जल संसाधन के प्रबंधनः वाघाड़ परियोजना (वाघाड़ महासंघ जिला-नासिक, महाराष्ट्र) का अध्ययन


हिन्दुस्तान में सहभागी सिंचाई की परंपरा है। किसान भाई जल स्रोतों का रखरखाव और परिचालन अपनी भागीदारी से करते हैं। महाराष्ट्र के माल गुजारी तलाब फड़ पद्धति राजस्थान की वाराबंदी लोक सहभाग से सिंचाई के उत्तम उदाहरण है। मुगलों के जमाने में भी जल सिंचाई परियोजना बनाई जाती थी जिसे प्रबंधन हेतु किसानों के हाथों सौप दिया जाता था। उस वक्त किसानों में उन योजनाओं के प्रति अपनेपन की भावना थी। इसी भावना से किसान अपना समर्पित सहयोग परियोजना के रखरखाव में देता था। स्वतंत्रता पूर्व किसान के पानी पर हक जमाने के लिए कुछ अधिकारवादी नीतियों की वजह से किसानों का सहयोग जल वितरण क्षेत्र से हटता गया। किसान का अपना पानी पराया हो गया। जैसे-जैसे किसानों का सहयोग घटता गया सहभागी सिंचाई का सूरज ढलने लगा।

आजादी के बाद भी वही नीतियाँ बनी रही। इसका नतीजा देश में ढेर सारे डैम बनने के बावजूद भी सिंचाई के क्षेत्र में बढ़ोतरी के बजाय कटौती ही होने लगी। डैम में पानी बारिश का है तो वह मुफ्त में ही मिलना चाहिए आम किसानों की ये सोच बन गई। राजनीति ने इस मानसिकता को बढ़ावा दिया। दूसरी ओर चाहे 50 हे. की सिंचाई हो या 500 हे. मेरी तनख्वाह पर उसका कोई असर होने वाला नहीं। ये भी मानसिकता बनी इन्हीं के कारण डैम का पानी पूरे लाभ क्षेत्र को मिलने के बजाय मुट्ठी भर लोगों का वेतन बन बैठा। टेल के किसान को सिंचाई के लिए पानी नहीं और सरकार को सिंचाई करने का महसुल नहीं। महसुल ना मिलने से जल वितरण व्यवस्था का रखरखाव नहीं और वितरण व्यवस्था सही न होने से जल वितरण नहीं। इसी चक्र में नहर का पानी उलझ गया।

इससे राष्ट्रीय कृषि उत्पाद के साथ किसान का आर्थिक एवं सामाजिक स्तर घटता गया। दूसरी ओर हिस्सों में बटती जमीनें बदला हुआ मौसम बारिश के घटते दिन बढ़ती आबादी के साथ बढ़ती अनाज की मांग ज्यादा उपज के लिए नगद फसल की ओर किसान का बढ़ता ध्यान, इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए नहर की सिंचाई वितरण प्रबंधन में कुछ सकारात्मक बदलाव होने अनिवार्य है। ये सब बदलाव किसी के सहभाग बिना अधूरे हैं। सहभागी सिंचाई से किसानों को पानी के बँटवारे के साथ खाद्यान्न सुरक्षा भी दी जा सकती है। इसी बात पर गौर करते हुए देश की तथा राज्य की जल नीति में जल संसाधन के प्रबंधन में उपभोक्ता संस्थाओं को शामिल करना एवं ऐसी सुविधाओं का प्रबंधन हस्तांतरण करना शामिल किया गया।

जल संसाधन का प्रबंधन : वाघाड़ परियोजना का अध्ययन (Management of water resources : A Case study of Waghad Irrigation Project)


सारांश:


