जंगल बचाने की नई मुहिम

7 Jun 2013
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वनाधिकार कानून बन जाने के बावजूद वनों पर आश्रित आबादी अपने राज्यसत्ता और कॉरपोरेट घराने नई किस्म की दुरभिसंधि में मशगूल हैं। ऐसे में ये वंचित और उनके बीच काम करने वाले संगठन देश भर में आंदोलन छेड़ने की तैयारी में लगे हुए हैं। वन संपदा को बचाने की इस व्यापक सामाजिक पहल के बारे में बता रही हैं रोमा।

देश में वनों के अंदर वनाधारित वन्यजन श्रमजीवियों की तादाद करीब पंद्रह करोड़ है, लेकिन आज भी देश की इतनी बड़ी जनसंख्या अपने मूलभूत संवैधानिक अधिकारों से वंचित हैं। यह वनसमुदाय भले ही देश की कुल जनसंख्या का एक छोटा-सा हिस्सा हो, लेकिन यह देश की रीढ़ की हड्डी है। अगर यह समाप्त हो गया तो देश में प्राकृतिक संपदा भी नष्ट हो जाएगी। आज ये करोड़ों लोग वनों के अंदर भूमंडलीकरण और साम्राज्यवादी ताकतों के हमले को झेलते हुए अपने अस्तित्व और इस देश की दूसरी आजादी के लिए संघर्ष की तैयारी कर रहे हैं। भले ही देश की आजादी में उन्हें गुलामी और शोषण की जिंदगी मिली हो, लेकिन इस समुदाय ने अपने जीवन का संघर्ष नहीं छोड़ा और 2006 में पारित ‘वनाधिकार कानून’ के तौर पर आंशिक सफलता जरूर हासिल की। यह वन्यजन श्रमजीवी समाज, वनों में स्वरोजगारी आजीविका जैसे वनोपज को संग्रह करना और बेचना, वनभूमि पर कृषि करना, वृक्षारोपण, पशुपालन, लघु खनिज निकालना, वनोत्पादनों से सामान बनाना, मछली पकड़ना, निर्माण कार्य और वनोपज को इकट्ठा करना जैसे कार्य से जुड़े हैं। वनाश्रित समुदाय का एक बहुत छोटा-सा हिस्सा है जो कि वनविभाग के कार्यों में मजदूरों के रूप में पौधारोपण, आग बुझाना और निर्माण कार्य में लगा हुआ है।

