जमींदारी उन्मूलन

समाजवादी माने गए दौर में जमींदारी प्रथा के खत्म होने के बाद तालाबों की देखरेख, पानी का बंटवारा और तालाबों की मरम्मत आदि की जिम्मेदारी सार्वजनिक प्रशासन संस्थाओं पर आ गई। पर सबसे खर्चीली व्यवस्था के इन ढांचों के पास ‘धन की कमी’ थी। आंध्र प्रदेश के एक अध्ययन के अनुसार देख-रेख का खर्च तालाब बनवावे का लागत से एक प्रतिशत का भी तिहाई आता था। लेकिन धीरे-धीरे सिंचाई वाले तालाबों का आधार ही खत्म हो गया। परंपरा से तालाब ग्राम पंचायत के (सरकारी ग्राम पंचायत के नहीं) साधन थे और उनकी मरम्मत में हाथ बंटाना हर परिवार अपना स्वधर्म मानता था। तमिलनाडु, गोवा जैसे कुछ भागों में ये परंपराएं बची रहीं, तालाबों की हालत आज भी अपेक्षाकृत अच्छी है।

दूसरे सिंचाई आयोग ने ऐसे अनेक इलाकों की सूची तैयार की थी, जहां तालाब की सिंचाई तेजी से क्षीण हो चली थी। आयोग ने देखा कि आंध्र प्रदेश के श्रीकाकूलम, विशाखापत्तनम और अनंतपुर जिलों में केवल इस वजह से अनेक तालाब टूट गए कि उनकी देख-रेख ठीक से नहीं की गई। रिपोर्ट ने कहा कि गुजरात में 1965 तक 1142 तालाबों में से केवल 294 यानी 6 प्रतिशत तालाब अच्छी हालत में थे।

मध्यप्रदेश में भी सिंचाई के काम में तालाबों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 1952 में कुल सिंचित इलाके में से 26.4 प्रतिशत में तालाबों से सिंचाई होती थी। सन् 68 में भी राज्य में तालाब से सिंचित रकबे में 235,000 हेक्टेयर से 177,000 हेक्टेयर तक की गिरावट आने के बावजूद तालाब से सिंचाई वाले रकबे का प्रतिशत 13.5 तक था। आयोग ने लिखा है, “राज्य में हम जहां भी गए, सब जगह छोटी सिंचाई योजना की मांग देखी गई। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि बड़ी और मध्यम परियोजनाओं के लागू होने में देर हो रही थी। ये मांग यह भी थी कि राज्य में तालाबों की मरम्मत कराई जाए (राज्य में तालाब बड़ी संख्या में हैं)। वे सब ठीक देख-रेख के अभाव में बेकार हो रहे हैं। बस्तर जिले में बड़ी परियोजनाओं के लिए गुंजाइश ही नहीं है, क्योंकि वहां आबादी कम है और बस्तियां दूर-दूर बसी हुई हैं। वहां तो छोटी सिंचाई व्यवस्था ही खासकर छोटे-छोटे तालाब ही ज्यादा उपयोगी होंगे।

महाराष्ट्र तालाबों से सिंचित क्षेत्र 1954 में 157,000 हेक्टेयर था, जो घटकर 1960 में 97,000 हेक्टेयर रह गया। यों सरकार ने कुछ बड़े तालाबों की मरम्मत और सुधार के कुछ कार्यक्रम तैयार किए हैं, लेकिन जिला परिषदों के अधीन छोटे तालाबों की तो पूरी तरह उपेक्षा हो रही है और वे तेजी से उजड़ते जा रहे हैं।

तमिलनाडु तो तालाबों का ही राज्य है। दूसरे सिंचाई आयोग ने अनुमान किया था कि राज्य में कोई 27,000 तालाब हैं, पर उनमें ज्यादातर उपेक्षित स्थिति में हैं। एक दौर ऐसा आया जब राज्य के सार्वजनिक निर्माण विभाग ने रामनाथपुरम जिले के लगभग 7,500 तालाबों की मरम्मत शुरू की थी।

अनेक खेती विशेषज्ञ तालाबों के महत्व पर अब फिर से जोर देने लगे हैं। ‘इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टिट्यूट फॉर द सेमिएरिड ट्रॉपिक्स’ के विशेषज्ञ वोनओप्पन और श्री सुब्बराव का कहना है कि “तालाबों से सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक और ज्यादा उत्पादक है।” उन्होंने सुझाव दिया है कि पुराने तालाबों को सुरक्षित रखने और नए तालाब खुदवाने के काम के लिए एक ‘भारतीय तालाब प्राधिकरण’ स्थापित किया जाना चाहिए। भूतपूर्व कृषि आयुक्त डीआर भूंबला का मत है कि पानी के अच्छे प्रबंध के लिए तालाब ज्यादा महत्वपूर्ण है और 750 मिमी. से 1,150 मिमी. तक बारिश वाले मध्यम स्तर के इलाकों में भी नहर सिंचाई व्यवस्था का यह सफल विकल्प बन सकता है।

लगभग 40 प्रतिशत नहर सिंचाई वाला क्षेत्र मध्यम बारिश वाला है। मध्यम बारिश वाले इलाकों में नहर सिंचाई से धान और गन्ने जैसी फसलों की पैदावार बढ़ाने में मदद जरूर मिली है लेकिन ज्यादातर हिस्सों में पानी के जमाव की समस्या पैदा हो गई और साथ ही दालों और तिलहनों की पैदावर गिर गई है। मिट्टी का खराब हो जाना सबसे बड़ा खतरा है।

ज्यादा बारिश वाले इलाकों में कई बांध बने और नहरें बिछीं। नहर से सिंचित लगभग 30 प्रतिशत जमीन देश के ज्यादा बारिश वाले इलाके में है। इस सिंचित जमीन के 90 से अधिक प्रतिशत में बारिश के मौसम में धान की फसल होती है। लेकिन पिछले 20 सालों में धान की पैदावार में कहने लायक कोई बढ़ोतर नहीं हुई। बल्कि बड़े-बड़े हिस्से पानी के जमाव और उसके शिकार हो गए।

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