जलवायु परिवर्तनः एक गंभीर समस्या

सूर्य से तीसरा ग्रह पृथ्वी, हमारे सौर मंडल का एकमात्र ऐसा ग्रह है जहाँ जीवन अपने पूर्ण रूप में फल-फूल रहा है। वनस्पति, सूक्ष्मजीव, जीव-जन्तु यानी जीवन के विभिन्न रूप एक नाजुक संतुलन पर टिके हैं। एक ऐसा संतुलन जिसमें सभी जीव-जन्तु मिलकर अपने अस्तित्व को बचाए रखते हैं या फिर यूँ कहे कि एक दूसरे के अस्तित्व का सहारा हैं। लेकिन आज जब दुनिया विकास की अंधी दौड़ लगा रही है ऐसे में अनेक नाजुक संतुलन गड़बड़ा रहे हैं। जिसके कारण अनेक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। ऐसी ही एक समस्या जलवायु परिवर्तन से अवगत कराने वाली पुस्तक है ‘‘जलवायु परिवर्तनः एक गंभीर समस्या’’। जिसे लिखा है नवनीत कुमार गुप्ता ने। वैसे तो ग्लोबल वार्मिंग पर उनकी एक किताब पहले भी आ चुकी है लेकिन इस पुस्तक में उन्होंने जलवायु परिवर्तन पर विस्तार से अपने विचार व्यक्त किए हैं।

इस नवीन किताब में चौदह अध्यायों के माध्यम से लेखक ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। वैसे यह बिल्कुल उचित समय है कि समय रहते हम इस विकट समस्या यानी जलवायु परिवर्तन से छुटकारा पाने का हर संभव उपाय ढूंढने का प्रयत्न करें और भविष्य में जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कारकों को अप्रभावी बनाने के लिए प्रयास में रहें। इन्हीं बातों पर जोर देते हुए लेखक ने जनमानस में पर्यावरण की प्रेम की भावना जाग्रत करने की भावना की बात प्रत्येक अध्याय में लिखी है।

पुस्तक के पहले अध्याय प्रस्तावना में लेखक ने जलवायु परिवर्तन की समस्या की गंभीरता पर प्रकाश डालते हुए इसके लिए मानव को दोषी ठहराया है। लेखक लिखते हैं कि आज मानव अधिकाधिक भौतिक सुविधाएं जुटाकर आरामदायक और वैभवशाली जिन्दगी बिताने की इच्छा रखता है। और इस राह में चलते हुए विकास और प्रगति की दौड़ में हर कोई आगे निकलना चाहता है जिससे प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करना आम बात हो गई है। आज शुद्ध जल, शुद्ध मिट्टी और शुद्ध वायु हमारे लिए अपरिचित हो गए हैं। आज विकास की राह सिर्फ इंसान के लिए राह बनाई जा रही है, इसमें प्रकृति कहीं नही है। आज पृथ्वी के जीवनदायी स्वरूप को बनाए रखने की सर्वाधिक जिम्मेदारी मानव के कंधों पर ही है। ऐसे में मानव को ऐसे व्यक्ति या उसके विचारों का अनुसरण करने की आवश्यकता है, जिसनें प्रकृति को करीब से जाना-समझा हो और सदैव प्रकृति का सम्मान किया हो।

लेखक ने इस पुस्तक के माध्यम से जलवायु परिवर्तन एवं इससे संबंधित विभिन्न समस्याओं जैसे प्रदूषित होता पर्यावरण, जीवों व वनस्पतियों की प्रजातियों का विलुप्त होना, उपजाऊ भूमि में होती कमी, खाद्यान्न संकट, तटवर्ती क्षेत्रों का क्षरण, ऊर्जा स्रोतों का कम होना और नयी-नयी बीमारियों का फैलना आदि संकटों से पृथ्वी ग्रह को बचाने के लिए पर्यावरण के प्रति भावनात्मक रूप से लगाव संबंधी विचारों की उपयोगिता को बताया है।

