जलवायु परिवर्तन के परिणाम | Consequences of Climate Change in Hindi

जलवायु परिवर्तन के परिणामों के बारे में जानकारी प्राप्त करें | Get information about the consequences of climate change.
23 Jan 2015
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जलवायु परिवर्तन के परिणाम
जलवायु परिवर्तन के परिणाम

कार्बन डाइआॅक्साइड सबसे प्रमुख हरितगृह गैस है जो आमतौर से जीवाश्म ईंधनों के जलने से उत्सर्जित होती है। यह गैस वातावरण में 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है तथा इसकी तापवृद्धि क्षमता 1 है। जैव ईंधनों के जलने से प्रतिवर्ष 5 करोड़ टन से भी ज्यादा कार्बन डाइआॅक्साइड का जुड़ाव वातावरण में होता है जिसमें से 90 प्रतिशत से भी ज्यादा की उत्पत्ति उत्तरी तथा मध्य अमरीका, एशिया, यूरोप तथा मध्य एशियाई गणतन्त्रों से होती है।

जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण वैश्विक उष्णता है जो हरितगृह (ग्रीनहाउस) प्रभाव का परिणाम है। हरितगृह प्रभाव वह प्रक्रिया है जिसमें पृथ्वी से टकराकर लौटने वाली सूरज की किरणों को वातावरण में उपस्थित कुछ गैसें अवशोषित कर लेती हैं। परिणामस्वरूप पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है। कार्बन डाइआॅक्साइड, मिथेन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन, नाइट्रस आॅक्साइड तथा क्षोभमण्डलीय ओजोन मुख्य गैसें हैं जो हरितगृह प्रभाव की कारक हैं।

वातावरण में इनकी निरन्तर बढ़ती मात्रा से वैश्विक जलवायु परिवर्तन का खतरा दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। पृथ्वी के सतह का औसत तापमान कोई 15 डिग्री सेल्सियस है। हरितगृह प्रभाव के न होने पर जो तापमान होता, यह उससे तकरीबन 33 डिग्री सेल्सियस अधिक है। इन गैसों के अभाव में पृथ्वी सतह का अधिकांश भाग -18 डिग्री सेल्सियस के औसत तापमान पर जमा हुआ होता। अतः इन गैसों की एक सीमा के भीतर पृथ्वी के वातावरण में उपस्थिति जीवन के लिए अनिवार्य है।

जलवायु परिवर्तन नगरीकरण, औद्योगीकरण, कोयले पर आधारित विद्युत तापगृह, तकनीकी तथा परिवहन क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन, कोयला खनन, मानव जीवन के रहन-सहन में परिवर्तन (विलासितापूर्ण जीवनशैली के कारण एयर कण्डीशनर, रेफ्रिजरेटर, परफ्यूम आदि का वृहद पैमाने पर उपयोग), आधुनिक कृषि में रासायनिक खादों का अन्धाधुन्ध प्रयोग, धान की खेती के क्षेत्रफल में वृद्धि, शाकभक्षी पशुओं की जनसंख्या में वृद्धि आदि कुछ ऐसे प्रमुख कारण हैं जो हरितगृह गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं।

कार्बन डाइआॅक्साइड सबसे प्रमुख हरितगृह गैस है जो आमतौर से जीवाश्म ईंधनों के जलने से उत्सर्जित होती है। यह गैस वातावरण में 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है तथा इसकी तापवृद्धि क्षमता 1 है। जैव ईंधनों के जलने से प्रतिवर्ष 5 करोड़ टन से भी ज्यादा कार्बन डाइआॅक्साइड का जुड़ाव वातावरण में होता है जिसमें से 90 प्रतिशत से भी ज्यादा की उत्पत्ति उत्तरी तथा मध्य अमरीका, एशिया, यूरोप तथा मध्य एशियाई गणतन्त्रों से होती है।

