जंगलों की आग से बचाव

8 Sep 2015
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जंगलों में हर साल लगने वाली आग से बड़े क्षेत्र की जैव विविधता और उत्पादकता का ह्रास होता है। लेखक के अनुसार ‘राष्ट्रीय वन आग संस्थान’ की स्थापना, आँकड़ों के संग्रह, और अनुसंधान द्वारा इस पर काबू पाया जा सकता है। दूसरे विभागों से तालमेल के साथ-साथ आधुनिक तकनीक का उपयोग इस तरह की आग को रोकने तथा आर्थिक नुकसान और लोगों की तकलीफ कम करने के लिए जरूरी है।

भारत के लगभग 7 लाख, 65 हजार 210 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में जंगल फैला है। इसमें से लगभग 6 लाख, 39 हजार छह सौ किलोमीटर क्षेत्र में किसी न किसी तरह के वन हैं। भारत के वनों में कई तरह की जैव विविधता मिलती है। लेकिन ईंधन, चारे, लकड़ी की बढ़ती हुई माँग, वनों के संरक्षण के अपर्याप्त उपाय और वन भूमि के गैर-वन भूमि में परिवर्तित होने से वे खत्म होते जा रहे हैं। जंगल में लगने वाली आग जैव विविधता और जंगल की उत्पादन क्षमता में कमी का मुख्य कारण होती है। जंगल में आग लगना एक आम बात है और पुराने समय से ही ऐसा होता रहा है। महाभारत एवं रामायण जैसे ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख है। जंगल के पर्यावरण में घुसपैठ से असन्तुलन बनने और आग नियन्त्रण का समुचित प्रशिक्षण न होने से आज इस तरह की घटनाएँ बहुत बढ़ गई हैं। वन क्षेत्र के लिए वित्तीय आवंटन में कमी और वन आग नियन्त्रण की व्यवस्था को कोई प्राथमिकता न दिया जाना भी आग को रोकने में हमारी असफलता का कारण रहा है।

भारत का 92 प्रतिश्ता से अधिक वन क्षेत्र सरकार के नियन्त्रण में है। जंगल की आग पर नियन्त्रण सहित वन प्रबन्ध का जिमा राज्यों के वन विभागों के पास है। इसको देखते हुए ‘वन-आग’ प्रबन्ध के लिए एक राष्ट्रीय योजना तैयार करनी जरूरी है ताकि इस सम्बन्ध में राज्यों को स्पष्ट दिशा-निर्देश मिल सकें और इस दिशा में राष्ट्रीय उद्देश्यों को हासिल करने के लिए गतिविधियों में तालमेल बन सके। 1988 की राष्ट्रीय वननीति में भी जंगलों में लगने वाली आग पर नियन्त्रण के लिए खास मौसम में विशेष सावधानी बरतने और इसके लिए आधुनिक तरीके अपनाने की बात साफतौर पर कही गई है लेकिन अभी तक वन आयोजना और व्यवस्था को वह प्राथमिकता नहीं मिली है जो मिलनी चाहिए थी।

कारण


जंगल में आग लगने के कुछ खास कारण हैं:-

1. मजदूरों द्वारा शहद, साल के बीज जैसे कुछ उत्पादों को इकट्ठा करने के लिए जानबूझकर आग का लगाया जाना।

2. कुछ मामलों में जंगल में काम कर रहे मजदूरों, वहाँ से गुजरने वाले लोगों या चरवाहों द्वारा गलती से जलती हुई कोई चीज वहाँ छोड़ दिया जाना।

