जलवायु परिवर्तन और प्लास्टिक कचरे के कुप्रभाव से समुद्रतटीय भारतीय धरोहरों को खतरा


विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून पर विशेष

.5 जून को पर्यावरण दिवस मनाने का तात्पर्य सही मायनों में प्रकृति को प्रभावित करने वाले उन कारकों के विश्लेषण का दिन होता है, जिसे हर आम व्यक्ति अपने स्तर पर विश्लेषित करता है। यूँ तो साल भर पर्यावरण से सम्बन्धित अनेक बैठकें, कार्यक्रम, सम्मेलन गाँवों से लेकर विश्वस्तर तक होते रहते हैं और इनके ही नतीजे हैं, जो वे तथ्य सामने आ सके हैं कि पृथ्वी का कोई कोना ऐसा नहीं बचा है, जहाँ पर्यावरण अपने विशुद्ध रूप में प्रकृति पर विद्यमान हो। पिछले महीने ही तस्मानिया इंस्टीट्यूट फॉर मरीन एंड अंटार्कटिक स्टडीज (आईएमएएस) ने अपने शोधों में पाया है कि चिली और न्यूजीलैंड के बीच दक्षिण प्रशांत महासागर में सुदूर स्थित विश्व धरोहर घोषित हेंडर्सन द्वीप के समुद्र तटों पर 17.6 टन कचरा बिखरा पड़ा है। द्वीप के समुद्रतट पर रोज कचरे के 3,570 टुकड़े बहकर आते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार हेंडर्सन द्वीप पर प्रति वर्ग मीटर क्षेत्रफल में कचरे के 671.6 टुकड़े मिले हैं। मानव सभ्यता की कल्पना में पृथ्वी के सबसे दूरस्थ भाग की श्रेणी में आने वाले प्राचीन ‘डेजर्टेड आइलैंड’ से भी दूर हेंडर्सन द्वीप के लिये सामने लाए गए प्रदूषण के ये आंकड़े आश्चर्य मिश्रित चिंता में डालने वाले हैं। इस द्वीप में आंकलित कचरे में अधिकांश मात्रा प्लास्टिक कचरे की पाई गई है। जब हेंडर्सन द्वीप जैसे निर्जन स्थान का यह हाल है तो जनसंख्या से अटे पड़े विश्व भागों का अंदाजा किन्हीं आंकड़ों का मोहताज नहीं हो सकता।

यह बात अच्छी तरह से साफ होती जा रही है कि जहाँ एक ओर अन्य प्रदूषकों के साथ-साथ प्लास्टिक कचरा वैश्विक स्तर पर पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहा है, वहीं इनके कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्राकृतिक और ऐतिहासिक विरासत स्थलों के लिये सबसे बड़ा खतरा बनता जा रहा है। अभी इसी मुद्दे को लेकर 29 से 31 मई 2017 के बीच यूनेस्को किंग्स्टन और यूनेस्को जमैका नेशनल कमीशन के सहयोग से जमैका के कल्चर, जेण्डर, एण्टरटेंमेंट एण्ड स्पोर्ट (एमसीजीईएस) मंत्रालय ने विश्व संस्कृति और धरोहर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर तीन दिवसीय संगोष्ठी और कार्यशाला आयोजित की थी। विश्व भर में कुल मिलाकर 1,052 विश्व धरोहर स्थल हैं। इनमें से करीब 50 को विश्व धरोहर लुप्तप्राय स्थलों के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। उनमें से कई संकटग्रस्त क्षेत्रों में हैं, जिनके जीर्णोद्धार करने की सख्त आवश्यकता है। समय रहते इस दिशा में यदि उचित कार्यवाहियाँ नहीं की गईं, तो वो दिन दूर नहीं जब ये ऐतिहासिक स्मारक महज इतिहास के पृष्ठों में ही सिमटकर रह जाएँगे।