पूर्व-औद्योगीकरण काल की तुलना में वायु में कार्बन डाइआॅक्साइड का स्तर आज 31 प्रतिशत बढ़ गया है। चूंकि वन कार्बन डाइआॅक्साइड के प्रमुख अवशोषक होते हैं अतः वन विनाश इस गैस की वातावरण में निरन्तर वृद्धि का एक प्रमुख कारण है। वातावरण में 20 प्रतिशत कार्बन डाइआॅक्साइड जुड़ाव के लिए वन विनाश जिम्मेदार है। वनविनाश के परिणामस्वरूप 1850 से 1950 के बीच लगभग 1.20 अरब टन कार्बन डाइआॅक्साइड का वातावरण में जुड़ाव हुआ है।

वातावरण में यह गैस 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। पिछले 100 वर्षों में कार्बन डाइआॅक्साइड की वातावरण में 20 प्रतिशत बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वर्ष 1880 से 1890 के बीच कार्बन डाइआॅक्साइड की मात्रा लगभग 290 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन), वर्ष 1980 में इसकी मात्रा 315 पीपीएम, वर्ष 1990 में 340 पीपीएम तथा वर्ष 2000 में 400 पीपीएम तक बढ़ गई है।

ऐसी सम्भावना व्यक्त की जाती है कि वर्ष 2040 तक वातावरण में इस गैस की सांद्रता 450 पीपीएम तक बढ़ जाएगी। कार्बन डाइआॅक्साइड का वैश्विक उष्णता बढ़ाने में 55 प्रतिशत का योगदान है। मिथेन भी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण हरितगृह गैस है जो 1 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है। मिथेन की तापवृद्धि क्षमता 36 है। यह गैस कार्बन डाइआॅक्साइड की तुलना में 20 गुना ज्यादा प्रभावी है।

पिछले 100 वर्षों में मिथेन की वातावरण में दुगुनी वृद्धि हुई है। (7.0 × 10-7 से 15.5 × 10-7 तक) धान के खेत, दलदली भूमि तथा अन्य प्रकार की नम भूमियाँ मिथेन गैस के प्रमुख स्रोत हैं। एक अनुमान के अनुसार वातावरण में 20 प्रतिशत मिथेन की वृद्धि का कारण धान की खेती तथा 6 प्रतिशत कोयला खनन है।

इसके अतिरिक्त पशुओं तथा दीमकों में आन्तरिक किण्वन भी मिथेन के स्रोत हैं। सन् 1750 की तुलना में मिथेन की मात्रा में 150 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक मिथेन एक प्रमुख हरितगृह गैस होगी। इस गैस का वैश्विक उष्णता में 20 प्रतिशत का योगदान है। विकसित देशों की तुलना में विकासशील देश मिथेन उत्सर्जन के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।

क्लोरोफ्लोरोकार्बन रसायनों का इस्तेमाल आमतौर से प्रशीतक, उत्प्रेरक तथा ठोस प्लास्टिक झाग के रूप में होता है। इस समूह के रसायन वातावरण में काफी स्थायी होते हैं। यह दो प्रकार के होते हैं- हाइड्रो फ्लोरो कार्बन तथा पर फ्लोरोकार्बन। हाइड्रो फ्लोरोकार्बन की वातावरण में वृद्धिदर 0.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष है तथा इसकी तापवृद्धि क्षमता 14,600 है। पर फ्लोरोकार्बन की भी वार्षिक वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत है प्रतिवर्ष जबकि इसकी तापवृद्धि क्षमता 17,000 है। हाइड्रो फ्लोरोकार्बन का वैश्विक तापवृद्धि में 6 प्रतिशत का योगदान है जबकि पर फ्लोरोकार्बन का वैश्विक तापवृद्धि में 12 प्रतिशत का योगदान है।