भारत में प्रारम्भ से ही सहभागी सिंचाई की परम्परा रही है। यहाँ के किसान जलस्रोतों का रख-रखाव और परिचालन अपनी भागीदारी से करते हैं। मुगलों के जमाने में भी जल सिंचाई परियोजना बनाई जाती थी जिसे प्रबंधन हेतु किसानों के हाथों सौंप दिया जाता था। उस वक्त किसानों में उन योजनाओं के प्रति अपने-पन की भावना रहती थी। इसी भावना से किसान अपना समर्पित सहयोग परियोजना के रख-रखाव में देता था। स्वतंत्रता पूर्व किसानों के पानी पर हक जमाने के लिये कुछ अधिकारवादी नीतयों की वजह से किसानों का सहयोग जल वितरण क्षेत्र से हटता गया। किसानों का अपना पानी पराया हो गया। जैसे-जैसे किसानों का सहयोग घटता गया सहभागी सिंचाई का सूरज ढलने लगा। आजादी के बाद भी वही नीतियाँ बनी रहीं। इसका नतीजा देश में अनेक डैम बनने के बावजूद भी सिंचाई के क्षेत्र में बढ़ोत्तरी के बजाय कटौती ही होने लगी। डैम में पानी बारिश का है तो वह मुफ्त में ही मिलना चाहिये आम किसानों की ये सोच बन गई। राजनीति ने इस मानसिकता को बढ़ावा दिया। इन्हीं सब कारणों से डैम का पानी पूरे लाभ क्षेत्र को मिलने की बजाय मुट्ठी भर लोगों को मिलने लगा। टेल के किसान को सिंचाई के लिये पानी नहीं और सरकार को सिंचाई प्रदान करने का टैक्स नहीं टैक्स न मिलने से जल वितरण व्यवस्था का रख-रखाव नहीं और वितरण व्यवस्था सही न होने से जल वितरण नहीं। इसी चक्र में नहर का पानी उलझ गया। इससे राष्ट्रीय कृषि उत्पाद के साथ किसानों का आर्थिक एवं सामाजिक स्तर घटता गया। दूसरी ओर हिस्सों में बटती जमीनें बदलता हुआ मौसम, बारिश के घटते दिन, बढ़ती आबादी के साथ बढ़ती अनाज की मांग ज्यादा उपज के लिये नगर फसल की ओर किसान का बढ़ता ध्यान, इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए नहर के सिंचाई वितरण प्रबंधन में कुछ सकारात्मक बदलाव होने अनिवार्य हैं। ये सब बदलाव किसान के सहभाग बिना अधूरे हैं। सहभागी सिंचाई से किसानों को पानी के बँटवारे के साथ खाद्यान्न सुरक्षा भी दी जा सकती है।

Abstract


From the beginning there was a tradition of participatory irrigation management in India. Farmers maintain and operate water resource under partnership. In Mughal’s period irrigation systems were planned and handed over to the farmers for management. Farmers co-operated in maintaining these schemes. Before independence because of some authoritarian policies farmers co-operation declined from water distribution sector. As the cooperation of farmers had gone down, participatory irrigation declined. These policies continued after independence also. Consequently, despite having so many dams in the country, there was a reduction in irrigated area. Farmer’s thinking was that the water accumulated in the dam area is rain water and it should be free to everyone. Only few people got the benefits of dam water instead of entire region. Due to improper management and distribution of water only few people could get the benefits of irrigation water. There was no irrigation water available for the tail farmers and consequently government could not get proper revenue. Because of no revenue, government could not properly maintain the water distribution system. Therefore national agriculture production decreased along with decreasing the economic and social level of farmers. On the other hand due to fragmentation of land, changes in climate, less rainy days, with increasing population more demand of foods, more interest in cash crop, it became essential to take necessary steps to improve the irrigation distribution system. These improvements are not possible without the cooperation of the farmers. Food security is possible only with the proper distribution of water to the farmers by participating irrigation system.

प्रस्तावना


2005 में वाघाड़ परियोजना वाघाड़ महासंघ के हाथों प्रबंधन हेतु सौंपी गई। तब से इस परियोजना के सिंचाई जल का नियोजन और वितरण संस्था द्वारा किया जाता है। संस्था का लाभ क्षेत्र 24 जल उपभोक्ता संस्थाओं के जरिये दो तहसीलों के सत्रह गाँवों में फैला है। लगभग 16,000 किसान सहभागी सिंचाई में कार्यरत हैं। अंगूर, प्याज, सोयाबीन मूंगफली, टमाटर, चना, गन्ना, तरकारी जैसी फसलें ली जाती हैं। इस परियोजना की एक और विशेषता यह है कि यहाँ का किसान अपने कुशल नियोजन से टेल टू हैड सिंचाई के जरिये आठ महीने से बारह महीने सिंचाई कर रहा है। सहभागी सिंचाई के पूर्व काल में वाघाड़ की नहरें साल में एक दो बार ही चलती थीं। मुश्किल से 900 हे. की सिंचाई होती थी। किसान प्रति वार्षिक प्रति हेक्टेयर 2800/-रु. कमाता था। सिंचाई कर भी सालाना 2 लाख तक ही जमा होता था। किसान के समर्पित सहभाग से जो बदलाव आया उसकी वजह से आज पूरा क्षेत्र सिंचित हो रहा है। नहरें साल में 5-6 बार चल रही हैं। सरकार की सिंचाई कर की आमदनी भी 27 लाख तक बढ़ गई। अंगूर जैसी बारहमासी फसल के कारण किसान प्रति, हेक्टेयर सालाना 1,50,000 रुपये तक मुनाफा कमा रहा है। प्रकल्प स्तरीय संस्था का संचालक मंडल 24 जल उपभोक्ता संस्थाओं में से चुना जाता है। उसमें तीन महिलाओं का होना अनिवार्य है। वाघाड़ की संस्था ने न केवल पानी का बँटवारा करवाया बल्कि लाभ क्षेत्र में निर्मित कृषि उत्पाद के मूल्य वर्धन के लिये वंप्को (वाघाड़ एग्रीकल्चरल प्रोडयूसर कम्पनी) भी स्थापित की।