कुछ दिन पहले एक और आंकड़ा सामने आया था, जिसमें स्पष्ट किया गया कि हर साल पूरी दुनिया में उत्पादित होने वाला लगभग 30 करोड़ टन प्लास्टिक दोबारा उपयोग में नहीं लाया जाता है, जिसका दीर्घकालिक प्रभाव कहीं न कहीं पृथ्वी के चारों महासागरों पर पड़ रहा है। समुद्री खाद्यश्रृंखला और खाद्यजाल बुरी तरह अनियमित होकर समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को बदल रहे हैं। एक अन्य शोध निष्कर्ष से पता चला है कि समुद्री मछलियों के पेट में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक मिलने लगा है। इस तरह मछलियों में प्लासटिक का मिलना न केवल मत्स्य प्रजातियों के लिये घातक है, बल्कि समुद्री खाद्य पर निर्भर मनुष्यों व अन्य जीवों का जीवन भी खतरे में पड़ जाएगा। इस दृष्टिकोण से समुद्री द्वीपों या समुद्रीतटों के स्थलों की बात की जाए तो प्लास्टिक से होने वाला प्रदूषण जलवायु परिवर्तन जितना ही खतरनाक बनता जा रहा है। समुद्रतटों के मूल निवासियों को हमेशा ही उनके निवास स्थानों पर आने वाले खतरों के प्रति तैयार रहने की सलाह दी जाती है।

Dwarikaपृथ्वी पर भौगोलिक रूप से सबसे निचले द्वीप माने जाने वाले हिन्द महासागर में स्थित अपनी खूबसूरती के लिये प्रसिद्ध मालदीव के बारे में चौंकाने वाली बात सामने आई है कि जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री जल के बढ़ने से मालदीव सम्भवतः अतिशीघ्र निवास करने योग्य भी नहीं बचेगा। ऐसा ही कुछ हाल भारत के सुदंरवन क्षेत्र का है। बंगाल की खाड़ी का जलस्तर बढ़ने के कारण सुंदंरवन के कई द्वीप समुद्र में डूब चुके हैं और दूसरों पर इसका खतरा मंडरा रहा है। विश्वस्तरीय जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्‍सर्जन इसी तरह चलता रहा, तो भूमण्डलीय तापन के कारण सन 2100 तक समुद्र के जलस्‍तर में करीब 75 से 190 सेंटीमीटर तक की बढ़ोतरी हो सकती है। निश्चित है कि ऐसे में सर्वाधिक प्रभाव समुद्री तट के किनारे वाले भागों पर सबसे पहले पड़ेगा।

भारत के संदर्भ में इस तथ्य को जोड़ें, तो यहाँ भी गम्भीर स्थिति स्पष्ट नजर आ रही है। भारत की भौगोलिक स्थिति दर्शाती है कि हिन्द महासागर में इसके दक्षिण-पश्चिम में मालदीव, दक्षिण में श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व में इंडोनेशिया की सामुद्रिक सीमाएँ लगती है और इसके पूर्व में बंगाल की खाड़ी है तथा पश्चिम में अरब सागर हैं। इस विशाल समुद्रतटीय जीवंत देश का अपना विविध सांस्कृतिक इतिहास रहा है, जिसकी गाथाएँ इसके समुद्रतटों पर बने मंदिर, किले आदि जैसे विरासत स्थल सुनाते हैं। यहाँ एक बात भली-भाँति समझने की है कि भारत में इस समय जितनी भी समुद्रतटीय विश्व धरोहर स्थल, प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक इमारते हैं, उनका निर्माण उस समय की एक विशिष्ट स्थानीय जलवायु के अनुसार किया गया था। हम सभी जानते हैं कि भारत में कई प्रकार की जलवायु पाई जाती है। यहाँ दक्षिण में उष्णकटिबंधीय, हिमालयी क्षेत्रों में अल्पाइन (ध्रुवों की भाँति), पूर्वोत्तर में उष्णकटिबंधीय परन्तु नम और पश्चिमी भागों में शुष्क प्रकार की विविधता और विशिष्टता वाली जलवायु होती है। भारत के पूर्वी व पश्चिमी और दक्षिणी समुद्रतटों पर बने सांस्कृतिक ऐतिहासिक विरासत स्थलों को इस समय लगातार जलवायु परिवर्तनशील कारकों के बदलने से खतरा बना हुआ है।