जीवनदायी पृथ्वी ग्रह नामक दूसरे अध्याय में लेखक ने पृथ्वी ग्रह को अद्वितिय ग्रह बताते हुए लिखे हैं कि ”अंतरिक्ष से पृथ्वी ग्रह बेहद सुंदर दिखाई देता है। यह अनोखा ग्रह सौर मंडल का तीसरा ग्रह है जो आज से लगभग साढ़े चार अरब वर्ष पहले अस्तित्व में आया। पृथ्वी के जन्म के लाखों-करोड़ों वर्षों के बाद से विभिन्न जटिल प्रक्रियाओं व नाजुक संयोगों के परिणामस्वरूप इस ग्रह पर विभिन्न रूपों में जीवन का विकास हुआ। पृथ्वी ग्रह की अनोखी संरचना, सूर्य से दूरी एवं अन्य भौतिक कारणों के कारण यहां जीवन पनप पाया है।“ पर्यावरण की बात करते हुए लेखक लिखते हैं कि पर्यावरण में हमारे आस-पास की सभी घटनाओं जैसे मौसम, जलवायु आदि शामिल होती है, जिन पर हमारा जीवन निर्भर करता है।

लेखक मानव की प्रकृति के अंधाधुंध दोहन की प्रवृत्ति से चिंतित होकर लिखते हैं कि ज्यों-ज्यों मानव ने सभ्यता की सीढ़िया चढ़ी हैं, त्यों-त्यों उसकी आवश्यकताएं बढ़ीं हैं। अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की खातिर मानव ने जरूरत से ज्यादा प्राकृतिक संपदा का दोहन करके इस ग्रह के नाजुक संतुलन को ही गड़बड़ा दिया है। लेकिन यह बात सोचने की है कि बेलगाम दोहन के बावजूद आदमी पहले से ज्यादा सुखी नहीं हुआ है, ज्यादा दुखी हो गया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भोग की बढ़ती प्रवृत्ति ही प्रकृति का दोहन करवाती है इसलिए हमें इससे बचना चाहिए। जल, जमीन और भोजन जैसी अनिवार्य सुविधाओं के लिए हमें प्रकृति का दोहन नहीं बल्कि उसका उपयोग करना चाहिए, तभी यह धरती युगों-युगों तक हमारी आवश्यकताओं को पूरा करती हुई जीवन के विविध रूपों के साथ मुस्कुराती रहेगी।

लेखक ने जल, वायु, मिट्टी एवं जंगल की महत्ता को पुस्तक के तीसरे अध्याय में रेखांकित करते हुए लिखे हैं कि ये कारक प्रकृति के उपहार हैं जो पृथ्वी पर जीवन को पनाह दिए हुए हैं। इन विभिन्न प्राकृतिक कारकों के आपसी समन्वय के परिणामस्वरूप पृथ्वी पर जीवन कायम है। अनेक संतुलनों के कारण ही यह पृथ्वी जीवनदायी ग्रह बना हुआ है और इस ग्रह के इस रूप को बरकरार रखने के लिए हम सभी का यह कर्तव्य है कि हम यहां उपस्थित विभिन्न प्राकृतिक संतुलनों का सम्मान करते हुए उनसे किसी प्रकार की छेड़-छाड़ न करें अन्यथा पृथ्वी पर जीवन खतरे में पड़ सकता है।

लेखक ने पर्यावरण के प्रदूषित होने पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए प्रदूषित होता पर्यावरण नामक चौथे अध्याय में लिखे हैं कि ”लाखों-कराड़ों वर्षों के दौरान धरती पर जीवन को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाने वाला पर्यावरण अब मानवीय गतिविधियों द्वारा प्रदूषित होने लगा है। उद्योगों व वाहनों से निकली जहरीली गैसों द्वारा वायुमंडल में गैसों के प्राकृतिक अनुपात में बदलाव किया जा रहा है। आज लगभग सभी नदियों का जल प्रदूषित हो चुका है। फैक्टरियों, संयंत्रों आदि से निकले दूषित जल एवं रसायनों से नदियां जीवनदायनी का रूप खो चुकी हैं। नदियों में भारी धातुओं जैसे आर्सेनिक, पारा, कैडमियम आदि की मात्रा तेजी से बढ़ रही है, जिसके कारण विभिन्न रोग फैल रहे हैं। आज हवा और पानी के साथ-साथ मिट्टी की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है। हम जानते हैं कि मिट्टी लाखों-करोड़ों वर्षों के भौतिक, रासायनिक और जैविक प्रभावों का प्रतिफल है। मिट्टी में अनगिनत सूक्ष्मजीव शरण पाते हैं। लेकिन मृदा प्रदूषण आज गंभीर समस्या बनता जा रहा है। इसके अलावा पॉलीथीन का बढ़ता उपयोग आज पर्यावरण के लिए गंभीर चुनौती है।