वाघाड़ की सफलता की ओर देखा जाये तो एक बात प्रमुख रूप से सामने आती है कि वाघाड़ की सफलता किसान के समर्पित सहभाग का आदर्श टीम वर्क है। टीम वर्क में हैं किसान, स्वयं सेवी संगठन, शासकीय यंत्रणा।

वाघाड़ की सहभागी सिंचाई की शुरुआत ओझर गाँव से हुई जो कि निफाड़ तहसील का वाघाड़ के लाभ क्षेत्र का टेल का गाँव ओझर का 1151 हे. क्षेत्र वाघाड़ के लाभ क्षेत्र में आता है। वाघाड़ की योजना 1978 में बनने के बावजूद भी ओझर के किसानों के नसीब में नहर का पानी नहीं था। ओझर का किसान बारिश की फसल लेता था। जिसकी लाठी उसकी भैंस ऐसा चल रहा था। टेल तक मुश्किल से पानी पहुँचता था। 1151 हे. में मात्र 35 हे. की सिंचाई होती थी। इन हालातों में कै बापू साहेब उपाध्ये ओझर के लोक प्रतिनिधि और समाज परिवर्तन केंद्र (ओझर में काम कर रहा स्वयंसेवी संगठन) के संस्थापक अध्यक्ष ने ओझर के किसानों को सहभागी सिंचाई के लिये प्रेरित किया। समय की जरूरत के अनुसार स्वयंसेवी संस्थाओं ने अपने काम में बदलाव लाकर आज भी समाज परिवर्तन केंद्र जल उपभोक्ता संस्थाओं के साथ सक्रियता से कार्यरत हैं। अनेक बैठकों के बाद किसानों ने जल उपभोक्ता संस्था बनाने की ठान ली और एक जन आंदोलन सहभागी संस्था सिंचाई के क्षेत्र में शुरु हुई जिसका नारा था ‘‘हक का पानी छोड़ना नहीं दूसरों का पानी तोड़ना नहीं’’। सन 1991 में तीन जल उपभोक्ता संगठन (महात्मा फूले पानी वापर संस्था, जय योगेश्वर पानी वापर संस्था, बाण गंगा पानी वापर संस्था) ओझर में स्थापित हुईं। सरकार के साथ करार हुआ, उसमें संस्था का पानी कोटा दर्ज किया गया। कोटे के बराबर इतना पानी संस्था तक पहुँचाना सरकार के लिये अनिवार्य हो गया। ओझर में जहाँ पर 35 हे. की सिंचाई होती थी वहाँ पर आज रबी में 750 हे. और गर्मी में 330 हे. की सिंचाई होती है। ओझर में आया बदलाव देखकर लाभ क्षेत्र के बाकी गाँवों के लोग भी सहभागी सिंचाई की ओर आकर्षित हुए क्योंकि हेड तथा टेल दोनों पानी से वंचित थे। बारह साल में वाघाड़ का लाभ क्षेत्र सहभागी सिंचाई की लपेट में आ गया। सही मायने में किसान अपने हक के पानी का मालिक बन गया। वाघाड़ के सभी किसानों को सही तरह से पानी मिलने लगा। संस्था के लाभ क्षेत्र में पानी के बँटवारे का सही संतुलन बनाए रखने के लिये समूची परियोजना की जल वितरण संस्था के हाथ में आने से पानी के नियोजन और नियंत्रण में सुविधा हुई।

सारणी 1 वाघाड़ प्रकल्प स्तरीय संस्था की सदस्य संस्थाएँ

क्र.सं.

संस्था का नाम

गाँव

संस्था क्षेत्र हे.

