जंगल का कटान

ज्यादातर खदानें वन क्षेत्रों में हैं। इसका अनिवार्य परिणाम यह है कि वहां के जंगल कटते हैं और भूक्षरण होता है। सुरंग वाली खानों के लिए भी काफी मात्रा में जंगल कटते हैं, क्योंकि सुरंगों की छतों को लट्ठों से सहारा दिया जाता है। गोवा में खानों के लिए पट्टे पर दी गई जमीन कुल जंगल का 43 प्रतिशत है। गोवा, दमन और दीव के वनसंरक्षक ने 1981 में कहा था, “खान के लिए जमीन देते समय पट्टे में कोई शर्त नहीं होती कि खान के मालिकों को भूक्षरण रोकने या मिट्टी बचाने का जिम्मा भी उठाना होगा या खुदाई पूरी हो जाने के बाद उन खड्ढों को भरना होगा इसलिए छोड़ी हुई खानों का हाल काफी बुरा है।”

मध्य-पूर्वी क्षेत्र के जिन हिस्सों में घनी मात्रा में खान-खुदाई हुई है वह सारा इलाका पर्यावरण की दृष्टि से बहुत नाजुक हो गया है। इस क्षेत्र में छोटा नागपुर पठार और मेकल पर्वत श्रृंखला से पांच प्रमुख नदियों को पानी मिलता है। वे हैं -नर्मदा, सोन, रिहंद, महानदी और दामोदर। मेकल पर्वतमाला की सबसे ऊंची चोटी अमरकंटक, नर्मदा का उद्गम स्थल है। यहीं पर भारत अल्यूमिनियम कंपनी (बाल्को) और हिंदुस्तान अल्युमिनियम कंपनी (हिंडालको) की बॉक्साइट खदानें हैं। वहां एक ओर खान के इलाके में एकदम उजाड़ नंगे पहाड़ हैं। ‘बाल्को’ ने नया जंगल लगाने का, नगण्य-सा ही क्यों न हो, कुछ प्रयास तो किया है पर ‘हिंडालको’ का पर्यावरण के मामले पर ध्यान दिया ही नहीं है। ऐसी ही समस्या हिमालय की खनिज वाली तलहटियों की भी है, जैसे ब्रह्मपुत्र नदी का जलग्रहण क्षेत्र। चूना पत्थर से भरी मध्य हिमालयी तलहटी, जहां गंगा और यमुना का जलागम क्षेत्र है, खनन की खरोचों से भरा पड़ा है।

अब तो देश का कोई कोना अछूता नहीं दिखता। बस्तर में राष्ट्रीय खनिज विकास निगम डोलमोइट की खान खोदने के लिए कांगर आरक्षित वन की 800 हेक्टेयर से भी ज्यादा जमीन पट्टे पर लेने की कोशिश में लगा है। यहां खनन के पास कांगर अभयारण्य के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। 30 साल से यहां पर्यावरण की सुरक्षा की दृष्टि से सभी तरह की व्यापारिक गतिविधियों पर प्रतिबंधित जंगलों को साफ करने पर तुले हुए हैं। स्थानीय लोगों की चेष्टा की क्या कहें, इससे तो गोवा का वह पर्यटन उद्योग भी प्रभावित हो चला है, जिस पर वहां की सरकार आस लगाए बैठी रहती है।

हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला के पास पहाड़ों में स्लेट पत्थर की खुदाई के कारण भूरे रंग के बड़े-बड़े खड्ढे बन गए हैं। कई हरे-भरे घने जंगल आज भी भूरे पत्थरों के ढेर भर रह गए हैं। मुट्ठी भर चूना पत्थर के खान मालिकों ने मसूरी के पहाड़ों की बेजोड़ खूबसूरती को उजाड़ कर रख दिया है।

सूखे और अधसूखे क्षेत्रों में, जहां हरियाली बहुत मुश्किल से पनपती है, वहां खुदाई से रेगिस्तान के फैलाव को एक और मौका मिल जाता है।

राजस्थान के सूखे क्षेत्रों में सीसा, जस्ता, टंगस्टन, एस्बेस्टस, फास्फोराइट, खड़िया, तांबा, काओलिन और चूना पत्थर आदि के बड़े भंडार हैं। यहां खनन के लिए पट्टे पर दी गई जमीन में 1970 और 1976 के बीच जो 86 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। आज इन जगहों में कोई 50 तरह के खनिज खोदे जा रहे हैं।

श्री एचडी मान और उनके साथी डा पीसी चटर्जी का कहना है कि “वर्तमान खनन कानूनों में बस यही ध्यान में रखा गया है कि खनिज भंडारों का पूरा-पूरा दोहन हो जाए। इस बात पर ध्यान ही नहीं गया कि खनन समाप्त होने के बाद जमीन की उत्पादकता पर क्या-क्या बुरा असर पड़ता है। पेड़-पौधों को सफाया करने से और खनन के मलबे से राजस्थान के सूखे इलाकों में भूक्षरण की संभावनाएं बढ़ गई हैं। ऐसे ही इलाकों से ही रेगिस्तान का फैलाव शुरू होता है।”

जोधपुर, उदयपुर और जयपुर जिलों की पत्थर की खदानों की बाड़मेर जिले की खड़िया पत्थर की खदानों के तारों ओर जमीन में खार बढ़ गया है। खनिजों के वर्गीकरण और उनको निथारने की प्रक्रियाएं भी खान के आसपास ही होने से रही-सही हरियाली को खत्म करने का काम पूरा हो जाता है। श्रीमान और चटर्जी में बताया है कि देवड़ी के जिंक स्मेलटर के आसपास की सारी जमीन में जो पेड़-पौधे थे और हरियाली थी, वह अब साफ हो गई है।

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