बढ़ती जनसंख्या, बढ़ती जरूरतें और इन सबसे अधिक बढ़ता लालच प्रदूषण रूपी समस्या का मुख्य कारण है। बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकता या मांग भी बढ़ गई है। हमारी बढ़ती मांग का अर्थ, कृषि कार्य का बढ़ना है जिससे ऊर्वरकों, कीटनाशियों, पीकड़नाशियों आदि रासायनिक पदार्थों के साथ ही जल एवं ऊर्जा की खपत बढ़ती जा रही है।

लेखक लिखते हैं कि पर्यावरण को प्रदूषित करने वाली मानवीय गतिविधियों पर नियंत्रण कर हम प्रदूषण में काफी हद तक कमी ला सकते हैं। इसके लिए हमें आधुनिक प्रौद्योगिकियों के साथ पर्यावरण मित्र यानी इको-फैंडली जीवन शैली को अपनाना होगा, तभी प्रदूषण रूपी दानव पर काबू पाया जा सकेगा। पर्यावरण की शुद्धता को बनाए रखने के लिए हमें गांधीजी की बातों का स्मरण करना चाहिए। गांधीजी कहा करते थे कि ”प्रकृति के साथ मेल बिठाने के लिए जितने प्रयोग और त्याग किए जाएं, कम है। सबकी भलाई में ही व्यक्ति की भलाई निहित होती है।“ सीमित संसाधनों के साथ जीवन बीताने और पर्यावरण संरक्षण के द्वारा ही भावी विनाश से बचा जा सकता है।

लेखक ने पुस्तक के अगले तीन अध्यायों में हरतिगृह प्रभाव, वैश्विक तापन और बदलती जलवायु की चर्चा की है। लेखक लिखते हैं कि वायुमंडल में धरती को गर्माने वाली गैसों यानी ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती मात्रा के कारण ग्लोबल वार्मिंग की विकट समस्या उत्पन्न हुई है।“ ग्रीन हाउस गैसें वायुमंडल में ऐसा आवरण तैयार कर देती हैं जो सूर्य से आने वाली गर्मी को वापस नहीं जाने देती। पिछले लगभग सौ वर्षों में मानवीय क्रियाकलापों के कारण वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड, जलवाष्प, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और ओजोन आदि ग्रीन हाउस गैसों व क्लोरोलोरोकार्बन जैसे हैलो कार्बन पदार्थों की बढ़ती मात्रा से ग्रीन हाउस प्रभाव में वृद्धि बहुत अधिक वृद्धि हुई है। वैसे तो ग्लोबल वार्मिंग प्राकृतिक एवं मानवजनित दोनों तरह के अनेक कारणों से हो सकती है। लेकिन आमतौर पर ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का मतलब उस गर्मी से होता है जो मानव गतिविधियों के कारण उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों के कारण पैदा होती है। ग्रीन हाउस गैसों को उत्सर्जित करने वाली मानवीय गतिविधियों में औद्योगिकीकरण, परिवहन प्रणाली और खेती से संबंधित कार्य प्रमुख हैं।

पुस्तक के अगले अध्याय ‘‘जलवायु परिवर्तन के संभावित परिणाम“ में इस समस्या के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर विचार किया गया है। इस अध्याय में लिखा गया है कि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न समस्याओं ने धरती के विविध रंगों को बेरंग कर दिया है। जलवायु में होने वाले बदलावों से जीवन का ताना-बाना पूरी तरह नष्ट होने को है। वैश्विक तापमान बढ़ने से कहीं ग्लेशियर पिघलने लगे हैं तो कहीं नदियां सूखने लगीं हैं जिसके कारण कहीं धरती की प्यास बढ़ रही है तो कहीं फसलें तबाह होने लगीं हैं। पिछले लगभग सौ सालों में धरती के औसत तापमान में करीब 0.74 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। बढ़ते तापमान के कारण भारत समेत दुनिया भर के ऊंचे पहाड़ों पर मौजूद हिमनद तेजी से पिघलेंगें। यदि यही हाल रहा तो वर्ष 2030 तक शायद इस क्षेत्र के हिमनद खत्म हो जाएंगे जिसके परिणामस्वरूप भारत में हिमालय क्षेत्र से निकलने वाली नदियां सूख जाएंगी। इसके अलावा कार्बन डाइआऑक्साइड की बढ़ती मात्रा के कारण महासागरीय पारिस्थितिक तंत्र भी प्रभावित हुए हैं। आज महासागरीय जल में अम्लता की मात्रा बढ़ती जा रही है। फैलते रेगिस्तान प्रति वर्ष 4 करोड़ एकड़ भूमि रेगिस्तान में बदल रही है।