क्लोरोफ्लोरो कार्बनों की वातावरण में 25 प्रतिशत वृद्धि औद्योगिकीकरण के कारण हुई है। अतः विकासशील देशों की तुलना में विकसित देश क्लोरोफ्लोरो कार्बनों के उत्सर्जन के लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं। नाइट्रस आॅक्साइड गैस 0.3 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है तथा इसकी तापवृद्धि क्षमता 140 है। जैव ईंधन, जीवाशम ईंधन तथा रासायनिक खादों का कृषि में अत्यधिक उपयोग इसके उत्सर्जन के प्रमुख कारक हैं।

मृदा में रासायनिक खादों पर सूक्ष्मजीवों की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप नाइट्रस आॅक्साइड का निर्माण होता है तत्पश्चात इस गैस का वातावरण में उत्सर्जन होता है। वातावरण में इस गैस की वृद्धि के लिए रासायनिक खाद 70 से 80 प्रतिशत तथा जीवाश्म ईंधन 20 से 30 प्रतिशत तक जिम्मेदार हैं। इस गैस का वैश्विक तापवृद्धि में 5 प्रतिशत का योगदान है।

नाइट्रस आॅक्साइड सम तापमण्डलीय ओजोन पट्टी के क्षरण के लिए भी जिम्मेदार है। ओजोन क्षरण से भी वैश्विक उष्णता में वृद्धि होगी। क्षोभमण्डलीय ओजोन भी एक महत्वपूर्ण हरितगृह गैस है जो 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है। इस गैस की तापवृद्धि क्षमता 430 है। ओजोन का निर्माण आमतौर से सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में नाइट्रोजन डाइआॅक्साइड तथा हाइड्रोकार्बंस की प्रतिक्रिया स्वरूप होता है।

ओजोन गैस का वैश्विक तापवृद्धि में 2 प्रतिशत का योगदान है। उपर्युक्त के अतिरिक्त 1997 के क्योटो प्रोटोकाॅल में सल्फर हेक्सा फ्लोराइड को भी एक प्रमुख हरितगृह गैस के रूप में पहचाना गया है।

ट्राईफ्लोरोमिथाइल सल्फर पेंटाफ्लोराइड भी एक गौण हरितगृह गैस है जिसका उत्सर्जन रक्षा उद्योगों से होता है। इस गैस की उष्मा अवशोषण की क्षमता कार्बन डाइआॅक्साइड की तुलना में 18,000 गुना ज्यादा होती है। जहाँ तक हरितगृह गैसों के उत्सर्जन का सवाल है संयुक्त राज्य अमरीका प्रतिवर्ष 20 टन से भी अधिक प्रतिव्यक्ति हरिगृह गैसों का उत्सर्जन करता है। वहीं रूस 11.71 टन, जापान 9.87, यूरोपीय संघ 9.4, चीन 3.6 तथा भारत 1.2 टन प्रतिव्यक्ति हरितगृह गैसों का उत्सर्जन करते हैं।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के सम्भावित परिणाम हाल के दशकों में हरितगृह प्रभाव के चलते अनेक क्षेत्रों में औसत तापमान में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी के अनुसार वर्ष 2020 तक पूरी दुनिया का तापमान पिछले 1,000 वर्षों की तुलना में सर्वाधिक होगा। अन्तर-शासकीय जलवायु परिवर्तन पैनल (आईपीसीसी) ने वर्ष 1995 में भविष्यवाणी की थी कि अगर मौजूदा प्रवृत्ति जारी रही तो 21वीं सदी में तापमान में 3.5 से 10 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि होगी।
 

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को देखते हुए समय की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि हरितगृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी गैसों के उत्सर्जन पर रोक लगाई जाए जिससे वैश्विक तापवृद्धि पर प्रभावी नियन्त्रण हो सके और विश्व को जलवायु परिवर्तन के सम्भावित ख़तरों से बचाया जा सके। जहाँ तक भारत का सवाल है, मध्य तथा उत्तरी भारत में कम वर्षा होगी जबकि इसके विपरीत देश के पूर्वोत्तर तथा दक्षिण-पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा होगी। परिणामस्वरूप वर्षा जल की कमी से मध्य तथा उत्तरी भारत में सूखे जैसी स्थिति होगी जबकि पूर्वोत्तर तथा दक्षिण पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा के कारण बाढ़ जैसी समस्या होगी।