पाणी कोटा एम.एम. 3

1

कोलवण पानी वापर संस्था

हातनोरे

266

628.61

2

कानिफनाथ पानी वापर संस्था

निलवंडी

318

631.77

3

मोहलबन पानी वापर संस्था

दिंडोरी

142

283.27

4

गणेश पानी वापर संस्था

दिंडोरी

423

831.85

5

बालासाहेब राजे पानी वापर संस्था

दिंडोरी

131

260.99

6

पोपटराव जाधव पानी वापर संस्था

दिंडोरी

107

212.46

7

माणकी परिसर पानी वापर संस्था

दिंडोरी

90

180.10

8

आंबेडकर पानी वापर संस्था

दिंडोरी

762

154.2.17

9

जय जर्नादन पानी वापर संस्था

कोराटे

252

502.04

10

समर्थ पानी वापर संस्था

मोहाड़ी

855

1695.52

11

सप्तश्रुंगी पानी वापर संस्था

मोहाड़ी

284

564.89

12

नवनाथ पानी वापर संस्था

मोहाड़ी

1030

2042.48

13

बाणगंगा पानी वापर संस्था

ओझर

181

360.85

14

बलीराजा पानी वापर संस्था

जानोरी

334

464.13

15

लक्ष्मी माता पानी वापर संस्था

टंबे

286

569.02

16

बनेश्वर पानी वापर संस्था

टंबे

284

563.56

17

जय बजरंग पानी वापर संस्था

जानोरी

368

730.27

18

जगंदबा पानी वापर संस्था

जानोरी

325

645.24

19

महात्मा फुले पानी वापर संस्था

ओझर

319

633.79

20

जय योगेश्वर पानी वापर संस्था

ओझर

562

1114.91

21

महालक्ष्मी पानी वापर संस्था

निगडोल

354

703.84

22

श्रीकृष्ण पानी वापर संस्था

पाड़े

329

653.67

23

माउली आदिवासी पानी वापर संस्था

कादवा

692

1373.53

24

रंगनाथ गोपाला पानी वापर संस्था

वलखेंड़

979

1942.53

24 संस्थाओं ने मिलकर एक महासंघ बनाया। महाराष्ट्र सरकार के सामने प्रस्ताव रखा। सरकार भी इससे प्रभावित हुई। मगर सिंचाई कर की वसूली का यकीन नहीं था। उस वक्त सभी संस्थाओं ने मिलकर पाँच लाख रु. इकट्ठा किया और सरकार को बैंक गारंटी दी। सन 2003 में वाघाड़ की नहरें और सन 2005 में प्रबंधन के लिये पूरी परियोजना प्रकल्प स्तरीय संस्था के हाथों सौंपी गई। तब से वाघाड़ परियोजना का सिंचाई के पानी का नियोजन और नियंत्रण संस्थाकर रही है। 24 जल उपभोक्ता संस्थाओं में से 12 सदस्य प्रकल्प स्तरीय संस्था के लिये चुने जाते हैं। सिंचाई कर की आकारनी और वसूली जल उपभोक्ता संस्था द्वारा की जाती है। डैम के मुँह पर सरकार प्रकल्प स्तरीय संस्था को पानी घन मापन से नाप कर देती है। आगे बँटवारे का नियोजन प्रकल्प स्तरीय संस्था करती है। माइनर लेवल की संस्था का लाभ क्षेत्र जहाँ से शुरू होता है वहाँ पर पानी नापने के साधन (सि.टी.एफ.) के जरिये उसको पानी नाप कर दिया जाता है। पानी को नापकर रजिस्टर में दर्ज करके दोनों तरफ से दस्तखत किये जाते हैं। जल कर आकारनी के वक्त शासन प्रकल्प स्तरीय जल उपभोक्ता संस्था को जल कर आकारणी करता है। उसमें व्यवस्थापन खर्च के तहत 10 प्रतिशत राशि मिलाकर प्रकल्प स्तरीय संस्था माइनर लेवल की संस्था को आकारणी करता है। हर संस्था अपना खर्च लगाकर किसान को जल कर की आकारणी करती है। हर संस्था ने दफ्तरी कामकाज के लिये सचिव और पानी के बँटवारे के लिये कैनाल इंस्पेक्टर नियुक्त किये हैं। उनकी तनख्वाह जल उपभोक्ता संस्था देती है। रबी सीजन में शासन का दर 72.60 रुपये प्रति यूनिट और गर्मी में 144/-रुपये प्रति यूनिट है। किसान का पानी प्रति घंटा रबी में 70/- रुपये और गर्मी में 150/- प्रति घंटा है।

Fig-2

वाघाड़ की फसलें

फसलें

अंगूर

गन्ना

सोयाबीन

गेहूँ

टोमॅटो

फूल शेती

फलबाग

चारा पीके

क्षेत्र हे.