समुद्रतटों की जलवायु को निरंतर परिवर्तित कर रहे प्रमुख कारकों में समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी के अलावा समुद्री अम्लता और लवणता, सतह पर हवा के तापमान में वृद्धि, असामान्य मानसून, प्रचण्ड तूफान, वर्षा और आर्द्रता में हो रहे बदलाव भी उतनी ही गुणात्मक और मात्रात्मक अहमियत रखते हैं। इसके साथ-साथ समुद्रतटों पर बढ़ रही मानव आबादी, मत्स्यपालन और शिपिंग उद्योगों के विकास और जलपरिवहन की सुविधाओं की भी कहीं न कहीं समुद्रतटीय जलवायु परिवर्तन में महती भूमिका है। ये सभी कारक सम्मिलित रूप से समुद्रों के निकट स्थित धरोहरों, विरासत स्थलों और राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों में क्रमिक अपक्षय के महत्त्वपूर्ण और अपरिहार्य कारण साबित हो रहे हैं। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के समायोजन में सुधार की आवश्यकता है, जिससे तत्काल प्रतिक्रिया के लिये समय पर इन परिवर्तनों की पहचान की जा सके और सांस्कृतिक विरासत को बदलते माहौल और आपदाओं के लिये अधिक लचीला बनाने में सुधार किया जा सके।

भारतीय तटीय क्षेत्र अपने समृद्ध विरासत के लिये प्रसिद्ध रहे हैं जैसे पश्चिम में औपनिवेशिक युग की इमारतें जिनमें गोवा, दमन दीव के ऐतिहासिक किले, मंदिर और चर्च, पूर्व में उड़ियाई मंदिर और दक्षिण में द्रविड़ मंदिर। कुछ बेहतरीन उदाहरणों में उड़ीसा के पुरी का जगन्नाथ मंदिर और तमिलनाडु का तटीय महाबलिपुरम मंदिर हैं। पश्चिम में गुजरात के सोमनाथ और द्वारिकाधीश मंदिर आते हैं। लाखों की संख्या में प्रतिदिन देश-विदेश से लोग यहाँ घूमने आते हैं। विश्वभर में प्रदूषण के प्रति और भारत विशेष में स्वच्छता को लेकर इतनी अधिक जागरुकता के बावजूद भी इन पर्यटन स्थलों के आस-पास कचरा फैलाने की प्रवृत्ति कम होने का नाम नहीं ले पा रही है।

थोड़े बहुत स्वच्छता नियमों का पालन करते लोग कुछ ही समय में अपनी आलस्य और अकर्मण्य आदत के चलते कब कारों और वाहनों की खिड़कियों से कोल्ड्रिंक की बोतलें और चिप्स के रैपर बाहर फेंकते जाते हैं शायद उनको खुद भी होश नहीं रहता। क्योंकि वे इन विरासतों को अपना समझते हुए नहीं देखते। वे उनके लिए सिर्फ और सिर्फ कई वर्षों से खड़ी इमारतों से अधिक कुछ और मायने नहीं रखतीं। देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन और कचरा वृद्धि दोनों के लिये मानव ही जिम्मेदार है। फर्क केवल यह है कि जलवायु परिवर्तन के उत्तरदायित्व को भौतिकरूप से समझ पाना और स्वीकार कर पाना कठिन होता है, लेकिन कचरा फैलाना बिल्कुल सामने दिखने वाली प्रवृत्ति है, जिससे हम नजरें चुराते हैं।