बीसवीं सदी में विश्व की सतह का औसत तापमान 0.6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है। वैश्विक स्तर पर वर्ष 1998 सबसे गर्म वर्ष था और वर्ष 1990 का दशक अभी तक का सबसे गर्म दशक था जो यह साबित करता है कि हरितगृह प्रभाव के परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन का दौर आरम्भ हो चुका है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के अनेक परिणाम होंगे जिनमें से ज्यादातर हानिकारक होंगे।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप दुनिया के मानसूनी क्षेत्रों में वर्षा में वृद्धि होगी जिससे बाढ़, भूस्खलन तथा भूमि अपरदन जैसी समस्याएँ पैदा होंगी। जल की गुणवत्ता में गिरावट आएगी। ताजे जल की आपूर्ति पर गम्भीर प्रभाव पड़ेंगे।

जहाँ तक भारत का सवाल है, मध्य तथा उत्तरी भारत में कम वर्षा होगी जबकि इसके विपरीत देश के पूर्वोत्तर तथा दक्षिण-पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा होगी। परिणामस्वरूप वर्षा जल की कमी से मध्य तथा उत्तरी भारत में सूखे जैसी स्थिति होगी जबकि पूर्वोत्तर तथा दक्षिण पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा के कारण बाढ़ जैसी समस्या होगी। दोनों ही स्थितियों में कृषि उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

सूखा और बाढ़ के दौरान पीने और कपड़े धोने के लिए स्वच्छ जल की उपलब्धता कम होगी। जल प्रदूषित होगा तथा जल निकास की व्यवस्थाओं को हानि पहुँचेगी। वैश्विक जलवायु परिवर्तन जलस्रोतों के वितरण को भी प्रभावित करेगा। उच्च अक्षांश वाले देशों तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के जल स्रोतों में जल की अधिकता होगी जबकि मध्य एशिया में जल की कमी होगी। निम्न अक्षांश वाले देशों में जल की कमी होगी।

जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप ध्रुवीय बर्फ के पिघलने के कारण विश्व का औसत समुद्री जलस्तर इक्कीसवीं शताब्दी के अन्त तक 9 से 88 सेमी तक बढ़ने की सम्भावना है जिससे दुनिया की आधी से अधिक आबादी, जो समुद्र से 60 किमी की दूरी तक रहती है, पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। बांग्लादेश का गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा, मिस्र का नील डेल्टा तथा मार्शल द्वीप और मालदीव सहित अनेक छोटे द्वीपों का अस्तित्व वर्ष 2100 तक समाप्त हो जाएगा।

इसी खतरे की ओर सम्पूर्ण विश्व का ध्यान आकर्षित करने के लिए अक्तूबर 2009 में मालदीव सरकार की वैफबिनेट ने समुद्र के भीतर बैठकर एक अनूठा प्रयोग किया था। इस बैठक में दिसम्बर 2009 के कोपेनहेगन सम्मेलन के लिए एक घोषणापत्र भी तैयार किया गया था। प्रशान्त महासागर का सोलोमन द्वीप जलस्तर में वृद्धि के कारण डूबने के कगार पर है।

जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप भारत के उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात तथा पश्चिम बंगाल राज्यों के तटीय क्षेत्र जलमग्नता के शिकार होंगे। परिणामस्वरूप आसपास के गाँवों व शहरों में 10 करोड़ से भी अधिक लोग विस्थापित होंगे जबकि समुद्र में जलस्तर की वृद्धि के परिणामस्वरूप भारत के लक्षद्वीप तथा अण्डमान निकोबार द्वीपों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

