे व पानी की उपलब्धता आसानी से होने लगी है।

प्रसार


सामुदायिक सहयोग से हुए जल संरक्षण के कार्य को देखकर आस-पास के गांव जैसे घरौन, काली पहाड़ी, मुगौरा तथा अलीपुरा के किसान अपने-अपने खेतों में मेड़बंदी का कार्य करा रहे हैं तथा पानी के तेज बहाव को रोकने के लिए जगह-जगह गलीप्लग बनवा रहे हैं। उपरोक्त गाँवों में पानी संग्रहण के लिए चेकडैम भी जन सहभागिता से बनाया जा रहा है।

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