वनाश्रित श्रमजीवी समुदायों को मूल रूप से दो श्रेणियों में बांटा जा सका है – एक जो सदियों से जंगल में पारंपरिक तरीके से अपनी मेहनत से आजीविका चला रहे हैं जिन्हें हम ‘वनजन’ कहते हैं। ये मुख्यतः आदिवासी और मूलनिवासी समुदाय हैं। और दूसरा – जो कि अंग्रेजी शासन काल में वनविभाग द्वारा जंगल क्षेत्र में वृक्षारोपण या फिर अन्य कामों के लिए बसाए गए थे जिन्हें ‘वनटांगी या वनश्रमजीवी’ कहते हैं। वनाश्रित समुदाय में 56 फीसद जनसंख्या आदिवासी और अनुसूचित जनजाति की है, जबकि अन्य गैर आदिवासी हैं जिसमें दलित, अति पिछड़ी जातियां और मुस्लिम समुदाय के लोग शामिल हैं। घुमंतू पशुपालकों में बहुत बड़ी तादाद मुस्लिम समुदाय की भी है। आदिवासियों के एक बहुत बड़ी प्रतिशत को अभी भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त नहीं है। इतनी भारी तादाद में होते हुए भी वनश्रमजीवी समुदाय प्रत्यक्षरूप से दिखाई नहीं देते और न ही इन्हें व्यापक श्रमजीवी समाज के हिस्से के तौर पर देखा जाता है, जबकि यह तबका आरंभ से ही प्राथमिक उत्पादन का काम करता आ रहा है और देश की संपदा को बढ़ाने और संरक्षित रखने में इसकी अहम भूमिका रही है। पूंजीवादी विकास में पूंजी के प्रारंभिक संग्रहण की प्रक्रिया से ही इनके श्रम बेतहाशा लूट हुई है, जिसके तहत वनाश्रित श्रमजीवी समाज का एक बड़ा हिस्सा खासतौर पर वनटांगियां वनग्रामवासी बंधुआ मजदूरी और दासता का शिकार रहा।वनों में रहने वाली इतनी बड़ी जनसंख्या ने आजादी की झलक को तब महसूस किया जब 2006 में भारत की संसद ने ‘अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनसमुदाय वनाधिकारों को मान्यता’ कानून जिसे ‘वनाधिकार कानून’ भी कहा जाता है, को पारित किया। इस कानून के माध्यम से औपनिवेशिक परंपरा जो कि, वनविभाग के तौर पर वनों में मौजूद है, से वनाश्रित समुदाय को कानूनी रूप से मुक्ति मिली। औपनिवेशिक काल से बनी ये संस्थाएं प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए बनाई गई थीं, जिन्होंने आजादी के बाद भी जंगलों को बचाने के बजाय उनका दोहन किया। हालांकि, अभी भी इस आजादी को सही मायने में पाने के लिए वनाश्रित समुदाय को एक और चुनौतिभरा संघर्ष करना है। यह टकराव अब सीधे-सीधे कारपोरेट घरानों, बड़ी विदेशी कंपनियों से है जो इन प्राकृतिक की फिराक में है।

मौजूदा दौर में सारा विवाद बेशकीमती प्राकृतिक संपदा पर नियंत्रण करने का है। सभी की ललचाई नजरें इस अनमोल संपदा पर गड़ी हुई हैं। फिर चाहे वे- सरकारें हों, वनविभाग हो, देसी-विदेशी कंपनियां हों या फिर माफिया, ठेकेदार और उन्हें मदद करने वाला पूरा रासायनिक अमला। वहीं दूसरी तरफ, इन वनों पर निर्भर समुदाय है जिनके लिए यह संपत्ति नहीं बल्कि सांस्कृतिक विरासत है और उनकी आजीविका का मुख्य स्रोत है। इस संपदा को वे आने वाली पीढ़ियों के लिए संजोकर रखना चाहते हैं। यही समुदाय डेढ़ सौ साल से आदिवासी और शोषित वर्गों की अगुवाई में अकेले लालच में लिप्त भ्रष्ट तंत्र से लड़ाई लड़ रहा है। वनाश्रित समुदाय आज इन हमलों से लड़ने के लिए जनसंगठन, जनांदोलन और जनवादी जगह को बनाते हुए संगठनों के नए स्वरूपों की ओर बढ़ रहा है, जिसमें उपनिवेशिक काल से बनी संस्थाओं को ध्वस्त करना भी शामिल है। कारपोरेट हमले को देखते हुए पहली बार भारत के वनों के इतिहास में वनश्रमजीवियों और वनाश्रित समुदायों के ट्रेड यूनियन को बनाने की कोशिश की जा रही है।