समुद्र का जलस्तर बढ़ने से मीठे जल के स्रोत दूषित होंगे परिणामस्वरूप पीने के पानी की समस्या होगी। वैश्विक जलवायु परिवर्तन का प्रभाव समुद्र में पाए जाने वाली जैव-विविधता सम्पन्न प्रवाल भित्तियों पर पड़ेगा जिन्हें महासागरों का उष्ण कटिबन्धीय वर्षावन कहा जाता है। समुद्री जल में उष्णता के परिणामस्वरूप शैवालों (सूक्ष्मजीवी वनस्पतियों) पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जोकि प्रवाल भित्तियों को भोजन तथा वर्ण प्रदान करते हैं। उष्ण महासागर विरंजन प्रक्रिया के कारक होंगे जो इन उच्च उत्पादकता वाले परितन्त्रों को नष्ट कर देंगे। प्रशान्त महासागर में वर्ष 1997 में अलनीनो के कारण बढ़ने वाली ताप की तीव्रता प्रवालों की मृत्यु का सबसे गम्भीर कारण बनी है।

एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी की लगभग 10 प्रतिशत प्रवाल भित्तियों की मृत्यु हो चुकी है, 30 प्रतिशत गम्भीर रूप से प्रभावित हुई हैं तथा 30 प्रतिशत का क्षरण हुआ है। ग्लोबल कोरल रीफ माॅनीटरिंग नेटवर्क (आॅस्ट्रेलिया) का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक सभी प्रवाल भित्तियों की मृत्यु हो जाएगी।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कृषि पैदावार पर पड़ेगा। संयुक्त राज्य अमरीका में फलों की उत्पादकता में कमी आएगी जबकि दूसरी तरफ उत्तरी तथा पूर्वी अफ्रीका, मध्य पूर्व देशों, भारत, पश्चिमी आॅस्ट्रेलिया तथा मैक्सिको में गर्मी तथा नमी के कारण फलों की उत्पादकता में बढ़ोतरी होगी। वर्षा जल की उपलब्धता के आधार पर धान के क्षेत्रफल में इजाफा होगा।

भारत में जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप गन्ना, मक्का, ज्वार, बाजरा तथा रागी जैसी फलों की उत्पादन दर में वृद्धि होगी जबकि इसके विपरीत मुख्य फलों जैसे गेहूँ, धान तथा जौ की उपज में गिरावट दर्ज होगी। सब्जियों के राजा आलू के उत्पादन में भी अभूतपूर्व गिरावट दर्ज होगी।

तापमान में वृद्धि के फलस्वरूप दलहनी फलों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण की दर में वृद्धि के कारण अरहर, चना, मटर, मूँग, उड़द, मसूर आदि की उपज में वृद्धि होगी। तिलहनी फलों जैसे पीली सरसों, भूरी सरसों (राई), सूरजमुखी, तिल, काला तिल, अलसी, बर्रा (कुसुम) की पैदावार में गिरावट होगी जबकि सोयाबीन तथा मूँगफली की पैदावार में वृद्धि होगी।

एक अनुमान के अनुसार अगर वर्तमान वैश्विक तापवृद्धि की दर जारी रही तो भारत में वर्षा सिंचित क्षेत्रों में 12,5 करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन में कमी आएगी। शीत ऋतु में 0.50 सेल्सियस तापमान वृद्धि के कारण पंजाब राज्य में गेहूँ की फल की पैदावार में 10 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है।

भारत जैसे उष्ण कटिबन्धीय देश में जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप आम, केला, पपीता, चीकू, अनानास, शरीफा, अनार, बेल, खजूर, जामुन, अंजीर, बेर, तरबूज तथा खरबूजा जैसे फलों के उत्पादन में बढ़ोतरी होगी जबकि सेब, आलू बुखारा, अंगूर, नाशपाती जैसे फलों के पैदावार में गिरावट आएगी।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव फल पद्धति पर भी पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्तर तथा मध्य भारत में ज्वार, बाजरा, मक्का तथा दलहनी फलों के क्षेत्रफल में विस्तार होगा। उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में गेहूँ तथा धान के क्षेत्रफल में अभूतपूर्व गिरावट आएगी जबकि देश के पूर्वी, दक्षिणी तथा पश्चिमी राज्यों में धान के क्षेत्रफल में बढ़ोतरी होगी।