3. आस-पास के गाँव के लोगों द्वारा दुर्भावना से आग लगाना।

4. जानवरों के लिए ताजी घास उपलब्ध कराने के लिए आग लगाना।

नुकसान


जंगल में आग से होने वाले नुकसान का आकलन करना वन-विज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण भाग बनता जा रहा है और इस सम्बन्ध में विस्तृत अध्ययन की जरूरत महसूस की जा रही है। इस अध्ययन से जहाँ आग से हमारी वन-सम्पदा और जैव विविधता को होने वाले नुकसान का पता चलेगा वहीं वनों के लिए व्यय की जाने वाली राशि के बारे में भी ठीक अनुमान लगाया जा सकेगा। आग से होने वाले नुकसान को यदि वित्तीय आँकड़ों में देखा जाए तो यह कहीं अधिक होगा। इस मामले में अनुसंधान करने के लिए देश में दो प्रमुख वन संस्थान हैं- ‘भारतीय वन अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद, और भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान’, लेकिन लगता है दोनों में से किसी भी संस्थान ने अभी तक इस दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किए हैं। उत्तर प्रदेश के वन आयोजना दल द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार जंगल की आग से हर साल संरक्षित वन क्षेत्र में 9 करोड़ रुपए का नुकसान होता है। इसमें से आधा, यानी लगभग 4.5 करोड़ रुपए का नुकसान तो केवल कुमाऊँ और गढ़वाल के जंगलों में ही हो जाता है। हालाँकि इस नुकसान को आर्थिक आँकड़ों में मापने का तरीका उचित नहीं है, फिर भी यदि इन नुकसानों को आज के मूल्यों पर देखा जाए तो यह लगभग 22-23 करोड़ रुपए सालाना बैठता है। इसके अलावा आग से होने वाले बहुत से अप्रत्यक्ष नुकसान भी हैं जिनमें जमीन की उत्पादकता में गिरावट, वनों की सालाना वृद्धि दर में कमी, भूमि में कटाव और कई तरह की वन सम्पदा का नुकसान शामिल है। यदि आग से होने वाले कुल नुकसान में इस सबको भी शामिल किया जाए तो आँकड़े विश्वास करने योग्य नहीं होंगे। यह किसी को पता नहीं है कि बार-बार लगने वाली आग से हमने जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों की हमेशा के लिए खो दिया है। शायद ये प्रजातियाँ हमारी पारिस्थितिकी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण साबित होती। इसलिए यह जरूरी है कि आग से होने वाले नुकसान का सही-सही अनुमान लगाने और आर्थिक आँकड़ों में इसे मापने का एक सही तरीका निकाला जाए।जंगल में आग लगना एक स्थाई समस्या है तथापि इससे निपटने के लिए कभी कोई गम्भीर प्रयास नहीं किया गया। हमेशा अस्थाई समाधान की बात ही की जाती रही। आज भी वन विभाग, राष्ट्रीय दूरसंवेदन एजेन्सी, भारतीय मौसम विभाग और भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान आदि संस्थाओं के बीच कोई तालमेल नहीं है। वन विभाग के पास इस आग से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। इसलिए यह जरूरी है कि वन कार्यक्रमों में तुरन्त परिवर्तन लाया जाए और ‘राष्ट्रीय वन आग अनुसंधान संस्थान’ की स्थापना की जाए ताकि जंगल की आग के बारे में समन्वित अनुसंधान हो और उसके नतीजे निचले स्तर तक लागू हो सकें।

वनों में लगने वाली आग की सूचना वन प्रशासन की सबसे निचली इकाई ‘फारेस्ट गार्ड’ यानी वन निरीक्षक से ही मिलती है। यह हो सकता है कि वह अपनी साप्ताहिक रिपोर्ट में सही आँकड़े नहीं देता हो और आँकड़ों की यह गलती मुख्यालय तक पहुँचने तक बढ़ती जाती हो। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय स्तर पर आँकड़े एकत्र करने तक यह गलती और बड़ी बन जाती है। इस बारे में यह कहना तो मुश्किल है कि वन निरीक्षक जानबूझकर अधिकारियों को आग सम्बन्धी गलत आँकड़े देता है लेकिन लगता है कि ऐसा करते समय कहीं यह सोच जरूरी होती है कि आग की घटनाओं की संख्या अधिक बताने या बड़े क्षेत्र में आग की रिपोर्ट भेजने पर उसके खिलाफ कार्यवाही हो सकती है। तालिका-1
वर्ष 1991-94 के दौरान जंगल में आग की घटनाएँ

क्र.सं.