यहां पर यह सवाल उठ सकता है कि वनों के अंदर श्रम आंदोलन और श्रम संगठन बनाने की जरूरत क्यों है? असल में, 1980 तक वनों के अंदर जो भी आंदोलन या विद्रोह हुए वे मुख्य रूप से सामुदायिक संसाधनों को बचाने के लिए थे। वनों पर साम्राज्यवादी नीतियों के हमले के खिलाफ उपजे ये जनांदोलन स्थानीय स्तर तक ही सीमित रहे। वे बड़े आंदोलनों से अपना तालमेल स्थापित नहीं कर पाए। प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण का द्वंद्व मुख्य रूप से औपनिवेशिक शासन और वनाश्रित समुदाय के बीच में था जो कि आजादी के बाद भी जारी रहा। यह संघर्ष 1972 के वन्य जंतु संरक्षण अधिनियम और 1980 के वन संरक्षण कानून के बाद और भी गहरा गया जब सरकार ने वनों के अंदर दोहरी नीति अपनाई। जहां एक तरफ वनभूमि पर पट्टा देने की कार्यवाही शुरू की, वहीं दूसरी ओर 1988 की वननीति के तहत लोगों को वनों के अंदर जाने से रोक दिया। 1990 तक भूमंडलीकरण की बयार ने इस टकराव को और भी बढ़ा दिया, जब भारत सरकार ने कई बड़ी विदेशी कंपनियों के साथ करार कर अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थानों को वनों के अंदर खुली छूट दे दी और विश्व बैंक की सहायता से कई कार्यक्रमों को शुरू कर वनों के अंदर समुदायों को संसाधनों से बिल्कुल अलग कर दिया। 2000 में उच्चतम न्यायलय द्वारा वनभूमि को परिभाषित कर विवादित वनभूमि में रहने वालों को अतिक्रमणकारी की संज्ञा दी गई, जिसके बाद 2002 में वनविभाग ने सभी कानूनों को ताक पर रख वनसमुदायों की बेदखली की कार्रवाई शुरू कर दी। असम में तो वनसमुदाय को बेदखल करने के लिए हाथियों का इस्तेमाल किया गया था। इन दमनात्मक तरीकों से वनों के अंदर हथियार बंद कार्रवाई में इजाफा हुआ।

इस स्थिति को देखते हुए आखिरकार कानून पारित करना पड़ा। इस कानून को बनाने में वामपंथी पार्टियों की काफी अहम भूमिका थी। इसके आने से नए तरह की ताकतें सामने आईं, नए तरह के संगठन बनाकर एकजुटता होने लगी, सामूहिक समझौते होने लगे और नए तरह के संगठनों के निर्माण करने की जरूरत भी सामने आई।इस समय वनाधिकार आंदोलन में खास तौर से दो प्रकार के टकराव हैं- एक, राज्य सत्ता और वनाश्रित समुदाय के बीच। दूसरा, कारपोरेट घरानों और भारतीय जनता के बीच। यह टकराव भूमंडलीकरण के दौर के बाद उभरा है। इससे निपटने के लिए नए प्रकार के संगठनों के निर्माण की भी जरूरत है। इन टकरावों का हल श्रम आंदोलन और सामाजिक आंदोलन के तालमेल से ही हो सकता है। मौजूदा दौर में भारत के श्रम आंदोलन, जिसकी कमान संगठित क्षेत्र के हाथों में भी थी, अब कमजोर पड़ गया है। इस समय वह असंगठित क्षेत्र के श्रमजीवी समाज की आवाज उठाने में असमर्थ है। वहीं देखा जाए तो अब पूंजी का हमला सीधे-सीधे असंगठित क्षेत्र में हो रहा है, जिसका केंद्र बिंदु प्राकृतिक संसाधन हैं, जो कि वन, खनिज, भूगर्भीय खनिज संपदा वगैरह और अपना एकाधिकार स्थापित करना चहते हैं। वनाधिकार आंदोलन को व्यापक श्रमजीवी समाज के आंदोलनों से अलग करके नहीं देखा जा सकता, इसलिए नए तरह के श्रम आंदोलन को भी खड़ा करना और वन क्षेत्र के अंदर श्रम आधारित आंदोलन को व्यापक श्रमिक आंदोलनों के साथ जोड़ना आज की जरूरत है। इसलिए वनाधिकार आंदोलन में यूनियन बनाने के सवाल, न केवल वनक्षेत्र में वनजन श्रमजीवी समाज को मजबूत करेगा, बल्कि यह दूसरे क्षेत्र के श्रमजीवी समाज के साथ भी गहरा तालमेल कर पूंजीवाद के खिलाफ वृहद संघर्ष और साम्राज्यादी शक्तियों को ध्वस्त करने के लिए अपने आप को तैयार करेगा।

