जनता ही बचा सकती है जंगल

21 Jun 2016
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दुर्भाग्य है कि जो जनता सदियों से जंगलों को पालती-पोसती रही और जंगलों को बचाना जिसकी परम्परा रही, जब कभी पेड़ों पर कुल्हाड़ियाँ और आरियाँ चलीं तो वह उन पर चिपक गई, वही जनता आज जंगलों को जलाने की दोषी ठहराई जा रही है।

जंगल में लगी भीषण आगजंगल में लगी भीषण आगउत्तराखंड में हर साल फायर सीजन में जंगल जलते हैं, लेकिन इस बार तो फरवरी माह से ही आग लगनी शुरू हो गई। दावानल ने ऐसा प्रकोप दिखाया कि राज्य में सेना तैनात करनी पड़ी। मई माह के पहले हफ्ते तक आग की 17 सौ से अधिक घटनाओं में करीब चार हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र और लाखों रुपए की वन सम्पदा जलकर राख हो गई। नौ लोगों की जानें भी चली गईं। जंगली जीवों के लिये जान का संकट खड़ा हो गया। इन हालात में कई राजनेता और बुद्धिजीवी राज्य की जनता को आग बुझाने की नसीहत भी देने लगे। कुछ लोगों द्वारा यह भी कहा जाने लगा कि पहाड़ के लोग अच्छी घास के लिये जंगलों को आग लगाते हैं, यानी आग लगाने के वही दोषी हैं।

दुर्भाग्य है कि जो जनता सदियों से जंगलों को पालती-पोसती रही और जंगलों को बचाना जिसकी परम्परा रही, जब कभी पेड़ों पर कुल्हाड़े और आरियाँ चली तो वह उन पर चिपक गई, वही जनता आज जंगलों को जलाने की दोषी ठहराई जा रही है। यह सच है कि स्थानीय लोग घास-चारे के लिये सिविल वन क्षेत्र में खर-पतवार को नष्ट करने के लिये आग अवश्य लगाते हैं, लेकिन इसका जो परम्परागत अनुभव उनके पास है वह अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। लाइन काटकर वे इस तरह खरपतवार को जलाते हैं और साथ-साथ आग को बुझाते हैं कि वह फैल ही नहीं पाती। इस बात की गहराई में कोई नहीं जाना चाहता है कि आखिर आग यूँ क्यों भड़की? जाँच होनी जरूरी है कि जंगलों के जलने का सबसे अधिक फायदा किसको है? कहीं प्रचंड आग की वजह वृक्षारोपण की धांधलियों को छिपाना तो नहीं है? कहीं इसके पीछे उस टिंबर माफिया का हाथ तो नहीं जो आग लगने के बाद जंगलों की लकड़ी को कौड़ियों के भाव हड़पने को पहुँच जाता है?

जो लोग जंगलों और उत्तराखंड की जनता के आपसी रिश्तों से अनभिज्ञ हैं, जिन्हें जंगलों को बचाने के यहाँ के गौरवशाली इतिहास और संस्कृति का पता नहीं उनसे कोई शिकायत नहीं, लेकिन आश्चर्यजनक है कि वे राजनेता जिनके शासन में जंगल धू-धू कर जले अचानक अब जनता और जंगलों के हमदर्द हो गए हैं। उनकी ज्ञानेंद्रियाँ इस कदर जागृत हुईं कि जनता को जंगलों को बचाने की नसीहत दे रहे हैं। जंगलों को आग से बचाने के उपाय भी सुझा रहे हैं। समझ में नहीं आता कि उनके दिमाग की परतें तब ही क्यों खुलती हैं जब वे कुर्सी पर नहीं होते हैं? अगर राज्य की किसी भी सरकार ने पिछले 15-16 वर्षों में जंगलों को आग से बचाने के ठोस उपाय किए होते तो साल दर साल हजारों हेक्टेयर जंगल और करोड़ों-अरबों की वन सम्पदा यूँ ही खाक नहीं होती। वर्ष 1993, 2005 और 2009 में भी वनाग्नि ने इतना प्रचण्ड रूप दिखाया था कि बड़ी संख्या में पशुओं और लोगों को जानें गँवानी पड़ी। ज्यादा पहले न भी जाएं तो वर्ष 2012 में करीब 2830 हेक्टेयर, 2013 में 384 हेक्टेयर, 2014 में 930 हेक्टेयर, 2015 में 701 हेक्टेयर और 2016 में अब तक 3900 हेक्टेयर वन क्षेत्र दानावन की चपेट में आया। इससे करोड़ों रुपए की वन सम्पदा नष्ट हुई।