”पर्यावरणीय समस्याएं “ नामक अध्याय में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली संभावित आपदाओं के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है। तापमान में वृद्धि होने से चक्रवात, तूफान और टॉयफून जैसी आपदाएं अधिक आएंगी। इसके अलावा ओजोन पर्त का छेद भी चिंता का विषय है। औद्योगिक गतिविधियों से उत्सर्जित विभिन्न हानिकारक रसायनों जैसे सीएफसी, हैलोंस, कार्बन टेट्राक्लोराइड आदि के कारण विश्व के रक्षा कवच यानी ओजोन परत में छेद बढ़ता जा रहा है।

“जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य” अध्याय में लेखक ने जलवायु परिवर्तन से संबंधित विभिन्न रोगों के बारे में लिखे हैं। जलवायु परिवर्तन का मानव के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। बाढ़ एवं सूखे की स्थिति में विस्थापन के कारण कुपोषण, भुखमरी एवं संक्रामक रोगों का भी खतरा बढ़ जाता है। तापमान में वृद्धि के कारण संक्रामक रोगों का प्रसार होगा। कुपोषण एवं भुखमरी का फैलाव अधिक होगा। डेंगू, मलेरिया तथा अन्य विषाणुजन्य रोग नए क्षेत्रों में फैलेंगे।

पुस्तक के 11वें अध्याय में लेखक ने जलवायु परिवर्तन का जैव विविधता पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिंता जताई है। पृथ्वी जीवन के विविध रंगों को संजोए हुए है। यहां पाए जाने वाली लाखों तरह की वनस्पतियां पृथ्वी के प्राकृतिक सौंदर्य का एक अंग हैं। जहां पृथ्वी की वनस्पतियों में गुलाब जैसे सुंदर फूलदार पौधे, नागफनी जैसे रेगिस्तानी पौधे, सुगंधित चन्दन और वट जैसे विशालकाय वृक्ष शामिल हैं वहीं यहां जीव-जंतुओं की दुनिया भी अद्भुत विविधता लिए हुए है। यहां हिरण, खरगोश जैसे सुंदर जीवों के साथ शेर एवं बाघ जैसे हिंसक जीव भी उपस्थित हैं जो पृथ्वी पर जीवन की विविधता के परिचायक हैं। पृथ्वी पर पाए जाने वाले मोर, कबूतर और गौरैया जैसे हजारों पक्षी जीवन के रंग-बिरंगे रूप को प्रदर्शित करते हैं। जैव विविधता मानव के लिए प्रकृति का अनुपम उपहार है। पृथ्वी की बदलती जलवायु का प्रभाव जीवन के प्रत्येक रूप को प्रभावित कर रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण जैव विविधता में सर्वाधिक तेजी से परिवर्तन हो रहें हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण अनेक जीव धरती से विलुप्त हो सकते हैं। यदि सदी के अंत तक तापमान 1980 से 1999 के मुकाबले 1.5 से 2.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है, तो पौधों और जीवों की करीब 20 से 30 प्रतिशत प्रजातियां हमेशा के लिए नष्ट होने की हालत में पहुंच जाएंगी। बेलगाम प्रदूषण तेजी से जीवन का विनाश कर रहा है। जीवों के विनाश की यह क्षति सालाना 150 अरब रुपए के बराबर है। वर्तमान में 30 प्रतिशत से अधिक उभयचर, 23 प्रतिशत स्तनधारी तथा 12 प्रतिशत पक्षियों की प्रजातियां संकटग्रस्त हैं।

अक्षय ऊर्जा स्रोत नामक अध्याय में जीवाश्म ईंधन के उपयोग में कमी लाने के साथ ही स्वच्छ व अक्षय ऊर्जा प्रणालियों का जिक्र किया गया है। नवीकरणीय एवं वैकल्पिक ऊर्जा को बढ़ावा दिये जाने की बात कही गई है। लेखक ने जैव ईंधन, सौर ऊर्जा, ज्वारीय एवं महासागरीय ऊर्जा, पवन ऊर्जा एवं भूतापीय ऊर्जा, आदि स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों के उपयोग से जलवायु परितर्वन की समस्या के समाधान की आशा जताई है।

