जलवायु परिवर्तन के नए खतरे मैथ्यू व चाबरा


विगत दिनों दक्षिण कोरिया के जेजू द्वीप में आए शक्तिशाली चाबा तूफान ने पृथ्वी को अपने विनाशकारी बवंडर से दो दिशाओं से घेरा। इसके बाद दक्षिण कोरिया की सड़कें जलमग्न हो गईं। वहाँ विमान-रेल यातायात के साथ-साथ जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ। इस तूफान में सवा दो लाख लोगों का जीवन सीधे-सीधे प्रभावित हो रहा है तथा इसकी चपेट में आकर छह लोग मारे गए। इसके बाद यह तूफान 180 किलोमीटर प्रति घण्टे की गति से जापान की ओर बढ़ गया। इसी समयान्तराल में इस दशक का सबसे शक्तिशाली तूफान घोषित मैथ्यू कैरेबियाई द्वीप में उथल-पुथल मचाने के बाद अमेरिका की ओर अग्रसर हुआ था। विगत शुक्रवार को इस तूफान की चपेट में अमेरिका के प्लोरिडा शहर के आने की आशंका के चलते वहाँ के लगभग बीस लाख लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया गया था।

हैती, बहामास, डोमनिक रिपब्लिकन और क्यूबा में इस तूफान ने बड़ी तबाही की तथा सौ से अधिक लोग इसमें मारे गए। अकेले हैती में 842 लोग इस तूफान में काल कवलित हो गए तथा बीस हजार घर तहस-नहस हो गए। शहर की जीर्णशीर्ण दशा के कारण लगभग साठ हजार लोग अस्थाई आवास शिविरों में रह रहे हैं। एक दिन बाद ही मैथ्यू तूफान उत्तरी अमेरिका की ओर बढ़ चला। उत्तरी अमेरिकी सबसे निर्धन देश हेती में तबाही मचाने के बाद तूफान अमेरिका स्थित फ्लोरिडा के तटवर्ती क्षेत्र तक आ पहुँचा। प्लोरिडा सहित जॉर्जिया, नॉर्थ कैरोलिना और साउथ कैरोलिना में तूफान के अंदेश के चलते आपातकाल की घोषणा की गई। वहाँ 195 किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से हवाएँ चल रही थीं। इन चार अमेरिकी प्रांतों से लगभग बीस लाख लोगों को अस्थायी आवास स्थलों पर ले जाया गया।

उत्तरी अमेरिकी शहर हैती सहित अन्य शहरों के तूफान के बाद जारी तबाही-बर्बादी के चित्रों व चलचित्रों से स्पष्ट है कि प्राकृतिक आपदाओं के सामने हमारी बिसात कुछ नहीं। ऐसे तूफान के दौरान दुनिया के सुरक्षित देश या उसके लोग हालाँकि इन अतिवृष्टियों को उस भयावहता और असहायता से अनुभव नहीं कर सकते, जैसा अतिवृष्टि प्रभावित लोग करते हैं फिर भी दुनिया के प्रभावित-अप्रभावित सभी लोगों को प्रकृति तथा जलवायु के असन्तुलन के कारण उपजे इन हालातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करके इनके निदान हेतु समन्वित, व्यक्तिगत प्रयास शुरू कर देने चाहिए।

यह पूर्व प्रमाणित बात है कि प्रकृति के असन्तुलन के सामने भारत सहित दुनिया की दूसरी सभी समस्याएँ तुच्छ हैं। प्राकृतिक अतिवृष्टि में हुई जनहानि के लिये दो राष्ट्र या दो व्यक्ति समूह एक-दूसरे पर इसलिये दोषारोपण नहीं कर सकते, क्योंकि यह हानि सृष्टि के विकार से उत्पन्न होती है। वस्तुतः इसके लिये आधुनिक काल का मानवीय जीवन और इसकी मशीनी व्यवस्था ही प्रत्यक्ष रूप से दोषी है। एक ओर दुनिया के देशों में उद्योग की अभिलाषा जोर मार रही है, उत्पादन के निर्यात-आयात के आधार पर राजस्व अर्जित करके विकसित होने की प्रतिस्पर्द्धा चल रही है तो दूसरी ओर औद्योगिकी तथा विकास के परिणामस्वरूप प्रकृति का मूल स्वरूप प्रतिक्षण मिट रहा है।