4253

960

1520

2300

105

90

80

132

अक्तूबर के महीने में संस्था के प्रतिनिधि और शासन अधिकारी साथ बढ़कर डैम में उपलब्ध पानी के आधार पर साल के पानी का नियोजन करते हैं। (60% रबी के लिये और 40% गर्मी के लिये)। संस्था की आय.सी.ए. पर आधारित पानी कोटा से निकाली जाती है। संस्था को साल के पानी का कोटा अक्तूबर में ही मालूम होता है। हमेशा यह पाया जाता है कि नहर के प्रवाह से पानी इस्तेमाल करने वाले किसानों के बीच एक टकराव दिखता है। मगर यहाँ पानी नियोजन के वक्त सबका साथ में नियोजन होता है। हर नहर अवर्तन के पहले संस्था की बैठक होती है, नियोजन होता है, फिर नहरें चलाई जाती हैं। हर जल उपभोक्ता संस्था का लाभ क्षेत्र हेड, मिडिल और टेल हिस्सों में बाँटा जाता है। जिस संस्था का लाभ क्षेत्र 500 हे. तक है उसके लिये 9 सदस्य और जिस संस्था का 500 हे. के उपर है उसके लिये 12 सदस्य चुने जाते हैं। चुने गये सदस्यों में हर प्रभाग से एक महिला का होना अनिवार्य है। चुने हुये सदस्य मण्डल का कार्यकाल छः साल का है। अध्यक्ष पद दो साल के लिये हर प्रभाग को मिलता है। अध्यक्ष पद का एक कार्यकाल महिला अध्यक्ष के लिये आरक्षित है।

सन 2005 में महाराष्ट्र शासन ने सिंचाई कानून (महाराष्ट्र सिंचन पद्धति से शेतक यान कडून व्यवस्थापन कायदा 2005) पारित किया। कानून के तहत लाभ क्षेत्र के हर किसान को अपने पानी की हकदारी जल उपभोक्ता संस्था के माध्यम से मिली। जब कोई संस्था संगठित होती है तब उस संस्था की जल वितरण प्रणाली का लोक सहभाग से पुनर्निमाण करके संस्था के हाथों प्रबंधन हेतु सौंपी जाती है। अगर संस्था का पहला चुनाव बिना मतदान होता है तो राज्य सरकार की तरफ से जल उपभोक्ता संस्था को 15-20 हजार की प्रोत्साहन राशि मिलती है। किसान का पानी का हक उसके पास सही पहुँचता है या नहीं ये जाँचने के लिये और डैम के पानी के मुताबिक किसान की पानी की हकदारी तय करने के लिये कानून के तहत महाराष्ट्र जल संम्पत्ति नियमन प्राधिकरण की स्थापना की गई है। जल उपभोक्ता संस्था की 15 प्रतिशत आर्थिक भागीदारी से सरकार की तरफ से संस्था के लिये 150 स्क्वायर फुट के दतर की इमारत का निर्माण किया जाता है। निर्धारित समय में सिंचाई कर का भुगतान जल उपभोक्ता संस्था की तरफ से होता है तो राज्य सरकार की तरफ से जमा राशि में से 50 प्रतिशत राशि संस्था को वापिस की जाती है। साल में एक बार संस्था की कारोबारी चर्चा के लिये और पानी के नियोजन के लिये दो सर्वसाधारण सभा आयोजित की जाती है। साल में 8-10 बार संस्था के संचालक मंडल की बैठक होती है। हर जल उपभोक्ता संस्था हर साल अपना वार्षिक अहवाल प्रस्तुत करती हैं। इस अहवाल में संस्था के पूरे साल के कारोबार का विवरण होता है। ये अहवाल जल उपभोक्ता संस्था के कारोबार का आइना है।

हमेशा यह कहा जाता है कि किसी विशेष व्यक्ति द्वारा शुरू किया काम उसके बाद रुक सा जाता है। मगर ओझर वाघाड़ में यह नहीं हुआ कै बापू साहेब उपाध्ये, कै राजाभाऊ कुलकर्णी, के बाद भरत कावले (समाज परिवर्तन के कार्याध्यक्ष) श्री रामनाथ वाबले, श्री शाहजी सोमवंशी, श्री शिवाजी पिंगल, आदि ने डोर सम्भाली और आज सहभागी सिंचाई के आन्दोलन में तीसरी पीढ़ी कार्यरत है। आज यहाँ हो रहा काम औरों के लिये उतना ही जोशीला व आदर्शवत है।