Puri भौतिक सामग्रियों को जुटाकर आधुनिक होने का दम्भ भरने वालों ने ही पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। उस पर तुर्रा यह कि गरीबों ने चूल्हों और कोयले कण्डों से गंदगी मचा रखी है, वे ही पर्यावरण में कार्बनडाइऑक्साइड की वृद्धि के जिम्मेदार हैं। इसलिए हम पेरिस समझोते से अपनेआप को अलग करते हैं। पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्यों से मुक्त होने की सोच को आज ट्रम्पीय अमेरिकी सोच की संज्ञा दे दी जाए, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हर वो व्यक्ति जो समुद्रतटों पर कचरा फैला रहा है, वैश्विक धरोहरों की चिंताओं से स्वयं को जोड़ पाने के प्रति असंवेदनशील है और सिर्फ स्वयं के विकास के स्वार्थ की सीमाओं में बँधा है, वह भी कहीं न कहीं अपने स्तर पर पेरिस समझौते से दूर हो रहा है। हस्ताक्षर जैसी प्रतिबद्धताएँ सही कर्तव्यनिष्ठाएँ नहीं कही जा सकती, कोई व्यक्ति निजीतौर पर कितने प्रतिशत पर्यावरण संरक्षण की भावना से जुड़ा है, यह कहीं अधिक मायने रखता है। तभी तो भूटान जैसे छोटे से देश को धरती पर सबसे हरित देशों में से एक माना गया है। विश्व बैंक के अनुसार वर्तमान में भूटान की कार्बन उत्सर्जन दर सबसे नगण्य प्रति व्यक्ति 0.8 मीट्रिक टन है। न केवल भूटान कार्बन तटस्थ है, यह एक कार्बन सिंक भी है।

यह दुनिया के उन कुछ देशों में से एक है, जो नकारात्मक कार्बन उत्सर्जन की श्रेणी में रखे गए हैं। हाल के आंकड़ों के मुताबिक भूटान में प्रति वर्ष 1.5 मिलियन टन कार्बन का उत्सर्जन होता है और इसके वन 6 मिलियन टन से अधिक कार्बन अवशोषित करते हैं। इसके बावजूद यह देश अभी भी सन 2020 तक शून्य शुद्ध ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की दिशा में आगे बढ़ना चाहता है, साथ ही वह सन 2020 तक 100 प्रतिशत कार्बनिक और सन 2030 तक शून्य अपशिष्ट होने की दिशा में भी प्रतिबद्ध है।

पर्यावरण के प्रति ऐसी ही कर्तव्यनिष्ठा की अपेक्षा धरती हर व्यक्ति से रखती है। इसमें कोई शक नहीं कि आज बच्चे बड़ों से कहीं अधिक सचेत दिखाई देते हैं। लेकिन धरोहरों के प्रति वैसा लगाव उनमें पनप नहीं पाया है, वे इतिहास की संवेदनाओं को महसूस नहीं कर पाते, उनके लिये वे महज इमारतों से अधिक कुछ नहीं है। भारतीय बच्चे अनभिज्ञ हैं कि जलवायु परिवर्तन से बढ़ी समुद्री लवणता का नमक महाबलिपुरम, पुरी और द्वारिका के मंदिरों के प्सास्टर उखाड़ रहा है, सदियों के लोहों में जंग लग रही है। ऐतिहासिक दीवारें नमक और नमी को सोख-सोखकर झरझरा गई हैं। दरारों ने पानी के रिसावों को प्रोत्साहन दे रखा है। समुद्र के स्तर में वृद्धि, तटीय क्षरण, लवणता और रेत के कारण हवाओं की संक्षारक प्रक्रियाओं के कारण देश की ये अनमोल विरासतें संकट में आ गई हैं।