पुस्तक का एक अध्याय जलवायु परिवर्तन पर अभी तक हुई विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संधियों पर प्रकाश डालता है। इस अध्याय में कैनकुन सम्मेलन, क्योटो संधि, बाली सम्मेलन, बैंकाक सम्मेलन एवं आईपीसीसी संस्था के कार्यों पर विचार किया गया है।

पुस्तक के 14वें अध्याय ”आओ संवारे अपनी धरती” में इस समस्या के समाधान से संबंधित विभिन्न उपायों पर चर्चा की गई है। लेखक लिखते हैं कि इस समस्या के समाधान के लिए सामूहिक प्रयास अधिक सफल होंगे। सार्वजनिक-निजी साझेदारी पर्यावरणीय समस्याओं को हल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। लेखक ने इस अध्याय में आकर्षक शैली में पर्यावरण संरक्षण से संबंधित विचार व्यक्त किए हैं जैसे ”बच्चों में जगानी होगी पर्यावरण प्रेम की भावना“, ”पर्यावरण के वास्ते, कुछ आसान से रास्ते“ । इस अध्याय में लेखक ने प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदर लाल बहुगुणा के विचार को प्रमुखता दी है कि पर्यावरण के साथ आत्मीय रिश्ते जरूरी हैं और पर्यावरणीय दशाओं को समझने के लिए हमें प्रकृति के साथ मधुर संबंध कायम करने होंगे। लेखक लिखते हैं कि पर्यावरण संरक्षण का तरीका आज से नहीं, प्राचीनकाल से रहा है। वह छीन-झपट या झगड़े का तरीका नहीं, बल्कि त्याग यानी बिल्कुल छोड़ देने-का तरीका है। इसमें अपने स्वार्थ को दूसरे के स्वार्थ में देखना है और दूसरे के स्वार्थ को अपना स्वार्थ समझ लेना है। गांधीजी की विचारधारा केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि सारी दुनिया के लिए है, जिसे लोगों को समझना पड़ेगा।

लेखक को यह बात भी अच्छी लगी है कि युवा पीढ़ी के मन में पर्यावरण के प्रति प्रेम जागा है और वह पर्यावरण क्लबों और अन्य गतिविधियों से प्रकृति की सेवा करने लगे हैं। पर्यावरण संरक्षण के लिए अब युवा पीढ़ी आगे आ रही है जो प्रकृति और मानवता के लिए अच्छी बात है। लेखक द्वारा इस पुस्तक को लिखने का उद्देशय भी यही है कि मानवता एवं प्रकृति के मध्य मधुर संबंध बनें रहें ताकि ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएं उत्पन्न न हो और धरती पर जीवन सदैव मुस्कुराता रहे।

वैसे इस पुस्तक के लेखक स्वयं विज्ञान प्रसार जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में कार्यरत है जिसका प्रमुख उद्देश्य आम जनता में पर्यावरण संरक्षण के साथ ही वैज्ञानिक चेतना को विकसित करना है। इसलिए लेखक का विगत पांच-छह वर्षों के विज्ञान लेखन का अनुभव इस पुस्तक की भाषा-शैली को सरल, सुबोध और पठनीय बनाता है। सरल भाषा शैली में लिखी गई यह पुस्तक आम जनमानस को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल होगी। आज हर एक जिम्मेदार नागरिक को इस पुस्तक का अध्ययन करना चाहिए और इसमें लिखी बातों का अपने जीवन में अमल करना चाहिए जिससे हम पृथ्वी को सदा खुशहाल और जीवनदायी ग्रह बनाए रख सकेंगे।

असल में जन-जागरूकता के दृष्टिकोण से जलवायु परिवर्तन जैसे विषय पर आंख खोलने वाली और इसके दुष्प्रभावों का वास्तविक उल्लेख करने वाली पुस्तकों का प्रकाशन व्यापक रूप से किया जाना नितांत आवश्यक है।

प्रकाशक:पेन्सी बुक्स, आर जेड-66/ए, सोमेष विहार, छावला, नई दिल्ली-110071, संस्करण: प्रथम 2011, पृष्ठ:132, मूल्य:175 रुपए

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