Imageवाघाड़ परियोजना से प्रेरणा लेकर महाराष्ट्र में कई सिंचाई परियोजनाओं पर सहभागी सिंचाई योजना कार्यरत हुई। आज महाराष्ट्र में 3500 से ऊपर जल उपभोक्ता संस्था के माध्यम से लगभग 32 लाख हे. में सहभागी सिंचाई कार्यरत है। परियोजना के प्रबंध का अध्ययन करने के लिये देश-विदेश से किसान, स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधि, विश्व बैंक के सदस्य तथा सरकारी अधिकारी, परियोजना अधिकारियों से भेंट करते हैं। परियोजना को सन 2009 में आय.सी.आय.डी का वॅट सेव अवार्ड, राष्ट्रीय उत्पादकता पुरस्कार, सी.आय.आय. हैदराबाद का उत्कृष्ट जल नियोजन पुरस्कार, महाराष्ट्र शासन का राज्य स्तरीय उत्कृष्ट व्यवस्थापन पुरस्कार प्राप्त हुआ।

ओझर एवं वाघाड़ की सहभागी सिंचाई की यशस्विता तथा लाभ क्षेत्र में आये बदलाव के मुख्य बिंदु


किसानों का समर्पित सहभाग: अभियंता द्वारा बनाई गई पार्थिव रचना लोक सहभाग बिना अधूरी है। उनका कहना था कि बाघाड़ के टेल को पानी नहीं जायेगा, किसान ने माइनर का पत्थर, मिट्टी निकालकर मरम्मत की और टेल में 153 हे. की सिंचाई की। परियोजना हस्तांतरण के वक्त सरकार द्वारा सिंचाई महसूल की बैंक गारंटी देने के लिये 5 लाख की राशि इकट्ठा की गई। वालमी ने (वाटर एण्ड डवलपमेंट इन्स्टीट्यूट औरंगाबाद) जो पानी बँटवारा और नापना सिखाया उसका माइनर पर सही अध्ययन किया। घन मापन से नापकर मिलने वाले पानी का बँटवारा किसानों में घंटों के आधार पर किया। माइनर के पुनर्निमाण में प्रति हे. 500/- (200/-नकद और 300/- का श्रमदान) अंशदान दिया।

किसान की सिंचाई सोच में आया बदलाव: मेरे साथ मेरे पड़ोसी का भी नहर के पानी पर हक है। पानी का मूल्य आधा करना मेरा फर्ज है। अवर्तन के दौरान संस्था का कैनाल इंस्पेक्टर पानी बँटवारे के साथ एक रिपोर्ट तैयार करता है। उसमें पानी बाँटते वक्त नहर पर पाया गया आँखों देखा हाल होता है और वह रिपोर्ट अवर्तन के बाद की बैठक में पढ़ी जाती है। उस पर बड़ी गौर से चर्चा होती है। जहाँ कहीं गलत हो रहा हो वहाँ पर कानून या दंडात्मक कार्यवाही के बजाय (2005 के कानून के तहत संस्था को ढेर सारे अधिकार प्राप्त हैं) सामाजिक दबाव का उपयोग करके लोगों की मानसिकता में बदलाव लाया जाता है। मानसिकता में बदलाव आये तो समस्या का जड़ से समाधान होता है।

सिंचाई कर की वसूली और कर्मचारी नियुक्ति: सिंचाई कर के आकरनी और वसूली संस्था की तरफ होने से संस्था की आर्थिक स्थिति में संपन्नता आई। साथ ही संस्था के कर्मचारियों की नियुक्ति और उनकी तनख्वाह संस्था द्वारा दी जाती है जिससे कर्मचारियों पर एक दबाव बना रहता है। वाघाड़ के संस्थाओं ने कर्मचारी नियुक्ति करते वक्त लाभ क्षेत्र के ही किसानों के लड़कों को वाल्मी औरंगाबाद में प्रशिक्षित किया और काम पर लगाया।

राजनीति को दूर रखा: पानी सर्वव्यापी है। खुद का कोई रंग नहीं होता। यह जिसमें मिलता है उसी का रंग प्राप्त कर लेता है। पानी के बिना किसान का विकास अधूरा है। ये बात ध्यान में रखते हुए वाघाड़ के किसानों ने पानी को राजनीति से दूर रखा। वाघाड़ के आज तक के सभी चुनाव वोटिंग प्रक्रिया बिना हुए हैं।