आज एशिया में भारत-पाकिस्तान के मध्य पाक प्रायोजित आतंकवाद से उपजे तनाव के कारण युद्ध जैसी परिस्थितियाँ निर्मित हैं। इसी महाद्वीप के शक्तिशाली देश रूस व चीन इन परिस्थितियों के आधार पर अपनी देशज व सामरिक शक्ति बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। अमेरिका-ब्रिटेन-फ्रांस-जापान सहित दुनिया के सभी देश भी इस सन्दर्भ में अपनी सामरिक-व्यापारिक-कूटनीतिक नीतियाँ निर्धारित करने पर तुले हुए हैं।

विकास की आधुनिक अवधारणाओं के कारण आज दुनिया के खास और आम लोग प्रकृति और इसकी कार्यप्रणाली के प्रति पूरी तरह अनभिज्ञ बने हुए हैं। विशेषकर शहरवासी इतना भी नहीं समझता कि उसका दाना-पानी किन प्राकृतिक या कृत्रिम उपक्रमों से तैयार होकर उस तक पहुँचता है। वह मशीनी अभ्यास के बाद मात्र भोगोपभोग का एक भाव-विचारहीन ढाँचा बनकर रह गया है और जब तक एक-एक व्यक्ति अपने दाना-पानी के मूल स्रोत से परिचित नहीं होगा, तब तक उसे प्रकृति के सन्तुलन या असन्तुलन तथा इस कारण जीवन में होने वाली अतिवृष्टियों या जीवन के लिये पीड़ाजनक जलवायु परिवर्तन के बारे में जानकारी कैसे मिलेगी और कैसे वह प्रकृति के संरक्षण के प्रति जागरूक होकर उसके निमित्त कुछ कार्य कर पाएगा।

आज एशिया में भारत-पाकिस्तान के मध्य पाक प्रायोजित आतंकवाद से उपजे तनाव के कारण युद्ध जैसी परिस्थितियाँ निर्मित हैं। इसी महाद्वीप के शक्तिशाली देश रूस व चीन इन परिस्थितियों के आधार पर अपनी देशज व सामरिक शक्ति बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। अमेरिका-ब्रिटेन-फ्रांस-जापान सहित दुनिया के सभी देश भी इस सन्दर्भ में अपनी सामरिक-व्यापारिक-कूटनीतिक नीतियाँ निर्धारित करने पर तुले हुए हैं। लेकिन इन देशों की विकास की प्रतियोगिता में प्रथम आने की ऐसी नीतियाँ कहीं से भी विकास के प्रति अपनाए जानेवाले इनके सन्तुलित दृष्टिकोण को उचित नहीं ठहरातीं।

दुनिया की महाशक्तियाँ कहे जानेवाले अमेरिका-ब्रिटेन-फ्राँस-रूस-चीन सहित कुल 195 देशों ने पेरिस में पिछले वर्ष हुए जलवायु समझौते में हस्ताक्षर किए थे, लेकिन तब भी सभी देश न्यूनाधिक मात्रा में परमाणु अस्त्रों, आयुधों के निर्माण तथा इनके निर्माण में स्थापित होने वाले उद्योगों के कारण उत्सर्जित खतरनाक कार्बनडाइऑक्साइड गैस के वायुमण्डल में मिल जाने के खतरों से अपने लाभार्जन के लिये गुप्त समझौता भी कर रहे हैं। और अब जब दुनिया के 72 देशों ने पेरिस जलवायु समझौते का अनुमोदन भी कर लिया है तो इनकी हथियार निर्माण की होड़ अवश्य रुक जानी चाहिए। पेरिस जलवायु समझौते के अनुसार ये 72 देश विश्व के 56 प्रतिशत वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिये जिम्मेदार हैं।

पिछले वर्ष इस समझौते को 195 देशों ने स्वीकार किया था। अर्थात वे समझौते के नियमों व शर्तों को मानने के लिये तैयार हो गए हैं। यह आगामी 4 नवम्बर से क्रियान्वित होगा। इस समझौते में स्पष्ट है कि सभी देशों को आनेवाले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कार्बनिक, रासायनिक तथा अन्य यौगिक कारकों को नियन्त्रित करना होगा। इस हेतु वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने का लक्ष्य रखा गया है। पेरिस समझौते के अन्तर्गत सन 2020 तक ग्रीन हाउस गैसों और उनके स्रोत के बीच जीवानुकूल सन्तुलन करना अत्यन्त जरूरी है। साथ ही इस लक्ष्य प्राप्ति के लिये प्रत्येक तीन वर्ष में समझौते की समीक्षा भी होगी। विकासशील देशों को इस हेतु वार्षिक रूप से 100 अरब डॉलर की सहायता भी दी जाएगी। इस सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र की विज्ञान संस्था की ओर से एक आधिकारिक वक्तव्य आया कि यदि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी न हुई या की गई तो सन 2100 तक वैश्विक तापमान 3.7 से 4.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा।

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