राज्य/केन्द्रशासित प्रदेश

1991-92

1992-93

1993-94

बड़ी घटनाएँ

1.

आंध्र प्रदेश

-

-

-

-

2.

अरुणाचल प्रदेश

1

2

2

3

3.

असम

-

-

-

-

4.

बिहार

7

15

10

-

5.

गोआ

4

-

-

-

6.

गुजरात

507

633

654

-

7.

हरियाणा

-

-

-

-

8.

हिमाचल प्रदेश

605

352

600

79

9.

जम्मू-कश्मीर

180

198

418

-

10.

कर्नाटक

106

16

-

1

11.

केरल

211

90

112

-

12.

महाराष्ट्र

1456

1428

-

-

13.

मध्य प्रदेश

629

371

461

34

14.

मणिपुर

2

4

6

-

15.

मिजोरम

-

-

-

-

16.

पंजाब

15

31

107

15

17.

तमिलनाडु

101

93

90

2

18.

त्रिपुरा

-

-

-

-

19.

उत्तर प्रदेश

602

482

258

-

20.

अंडमान निकोबार

-

-

-

-

21.

चण्डीगढ़़

-

-

-

-

22.

दादरा नागर हवेली

13

33

23

-

23.

दमन दीव

-

-

-

-

24.

लक्षद्वीप

-

-

-

-

25.

पांडिचेरी

-

-

-

-

26.

दिल्ली

1

1

1

-

 

कुल

4440

3749

1500

134

स्रोत- पर्यावरण और वन मन्त्रालय

 


तालिका से स्पष्ट है कि मध्य प्रदेश, कर्नाटक, पंजाब, तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश को छोड़कर किसी और राज्य में कोई बड़ी जंगल की आग की घटना नहीं हुई। कुछ राज्यों जैसे आन्ध्र प्रदेश, असम, त्रिपुरा में तो ऐसी एक भी घटना नहीं हुई। लगातार तीन वर्षों तक जंगल में कोई आग लगी ही न हो, यह सोचा नहीं जा सकता है। कोई भी वन वैज्ञानिक इस पर विश्वास नहीं कर सकता। इससे भी साफ पता चलता है कि वन के कर्मचारी सच्चाई स्वीकार करने में डरते हैं। इन आँकड़ों से वानिकी के लिए जहाँ धन का अावंटन कम हो जाता है वहीं दूसरे नुकसान भी उठाने पड़ते हैं। यदि आग दुर्घटनाओं की वार्षिक समीक्षा की जाए तो उत्तर प्रदेश में ही हर चौथे वर्ष वन आग की बड़ी दुर्घटना होती है। उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ वर्षों की आग दुर्घटनाओं की सूची दी गई है।

तालिका-2
जंगल की आग से प्रभावित क्षेत्र(वर्ग कि.मी. में)

वर्ष

कुमाऊँ डिवीजन

गढ़वाल डिवीजन

कुल

1984

460

622

1122

1985

50

654

714

1986

22

5

27

1987

102

64

166

1988

314

49

363

1989

3

187

190

1990

129

5

134

1991

135

142

277

1992

208

151

359

1993

7

11

18

1994

54

6

60

1995

334

597

931

स्रोतः उत्तर प्रदेश वन आग बचाव परियोजना

 


बचाव और नियन्त्रण


जंगल की आग की घटनाओं को रोकने और उन पर नियन्त्रण पाने के लिए निम्न उपाय किए जाते हैं:-

(क) बचाव- आग लगने से पूर्व निम्न सावधानियाँ बरती जाती हैं-

1. सीमित रूप में खरपतवार जलाना,
2. वन सीमा को साफ रखना।

(ख) नियन्त्रण- आग शुरू होने के बाद उस पर नियन्त्रण के लिए निम्न उपाय किए जाते हैं:-

1. आग का पता लगाना,
2. ठीक जानकारी प्राप्त करना,
3. आग को बुझाने के प्रबन्ध करना।