वनाधिकार कानून देश का ऐसा कानून की जिसने पहली बार समुदायों के सामुदायिक अधिकारों को भी मान्यता दी है। इस कानून के तहत वनसंपदा के नियंत्रण, व्यवस्थापन और देख-रेख का जिम्मा भी समुदाय को सौंपा गया है। अनुसूचित जनजाति मंत्रालय ने इस कानून में कुछ नए संशोधन करते हुए कहा है कि देश में केवल वनोपज से ही करीब पचास हजार करोड़ का राजस्व सरकार को मिल रहा है। अगर इसमें सभी तरह के वनोपज, पत्थर, पहाड़, खनिज को जोड़ा जाए तो लाखों करोड़ों का राजस्व वनोपज से अर्जित होता है। इस संपदा से इतना राजस्व उत्पन्न होने के बावजूद वनों के अंदर सबसे ज्यादा गरीबी, भुखमरी, अन्याय और शोषण है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश के 600 जिलो में से 200 जिले माओवाद से ग्रसित हैं, जो कि सभी वनाच्छित जिले ही हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि देश की बेशकीमती संपदा के अंदर रहने वाले सबसे ज्यादा गरीब हैं और वहीं पर जनवादी परिसर भी गायब है। यह कोई आकस्मिक घटना नहीं है बल्कि यह सरकार, कंपनियों, पूंजीवादी और सामंती ताकतों की एक सोची समझी साजिश के तहत हो रहा है। इसलिए देखा जाए तो वनोपज से पैदा होने वाले राजस्व सरकारी संस्थाओं में बंदर बांट हो कर रह जाता है। अगर वनोपज जैसे तेंदुपत्ता, साल पत्ता, शहद, मोम, महुआ, चिरोंजी, बांस, बेत, आंवला वगैरह की आय सीधे-सीधे वनाश्रित समुदाय को होने लगे तो वे किसी ओर भी नहीं ताकेंगे, बल्कि अपना विकास खुद कर लेगें। इस राजस्व को समेटने वाला केवल अकेले वनविभाग और उसकी सहयोगी वननिगम है।

सरकार ने आज तक इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार की जनसंस्थाओं को खड़ा करने की कोशिश नहीं की है। आजादी के पहले और आजादी के बाद वनविभाग ने इस संपदा का दोहन करने के लिए बड़े पैमाने पर ठेकेदारी प्रथा शुरू की। वनोपज को निकालने के नाम पर देश के वनों की बेइंतहा तबाही हुई। औपनिवेशिक संस्थाओं ने ग्राम सभा में सामंती, उच्च जाति और उच्च वर्ग के निहित स्वार्थों को खड़ा कर इस संपदा को लूटा। आज जब सरकार इस बात को स्वीकार कर रही है कि अगर वनोपज पर निर्भरशील समुदाय के पास कम से कम यह पचास हजार करोड़ का भी राजस्व आ जाए तो उनके जीवन स्तर में काफी सुधार होगा। यह सबसे बड़ा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम होगा। तब आखिर समस्या की जड़ है कहां? जिन संसाधनों से औपनिवेशिक काल से बनी संस्थाएं मलाई काट रही हैं, वे आसानी से इस पर अपना नियंत्रण छोड़ने के लिए कतई तैयार नहीं हैं।