यह सच है कि भारत का पुरातत्व सर्वेक्षण इन अनमोल धरोहरों की रक्षा के लिये विभिन्न उपाय करता रहता है। इन इमारतों में लगे पत्थरों को कमजोर होने से रोकने के लिये उनके रासायनिक उपचार, समय-समय पर पेपर-पल्प पद्धति के माध्यम से दीवारों पर जम रहे लवणों को हटाना, क्षतिग्रस्त भागों का पुनर्निर्माण करना, इमारतों के नियोजन और डिजाइनिंग में मदद के लिये नई टाइपोग्राफ़िक्स का विकास करना आदि काम शामिल हैं। इसके अलावा हवा में बफर के रूप में कार्य करने के लिये कई तरह के पेड़ जैसे नारियल (कॉक्स नैसिफेरा), पोर्टिया (थीस्पेसिया पॉपुलनेया), नीम (अजाडिरेक्टा इंडिका), करंजा (पोंगामिया ग्लाब्र्रा), पाल्मीरा (बोरासस फ्लैबेलिफ़र) और ओक आदि भी लगाए जाते हैं। वाहनों की पार्किंग पर भी ध्यान दिया जाता है, जिसमें अनिवार्य रूप से मूल स्थलों से 100 मीटर दूर पार्क करना होता है। ऐसे बहुत से नियम कानून बनाए गए हैं, लेकिन ईमानदारी से पालन करने वालों की कमी के चलते पर्यावरण असंतुलन जैसी प्राकृतिक गड़बड़ियाँ अब धीरे-धीरे दिखाई भी देने लगी हैं। ये पूरी मानव सभ्यता को चीख-चीखकर सतर्क होने की गुहार लगा रही हैं, जरूरत है तो सिर्फ इस आवाज की वेदना को महसूस करने की है।

भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के सहयोग से देश के पुरातात्विक स्थलों की इन्वेंटरी और निगरानी के लिये राष्ट्रीय परियोजना चलाई है। इस परियोजना से देश भर में फैले हजारों विरासत स्थलों और राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों का संरक्षण और प्रबंधन किया जा रहा है। इसके अन्तर्गत समुद्रतटों से लेकर सभी जगहों के विरासत स्थलों और राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों के लिये इसरो मानचित्रण और प्रबंधन कर रहा है। विश्व धरोहर स्थलों, प्राचीन स्मारकों और पुरातात्विक स्थलों का संरक्षण राष्ट्रीय महत्त्व का है। भावी पुरातात्विक स्थानों के लिये स्थानिक मॉडलिंग पूर्वानुमान, मानक प्रचालन प्रक्रिया (एसओपी) प्राथमिक डेटा स्रोत के रूप में उच्च विभेदन उपग्रह डेटा और उच्चतम स्तरीय खोज भू-स्थानिक डेटाबेस जैसी अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का उपयोग करके इन विरासत स्थलों के व्यवस्थित डेटाबेस और साइट प्रबंधन से इनके संरक्षण और निगरानी में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को इनके रख-रखाव के लिये कम से कम प्रयास, समय और लागत लगाने में मदद मिली रही है। इसरो के कार्टोसैट -1, कार्टोसैट -2 और रिसोर्ससैट लिस IV के डाटा विरासत स्थलों और स्मारकों पर डेटाबेस बनाने के लिये उपयोग किए जा रहे हैं। विशेष-रूप से तीन प्रबंधन क्षेत्रों यथा संरक्षित, निषिद्ध और विनियमित क्षेत्रों में विरासत स्थल के आस-पास उपग्रह प्रतिबिंब के आधार पर साइट/स्मारक पर जीआईएस अपने उपकरण लगाकर काम कर रहा है।

प्रशासन, सम्बद्ध विभाग और सरकारें अपने-अपने स्तर पर जलवायु परिवर्तन की मार से इन धरोहरों को संरक्षित करने में लगी हुई हैं, लेकिन आम लोगों को भी इस ओर उतनी ही शिद्दत से जुड़ने की जरूरत है। पर्यटन और आर्थिक मुद्दे जितने सरकार के हैं, उतने ही जनता के भी हैं। धरोहरों का सांस्कृतिक और ऐतिहासिक सरोकार पर्यटन और आर्थिक क्षेत्रों में वृद्धि का कारण बन सके, इसके लिये उनसे सम्बद्ध मानवजनित और पर्यावरणीय पहलुओं को सम्मिलित करना भी अनिवार्य है। एकीकृत रूप से इन समस्त पहलुओं का सार्थक सदुपयोग ही जलवायु परिवर्तन और प्लास्टिक कचरे के कुप्रभाव से समुद्रतटीय भारतीय धरोहरों को बचा पाएगा।

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