वातावरण में ज्यादा ऊर्जा के जुड़ाव से वैश्विक वायु पद्धति में भी परिवर्तन होगा। वायु पद्धति में परिवर्तन के परिणामस्वरूप वर्षा का वितरण असमान होगा। भविष्य में मरुस्थलों में ज्यादा वर्षा होगी जबकि इसके विपरीत पारम्परिक कृषि वाले क्षेत्रों में कम वर्षा होगी। इस तरह के परिवर्तनों से विशाल मानव प्रव्रजन को बढ़ावा मिलेगा जोकि मानव समाज के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक ताने-बाने को प्रभावित करेगा।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप बाढ़, सूखा तथा आँधी-तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं की बारम्बारता में वृद्धि के कारण अनाज उत्पादन में गिरावट दर्ज होगी। स्थानीय खाद्यान्न उत्पादन में कमी भूखमरी और कुपोषण का कारण बनेगी जिससे स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेंगे। खाद्यान्न और जल की कमी से प्रभावित क्षेत्रों में टकराव पैदा होंगे।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव जैव-विविधता पर भी पड़ेगा। किसी भी प्रजाति को अनुकूलन हेतु समय की आवश्यकता होती है। वातावरण में अचानक परिवर्तन से अनुकूलन के अभाव में उसकी मृत्यु हो जाएगी। जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव समुद्र के तटीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली दलदली क्षेत्र की वनस्पतियों पर पड़ेगा जो तट को स्थिरता प्रदान करने के साथ-साथ समुद्री जीवों के प्रजनन का आदर्श स्थल भी होती हैं। दलदली वन जिन्हें ज्वारीय वन भी कहा जाता है, तटीय क्षेत्रों को समुद्री तूफानों से रक्षा करने का भी कार्य करते हैं।

जैव-विविधता क्षरण के परिणामस्वरूप पारिस्थितिक असन्तुलन का खतरा बढ़ेगा। जलवायु में उष्णता के कारण उष्ण कटिबन्धीय वनों में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि होगी परिणामस्वरूप वनों के विनाश के कारण जैव-विविधता का ह्रास होगा।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर भी पड़ेगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार जलवायु में उष्णता के कारण श्वास तथा हृदय सम्बन्धी बीमारियों में वृद्धि होगी। दुनिया के विकासशील देशों में दस्त, पेचिश, हैजा, क्षयरोग, पीत ज्वर तथा मियादी बुखार जैसी संक्रामक बीमारियों की बारम्बारता में वृद्धि होगी।
 

जलवायु परिवर्तन एक गम्भीर वैश्विक समस्या है जिसके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण विश्व में बड़े पैमाने पर उथल-पुथल होगी। जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया से द्वीपों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन का मानव स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। प्राकृतिक आपदाओं जैसे- सूखा, बाढ़, समुद्री तूफान, अलनीनो की बारम्बारता में बढ़ोतरी होगी।जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप फलों की उत्पादकता में वृद्धि हेतु कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों तथा रासायनिक खादों पर निर्भरता बढ़ेगी जिससे न सिर्फ पर्यावरण प्रदूषित होगा अपितु भारत जैसे विकासशील देश में किसानों की आर्थिक दशा में गिरावट होगी।

चूँकि बीमारी फैलाने वाले रोगवाहकों के गुणन एवं विस्तार में तापमान तथा वर्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है अतः दक्षिण अमरीका, अफ्रीका तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों जैसे- मलेरिया (शीत ज्वर), डेंगू, पीला बुखार तथा जापानी बुखार (मेनिन्जाइटिस) के प्रकोप में बढ़ोतरी के कारण इन बीमारियों से होने वाली मृत्युदर में इजाफा होगा। इसके अतिरिक्त फाइलेरिया (फीलपांव) तथा चिकनगुनिया का भी प्रकोप बढ़ेगा। मच्छरजनित बीमारियों का विस्तार उत्तरी अमरीका तथा यूरोप के ठण्डे देशों में भी होगा।