वनसंपदा को केवल वे ही लोग बचा पाएगें जो कि उन पर निर्भर हैं और उनसे अपनी आजीविका अर्जित करते हैं। सामुदायिक अधिकारों को समुदाय को सौंपने की बात जरूर की गई है, लेकिन हमारे देश के तमाम राजस्व कानूनों में किसी भी समुदाय के सामुदयिक अधिकारों के बारे में कानूनी प्रावधान नहीं है और सार्वजनिक उपयोगों की भूमि जैसे चरागाह, खलिहान वन और जलाशय राजस्व रिकार्ड में कहने को तो ग्राम सभा के खाते में दर्ज होते हैं, लेकिन उस पर राज्य का एकाधिकार है। इन राजस्व रिकार्डों में वन को वनभूमि की श्रेणी में रखा गया है, जबकि हमारे देश के किसी भी राजस्व कानूनों में वनविभाग को भूमि स्थानांतरण का किसी प्रकार का प्रावधान नहीं है, फिर भी देश की तेईस फीसद भूमि यानी करीब साढ़े सात करोड़ हेक्टेअर भूमि आजादी के बाद वनभूमि के खाते में दर्ज की गई, जिसका मालिक वनविभाग बन बैठा। सारा झगड़ा इस वनभूमि और जंगल को वन विभाग से कानूनी प्रक्रिया के तहत वापस लेने का है और इस पर खड़ा तमाम वनोपज। जो कि करोड़ों रुपए का राजसव अर्जित करता है, को समुदाय के विकास और हितों के लिए इस्तेमाल करना है। इसलिए इन नई चुनौतियों को देखते हुए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए संगठनों और जनसंस्थानों का नवनिर्माण जरूरी है। इस क्षेत्र में वनाश्रित श्रमजीवी समुदाय के श्रमिक संगठन और उनके द्वारा वनोपज के संग्रहण, संवर्द्धन को करने के लिए सहकारी संघ के निर्माण पर जोर दिया जा रहा है। यह काफी कठिन और पेचीदा काम है।

जाहिर है वनों से मिलने वाले राजस्व कोई भी वनसमुदाय के हाथ सौंपना नहीं चाहेगा। ऐसा करने से रोकने के लिए सत्ता की मशीनरी तमाम हथकंडे भी अपना रही है। वनविभाग के पास जमा काले धन के माध्यम से अधिकारियों, पुलिस, दबंगों को खरीदकर और असामाजिक तत्वों से वनसमुदायों पर हमले तेज किए जा रहे हैं। और जहां पर कंपनियां हैं, वहां पर तो राज्य सरकारें ही समुदायों पर हमला करने की साजिश कर रही हैं, जिसका जीता जागता उदाहरण है ओड़िशा सबसे बड़े पूंजी निवेश वाली परियोजना ‘पोस्को’, जहां पर संघर्ष जारी है।

जब तक राजनीतिक रूप से समुदाय अपने समाज की जनगोलबंदी कर लाखों की तादाद में संगठित नहीं होंगे तब तक वे नवउदारवादी नीतियों के हमलों से नहीं बच पाएंगे। आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रमों को लागू करने के लिए विभिन्न स्तरों पर काम करना होगा।

वनक्षेत्र में जनवादी ढांचा खड़ा करने के लिए राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच ने 2012 में अपने चौथे राष्ट्रीय सम्मेलन में सर्वसम्मिति से तय किया था कि अपने लक्ष्य को पाने के लिए एक अखिल भारतीय यूनियन का गठन किया जाएगा, जिसके जरिए सामुदायिक नेतृत्व को राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर स्थापित किया जा सके। इस संगठन को बनाने में श्रमिक संगठन न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव द्वारा भी सहयोग दिया जा रहा है। अखिल भारतीय यूनियन वनक्षेत्र में श्रम कानून, सामाजिक सुरक्षा कानून और वनाधिकार कानून को लागू कराने के लिए संघर्ष करने और वनक्षेत्र में मौजूद विविधताओं को मान्यता देते हुए एक संघीय ढांचे के तहत संघ निर्माण का काम करेगी। इस यूनियन का स्थापना सम्मेलन तीन से पांच जून को ओड़िशा में होने जा रहा है। इसमें प्रमुख जनसंघटनों, श्रमिक संगठनों, सामाजिक आंदोलनों के साथ-साथ इक्कीस राज्यों से सैकड़ों प्रतिनिधियों के शामिल होने की संभावना है। आज के राजनीतिक माहौल में नए संस्थानों को बनाने की पहल, श्रमिक और सामाजिक आंदोलनों को ही करनी होगी। मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था से आम आदमी का भरोसा टूट चुका है।

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