इससे करोड़ों रुपए की वन सम्पदा नष्ट हुई। जनता को आग बुझाने की सीख देने वाले यह भी तो सोचें कि आखिर उत्तराखंड के लोग जान जोखिम में डालकर क्यों आग बुझाएं। वर्ष 2009 में पौड़ी गढ़वाल के गंगवाणा गाँव के छह लोग आग बुझाते शहीद हुए तो उनके परिवारों की सरकार ने कितनी सुध ली? जिन जंगलों को जनता ने पाला-पोसा, वन अधिनियम 1980 लागू कर उन्हें जनता से दूर क्यों कर दिया गया? इको सेंसटिव जोन के नाम पर भी लोगों के अधिकार छीने गए और विकास बाधित किया गया। क्या वनों को बचाने और पालने-पोसने की जनता को यही सजा मिलनी चाहिए। इसके बावजूद जनता इसलिए जंगलों की रक्षा करती रही कि राज्य गठन के बाद वन आधारित उद्योग लगेंगे और पलायन रुकेगा, लेकिन अब वह महसूस कर रही है कि प्रदेश में सत्ता का अर्थ सिर्फ प्राकृतिक संसाधनों की लूट रहा गया है। जंगल जनता के नहीं, बल्कि पेपर मिल मालिकों, जंगलात के ठेकेदारों या जड़ी-बूटी तस्करों के ही होकर रह गए हैं। ऐसे में जंगलों को बचाने की परम्परा का निर्वाह किया भी जाए तो किसके लिये? क्या इन जंगलों से युवाओं को रोजगार मिलने का सपना पूरा हो पाया है? क्या राज्य की अब तक की कोई भी सरकार दावा कर सकती है कि उसने वनों के व्यावसायिक उपयोग की ऐसी ठोस नीतियाँ बनायीं जो आग को काबू में रख सकें और युवाओं को रोजगार भी दे सकें?

 

भारी नुकसान के बाद बुझी आग


आखिरकार कुदरत की मेहरबानी, 11 हजार सरकारी कर्मियों, भारतीय वायु सेना और स्थानीय लोगों के समन्वित प्रयासों से उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग पर काबू पा लिया गया है। इस आग से लगभग चार हजार हेक्टेयर वनक्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है और 9 लोगों की जान चली गई है। कई लोग आग से झुलस गए हैं।


यों तो उत्तराखंड के जंगलों में हर साल आग लगने की घटना होती है, परन्तु 1995 के बाद यह पहला मौका है जब आग 5000 फीट की ऊँचाई वाले वनों को पार कर गई। 1995 में इससे भी भीषण आग लगी थी और वह 7000 फीट तक पहुँच गई थी। इतनी ऊँचाई पर बांज और देवदार के जंगल पाए जाते हैं। 21 साल बाद फिर से इतनी भयावह घटना हुई है।

 

हैरानी की बात है कि प्रति वर्ष जंगलों को आग से बचाने के जागरूकता अभियानों पर ही लाखों फूँक दिए जाते हैं, लेकिन इसमें स्थानीय लोगों की सहभागिता की सोच वातानुकूलित कमरों से निकलकर धरातल तक नहीं पहुँच पाती है। जिला स्तर पर जिन इंतजामों का ढोल पीटा जाता रहा वे कहाँ हैं, क्यों नहीं कारगर साबित हो पा रहे हैं? आज भी वनकर्मी पहाड़ के लोगों की तरह झाड़ू से ही आग बुझाने को विवश हैं तो हर साल लाखों रुपए के जो उपकरण खरीदे गए वे कहाँ हैं? चीड़ यदि आग के फैलने की बड़ी वजह है तो फायर सीजन से पहले इसकी पत्तियों को एकत्रित कर व्यावसायिक उपयोग में क्यों नहीं लाया जाता है? क्या चीड़ के पेड़ों का सफाया सिर्फ इसलिए कर दिया जाना चाहिए कि कुछ लोगों की तिजोरियाँ भर जाएं? चीड़ के तो बहुत से फायदे भी हैं, लेकिन लैंटिना के सफाए के बारे में क्यों नहीं सोचा जाता? लैंटिना भी तो आग भड़काता है। क्या चीड़ की चिन्ता इसलिए है कि वह कटेगा तो सब में बँटेगा?