मानव स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते एक बड़ी आबादी विस्थापित होगी जो ‘पर्यावरणीय शरणार्थी’ कहलाएगी। स्वास्थ्य सम्बन्धी और भी समस्याएँ पैदा होंगी। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप न सिर्फ रोगाणुओं में बढ़ोतरी होगी अपितु इनकी नई प्रजातियों की भी उत्पत्ति होगी जिसके परिणामस्वरूप फलों की उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

फलों की नाशिजीवों तथा रोगाणुओं से सुरक्षा हेतु नाशीजीवनाशकों के उपयोग की दर में बढ़ोतरी होगी जिससे वातावरण प्रदूषित होगा साथ ही मानव स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। नाशिजीवों तथा रोगाणुओं की जनसंख्या में वृद्धि तथा इनकी नई प्रजातियों की उत्पत्ति का प्रभाव दुधारू पशुओं पर भी पड़ेगा जिससे दुग्ध उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

भारत जैसे उष्ण कटिबन्धीय देश में जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप पुष्पीय पौधों के पोयेसी, साइप्रेसी, फैबेसी, यूर्फोबियेसी, अमरेंथेसी तथा एस्केलपिडेसी कुलों से सम्बद्ध खरपतवारों की जनसंख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होगी परिणामस्वरूप इन खरपतवारों का प्रकोप बढ़ेगा जिससे फलों की उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

कृषि उत्पादकता में बढ़ोतरी हेतु रासायनिक खरपतवारनाशकों पर निर्भरता में वृद्धि होगी। तापवृद्धि के कारण वाष्पीकरण तथा वाष्पोत्सर्जन की दर में अभूतपूर्व वृद्धि होगी परिणामस्वरूप मृदा जल के साथ ही जलाशयों में जल की कमी होगी जिससे फलों को पर्याप्त जल उपलब्ध न होने के कारण उनकी पैदावार प्रभावित होगी।

भारत जैसे उष्ण कटिबन्धीय देश में जलाशयों में जल की कमी के कारण सिंघाड़े तथा मख़ाने की खेती पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसके अतिरिक्त मत्स्यपालन तथा उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव जलीय जन्तुओं पर भी पड़ेगा। मीठे जल की मछलियों का प्रव्रजन ध्रुवीय क्षेत्रों की ओर होगा जबकि शीतल जल मछलियों का आवास नष्ट हो जाएगा। परिणामस्वरूप बहुत-सी मछलियों की प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएँगी।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री तूफानों की बारम्बारता में वृद्धि होगी जिसके परिणामस्वरूप तटीय क्षेत्रों में शान-माल की क्षति होगी। इसके अतिरिक्त अल नीनो की बारम्बारता में भी बढ़ोतरी होगी जिससे एशिया, अफ्रीका तथा आॅस्ट्रेलिया महाद्वीपों में सूखे की स्थिति उत्पन्न होगी जबकि वही दूसरी तरफ उत्तरी अमरीका में बाढ़ जैसी आपदा का प्रकोप होगा। दोनों ही स्थितियों में कृषि उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हिमनदों (ग्लेशियर) पर भी पड़ेगा। उष्णता के कारण हिमनद पिघल कर खत्म हो जाएँगे। एक शोध के अनुसार भारत के हिमालय क्षेत्र में वर्ष 1962 से 2000 के बीच हिमनद 16 प्रतिशत तक घटे हैं। पश्चिमी हिमालय में हिमनदों के पिघलने की प्रक्रिया में तेजी आई है। बहुत-से छोटे हिमनद पहले ही विलुप्त हो चुके हैं।