टेल टु हेड सिंचाई: नहर का पानी सबसे पहले आखिरी वाले किसान को मिलने से उसके मन में संस्था के प्रति एक अपनेपन की भावना आ गई, विश्वास पैदा हुआ और संस्था के प्रति आदर भाव बढ़ गया। संस्था के पूर्व काल में उसको पानी देखने को ही नहीं मिलता था। आज उसके खेत में सिंचाई हो रही है।

आठ महीने पानी में बारह महीने सिंचाई: ये सोच है कि आठ महीने पानी से बारह महीने सिंचाई करने से क्षेत्र में बढ़ोत्तरी होती है। मगर ऐसे बदलाव करके भी अगर सही नियोजन नहीं होगा तो कुछ खास हासिल नहीं होता। वाघाड़ के किसानों ने कुशलतापूर्वक नियोजन से अंगूर जैसी बारह महीने की फसल आठ महीने की परियोजना पर खड़ी की। जल उपभोक्ता संस्था का जो करारनामा होता है, उसमें स्पष्ट रूप से दर्ज किया गया है कि जल उपभोक्ता संस्था खरीफ व रबी में पानी बचाकर डैम में रख सकती है। उसका उपयोग गर्मी के मौसम में कर सकती है इससे फसल की सघनता में बढोत्तरी होगी। वाघाड़ पर इसी बदलाव से किसान के साथ-साथ खेत मजदूर का जीवन स्तर भी ऊँचा हो गया है अंगूर के सहारे वाघाड़ का किसान प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष दो लाख रुपये तक कमा रहा है। खेत मजदूर के लिये सालाना 40-50 दिन के बजाय 250 दिन के रोजगार का सृजन हुआ।

फसल की आजादी: फसल की आजादी मिलने के कारण किसान ज्यादा उपज वाली फसलें उगाने लगे। साथ ही सरकार के सिंचाई कर के महसूल में भी बढ़ोतरी हुई।

पानी का नापकर बँटवारा और संयुक्त पानी वापरः मौसम बदलाव के कारण प्रति हेक्टेयर पानी की उपलब्धता घट रही है। ऐसी हालत में उपलब्ध जल का सही नापकर बँटवारा किया तभी तो सबको पानी मिलेगा। ये बात ध्यान में रखकर पानी का बँटवारा होता है। जितनी जमीन उतनी सिंचाई के बजाय जितना पानी उतनी सिंचाई की जाती है। अवर्तन के दौरान आई किसान की मांग माइनर की वहन क्षमता को ध्यान में रखकर किसान के पानी के घंटे तय किये जाते हैं।

घंटों पर आधारित पानी बँटवारे के फायदे: 1. किसान ने समय का मूल्य समझा; 2. पानी की बर्बादी कम होकर सिंचाई का कार्य क्षमता बढ़ी’, 3. किसान के जलकर में कटौती;, 4. जल उपभोक्ता संस्था के पानी में बचत; 5. जितनी फसल की जरूरत उतना ही पानी का उपयोग; 6. जल कर आकारणी में आसानी! (घंटों के हिसाब पर) 7. सिंचाई के मनुष्य बल में कटौती; 8. पड़ोसी द्वारा सिंचाई पर नजर, तथा 9. पानी के बँटवारे में अनुशासन।

देखा जाय तो वाघाड़ के कमांड के लिये जितना पानी है उस पानी में अगर सभी लाभ क्षेत्र नहर के जरिये सिंचित किये तो दो ही आर्वतन हो पायेंगे (प्रति हेक्टेयर पानी की उपलब्धता आठ इंच।) मगर सही तरीके से बँटवारा किया जाये एवं ठिबक सिंचाई का उपयोग (वाघाड़ के आधे लाभ क्षेत्र में ठिबक सिंचाई का उपयोग किया जाता है) करके दो आवर्तन के बीच फसल के पानी की जरूरत को भी पूरा किया जाता है। तब यहाँ का किसान अपनी बावड़ी का पानी फसल को देता है। यानि नहर का पानी (भूपृष्ठ जल) और बावड़ी (भूजल) का पानी इन दोनों का संयुक्त रूप से उपयोग होता है।