अगर राज्य की कोई सरकार वास्तव में अपने जंगलों को बचाने में गम्भीर होती तो लालबत्तियों पर अनावश्यक खर्च करने के बजाए उस पैसे का उपयोग उन आधुनिक उपकरणों की खरीद में कर सकती थी जो आग भड़कने के वक्त मददगार साबित होते। राज्य में ग्रामसभा स्तर तक वृक्षारोपण और जंगलों की सुरक्षा के लिये युवाओं का एक कार्य बल (वर्क फोर्स) गठित किया जाना चाहिए। वृक्षारोपण का कार्य सीधे-सीधे ग्राम सभाओं के हवाले क्यों नहीं किया जाता? जब स्थानीय लोग वर्षों से पतरौल को मदद कर वनों को बचाने की परम्परा का निर्वाह करते रहे हैं तो क्यों उनके अनुभव को आग से बचाने की कार्य योजनाओं में शामिल नहीं किया जाता? एक आवाज लगने पर पहाड़ के जो लोग जंगलों को बचाने के लिये एकजुट हो जाते हैं उनकी जंगलों में तभी दिलचस्पी बनी रहेगी जब उन्हें इनका फायदा होगा। देखना होगा कि ग्रीन बोनस के एवज में आखिर पहाड़ के लोगों को क्या मिला? दुनिया को बहुत बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन देते जंगलों और नदियों की रक्षा करने की सजा क्या पहाड़ के लोगों को उनके हक-हकूक छीनकर दी जानी चाहिए?

 

आखिर कहाँ जाता है फायर मैनेजमेंट के नाम पर मिला पैसा


वन विभाग को वॉकी-टॉकी, 8 जिप्सी और हर साल जो बजट दिया जाता वह क्या गोपेश्वर में

बैडमिंटन खेलने या देहरादून में कोठी खरीदने, अखबारों में सिर्फ विज्ञापन के लिये दिया जाता है? संयुक्त वन प्रबंधन (जेएफएम), जापान (जेआईसीए) से मिला फंड क्या सिर्फ मीडिया मैनेजमेंट के लिये है?


सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी बताती है कि उत्तराखंड के वन विभाग को फायर सीजन के शुरू होने से पहले पैसा दिया जाता है, फिर डिविजन और रेंज के हिसाब से उसे बाँट दिया जाता है। कुछ वन पंचायत जहाँ सरपंच, सचिव, वन दरोगा या रेंजर हैं उन्हें भी पिछले 5 साल में काफी पैसा दिया गया है। पिछले 10 साल में उत्तराखंड के 13 जनपदों में पर्यावरण पर काम करने वाले किसी भी गैर सरकारी संस्था को किसी भी प्रकार की कोई मदद नहीं दी गई है। जबकि दूसरी तरफ सिर्फ अखबारों और पत्रिकाओं में प्रचार-प्रसार के नाम पर विज्ञापन के रूप में पिछले तीन सालों में 34 लाख फूँक दिये गये। यदि यह पैसा सीधे हर जनपद में 10 वन पंचायतों को भी दे दिया जाता तो हर वन पंचायत के पास 26.115 रुपये होते जिसका उपयोग आग लगते ही उसके नियंत्रण में किया जा सकता। - जे. पी. मैथानी

 

पर्यावरणविद आग भड़कने की एक बड़ी वजह भूमि की नमी कम होना बता रहे हैं। पहले पहाड़ के गाँवों में लोग ऊँचे स्थानों पर खाल बनाया करते थे। इन खालों में वर्षभर वर्षाजल संचित रहता था। इससे भूमि में नमी बनी रहती थी और पेयजल स्रोत भी रिचार्ज होते रहते थे, लेकिन पलायन के साथ ही ये भी सिमटते गए। जब पहाड़ पर आबादी ही नहीं रही तो इन खालों को अब कौन पुनर्जीवित करेगा? आज पहाड़ के कई गाँव पूरी तरह वीरान हो गए हैं। ऐसे में जंगलों को बचाने की परम्परा भी प्रभावित हो रही है। जब तक पहाड़ के विकास की अनुकूल योजनाएं नहीं बनेंगी और जब तक इन योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन में वहाँ के आम आदमी के परम्परागत अनुभव को शामिल नहीं किया जाएगा तब तक उस क्षेत्र से पलायन होता रहेगा। आज गाँवों के खाली होने का ही परिणाम है कि जलते जंगलों को बारिश के बाद ही राहत मिल पाती है। सरकार जान ले कि जंगल बारिश या भगवान के ही भरोसे नहीं छोड़े जा सकते। पहाड़ के लोगों की भागीदारी के बिना न तो जंगल बचेंगे, न गंगा बचेगी और न ही हिमालय।

लेखक उत्तराखंड के विषयों के जानकार माने जाते हैं। उमेश डोभाल पत्रकारिता पुरस्कार से सम्मानित हैं।

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