कश्मीर में कोल्हाई हिमनद 20 मीटर तक पिघल चुका है। गंगोत्राी हिमनद 23 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पिघल रहा है। अगर पिघलने की वर्तमान दर कायम रही तो जल्दी ही हिमालय से सभी हिमनद समाप्त हो जाएँगे जिससे गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सतलज, रावी, झेलम, चिनाब, व्यास आदि नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इन नदियों पर स्थित जलविद्युत ऊर्जा इकाइयाँ बन्द हो जाएँगी। परिणामस्वरूप विद्युत उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

इसके अतिरिक्त सिंचाई हेतु जल की कमी के कारण कृषि उत्पादकता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। उपर्युक्त नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जाने से भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान, अफगानिस्तान तथा बांग्लादेश भी प्रभावित होंगे।

वैश्विक जलवायु उष्णता के परिणामस्वरूप जीवांश पदार्थों के तेशी से विघटन के कारण पोषक चक्र की दर में बढ़ोतरी होगी जिसके कारण मृदा की उपजाऊ क्षमता अव्यवस्थित हो जाएगी जो कृषि पैदावार को प्रभावित करेगी। वातावरण में कार्बन डाइआॅक्साइड की वृद्धि के कारण पौधों में कार्बन स्थिरीकरण में बढ़ोतरी होगी। परिणामस्वरूप मृदा से पोषक तत्वों के अवशोषण की दर कई गुना बढ़ जाएगी जिसके कारण मृदा की उर्वरा शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

मृदा की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए रासायनिक खादों के उपयोग की दर में वृद्धि होगी। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव वनस्पतियों तथा जन्तुओं पर भी पड़ेगा। स्थानीय महासागर उष्णता 3 डिग्री सेल्सियस बढ़ने के कारण प्रशान्त महासागर में सोलोमन मछली की आबादी में अभूतपूर्व गिरावट दर्ज की गई है। बढ़ती उष्णता के कारण वसन्त ऋतु में जल्दी बर्फ पिघलने के कारण हडसन की खाड़ी में ध्रुवीय भालुओं की जनसंख्या में गिरावट आई है।

जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक दुष्प्रभाव सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों पर पड़ेगा। आर्थिक क्षेत्र का भौतिक मूल ढाँचा जलवायु परिवर्तन द्वारा सर्वाधिक प्रभावित होगा। बाढ़, सूखा, भूस्खलन तथा समुद्री जलस्तर में वृद्धि के परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर मानव प्रव्रजन होगा जिससे सुरक्षित स्थानों पर भीड़भाड़ की स्थिति पैदा होगी। उष्णता से प्रभावित क्षेत्रों में प्रशीतन हेतु ज्यादा ऊर्जा की आवश्यकता होगी।
 

निष्कर्ष


जलवायु परिवर्तन एक गम्भीर वैश्विक समस्या है जिसके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण विश्व में बड़े पैमाने पर उथल-पुथल होगी। जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया से द्वीपों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन का मानव स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। प्राकृतिक आपदाओं जैसे- सूखा, बाढ़, समुद्री तूफान, अलनीनो की बारम्बारता में बढ़ोतरी होगी।

जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप फलों की उत्पादकता में वृद्धि हेतु कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों तथा रासायनिक खादों पर निर्भरता बढ़ेगी जिससे न सिर्फ पर्यावरण प्रदूषित होगा अपितु भारत जैसे विकासशील देश में किसानों की आर्थिक दशा में गिरावट होगी।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को देखते हुए समय की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि हरितगृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी गैसों के उत्सर्जन पर रोक लगाई जाए जिससे वैश्विक तापवृद्धि पर प्रभावी नियन्त्रण हो सके और विश्व को जलवायु परिवर्तन के सम्भावित ख़तरों से बचाया जा सके।

लेखक पारिस्थितिकविद हैं और वनस्पति विज्ञान विभाग, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से सम्बद्ध हैं।

ई-मेल: arvindsingh_bhu@yahoo.com
 

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