उत्पादित कृषि माल का मूल्यवर्धन: संस्था के सुयोग्य बँटवारे से किसान को पानी मिला परिणामस्वरूप उसका कृषि उत्पादन बढा दिन-ब-दिन मौसम में आये बदलाव के कारण फसलें रोग की चपेट में आ रही हैं। सही सलाह न मिलने से गलत और अनियंत्रित तरीके से कृषि रसायनों का इस्तेमाल होने लगा। उससे पर्यावरण की हानि के साथ उत्पादित कृषि माल बाधित हो रहा है। बाधित कृषि माल इस्तेमाल करने से समाज का स्वास्थ्य घटा। साथ में उत्पादित माल की बाजार व्यवस्था का सवाल है। इन सबको ध्यान में रखते हुये तष्टेबर 2009 में वॅप्को के नाम से कृषि माल उत्पादकों की कंपनी स्थापित की ताकि इन सवालों का हल निकाला जा सके।

दिनों-दिन कारोबार में आधुनिक तकनीकों का उपयोग


(मोबाइल हैण्डसेट के द्वारा जल उपभोक्ता संस्था का पानी कोटा निकालना)

जल उपभोक्ता संगठनों की कारोबार में आधुनिकता लाने के लिये कम्प्यूटर मोबाइल हैण्डसेट का उपयोग बहुत जरूरी है। मोबाइल हैण्डसेट आसानी से उपलब्ध है और हर कोई उसका उपयोग करता है। मोबाइल हैण्डसेट की कार्य प्रणाली का उपयोग करके जल उपभोक्ता की कारोबार गति बढ़ सकती है। जैसे कि संस्था का आवर्तन पानी कोटा निकालना, रोटेशन के दौरान पानी गेज का रिकॉर्ड रखना। नोकिया कंपनी के 2000/- के नीचे के हैण्डसेट इसके लिये बहुत उपयुक्त है।

पानी का कोटा निकालने के लिये मोबाइल में कन्वर्टर कार्य प्रणाली का उपयोग किया जाता है।

1. पहले एक्स्ट्रा ऑप्शन को खुलवाना।
2. उसमें कन्वर्टर ऑप्शन को खुलवाना।
3. उसमें ‘‘माय कनवर्जन’’ में अपने को कई कनवर्जन से दर्ज करने की सुविधा है।
4. मूलभूत जानकारी को इसमें दर्ज करने के लिये प्रथम एडिट का पर्याय उपयोग में लाना।
5. उसमें 4 सब-ऑप्शन में मूलभूत जानकारी को दर्ज करना है।

i. टाइटल - अपनी संस्था का नाम दर्ज करना।
ii. इनपुट - यहाँ पर एम.सी.एफ.टी. टाइप करके दर्ज करना (डैम से छोड़ा हुआ पानी)
iii. आउटपुट - यहाँ पर डि.क्यु टाइप करके दर्ज करना (संस्था का आवर्तन का पानी कोटा)
iv. फैक्टर - नीचे दिए गए सूत्र के मुताबिक आई हुई फीगर

यहाँ दर्ज करनी। यह हर संस्था के लिये अलग होती है।

यहाँ पर आपका डाटा दर्ज करने का काम पूरा होता है। जब संस्था के पानी का कोटा निकालना है तो उस वक्त माई कनवर्जन में जो संस्था का नाम दर्ज किया है, उसे खुलवाकर उसमें कनवर्जन पर्याय आयेगा। स्क्रीन पर एम.सी.एफ.टी. और डि.क्यू. ऐसे दो नाम आयेंगे। डैम में से छोड़े जाने वाले पानी का अंक दर्ज करने से नीचे तुरंत संस्था का पानी कोटा डि.क्यू में आता है। डैम में से छोड़े जाने वाले पानी का अंक दर्ज करते वक्त उस पानी में से नहर का वाटर लॉस और लिट के पानी को हटा देना। स्प्रेडशीट में कुछ बदलाव करके पानी के गेज को रिकॉर्ड किया जा सकता है।

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प्रबंधन हेतु हस्तांतरण


फसल की जरूरत के अनुसार पानी का नियोजन होने से फसल की पैदावार में बढ़ोतरी हुई। सिंचाई की हर बूँद का महत्व शासन को मिलने लगा।

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सम्पर्क


जी आर कुलकर्णी, आई एस चौधरी, एस एम वेलकरे एवं बी टी कावले, R Kulkarni, I S Chaudhary, SM Velkare & B T Kavle
महात्मा ज्योतिबा फूले पाणीवापुर संस्था, गांव-ओझर, जिला-नासिक 422206 (महाराष्ट्र), Mahatma Jyotiba Fule Panivapur Sanstha, Vill-Ozar, Dist-Nashik 422206 (Maharastra)

भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान पत्रिका, 01 जून, 2012


इस रिसर्च पेपर को पूरा पढ़ने के लिए अटैचमेंट देखें



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