मौजूदा स्थिति


जंगल में लगने वाली आग दुनियाभर की समस्या है। लेकिन हमारे मामले में एक अन्तर यह है कि हमने वन प्रबन्ध की गतिविधियों को कोई प्राथमिकता नहीं दी है। समय के साथ वित्तीय आयोजना में आए बदलाव के साथ ही वानिकी आयोजना की अवधारणा भी बदली है। पहले वन सम्बन्धी लगभग सभी गतिविधियों के लिए गैर-आयोजना व्यय से धन मिलता था लेकिन इसके बाद वन क्षेत्र के लिए योजना व्यय से आवंटन शुरू होने के बाद वन के रख-रखाव की बात भुला दी गई। इसमें कई चीजें शामिल थी। आग से बचाव भी इसमें से एक गतिविधि थी। यही नहीं, बाद की पंचवर्षीय योजनाओं में विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों के बीच प्रतिस्पर्द्धा होने से वानिकी के लिए धन के आवंटन में कमी होती गई। पहले कभी सीमित मात्रा में घास-फूस को जलाना और वन सीमा को स्पष्ट रेखांकित करना वन कर्मचारी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होता था। इसके लिए निर्धारित समय-सारणी होती थी और कभी भी उस सारणी को अनदेखा नहीं किया जाता था। समय के साथ रोजगार के अवसर बढ़ाने हेतु मेहनत मजदूरी वाला क्षेत्र मानकर वानिकी में जरूरत से ज्यादा लोगों को भर्ती किया जाता रहा। इससे ज्यादातर योजना राशि कर्मचारियों के वेतन-भत्ते या फिर कार्यालय सम्बन्धी खर्चों में निकल गई। बढ़ती हुई आबादी के साथ इस तरह की समस्याओं का होना स्वाभाविक है लेकिन किसी संगठन की निर्वहन क्षमता और उसकी सतत विकास की क्षमता को देखते हुए ही इस बारे में निर्णय लेना होगा। यह देखना होगा कि कहाँ तक यह ठीक है। आज इस सबसे एक नई तरह की सामाजिक आर्थिक समस्या पैदा हो गई है। जो धनराशि कार्य विशेष के लिए खर्च की जानी चाहिए थी वह कहीं और खर्च हो रही है।

केन्द्रीय योजना


जंगल में लगने वाली आग के दुष्प्रभाव को केन्द्रीय स्तर पर 1984 में गम्भीरता से लिया गया। इस साल उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के चुने हुए क्षेत्रों में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की परियोजना ‘वन आग नियन्त्रण के आधुनिक तरीके’ के क्रियान्वयन के फलस्वरूप ऐसा हुआ। मुख्य रूप से इस परियोजना का उद्देश्य जंगल की आग का पता लगाना, उस पर नियन्त्रण पाना, उससे बचाव के तरीके निकालना और उनका परीक्षण और प्रदर्शन करना था। यह परियोजना प्रायोगिक तौर पर वर्ष 1990-91 तक चलती रही। उसके बाद संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के तहत दी जाने वाली सहायता बन्द हो गई। 1984 से 1990 के दौरान परियोजना के लिए संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम से कुल 5,106,567 अमेरिकी डाॅलर की राशि मिली और हमारी सरकार ने भी इसके लिए 89 लाख 94 हजार रुपये की राशि दी। इन दोनों ही परियोजनाओं के परिणाम उत्तर प्रदेश में हल्द्वानी, पिथौरागढ़ और नैनीताल में, तथा महाराष्ट्र में चन्द्रपुर में काफी प्रभावी रहे।

तालिका-3
उत्तर प्रदेश में परियोजना का क्रियान्वयन
(हलद्वानी, नैनीताल, पिथौरागढ़)
परियोजना का कुल क्षेत्र = 3,72,693 हेक्टेयर

वर्ष       

जला हुआ क्षेत्र (प्रतिशत में)

1984

4.24%

1987

1.26%

1988

1.31%

1989

2.90%

1990

0.43%

 


महाराष्ट्र (चन्द्रपुर) में परियोजना का क्रियान्वयन परियोजना क्षेत्र = 1,62,844 हेक्टेयर

वर्ष       

जला हुआ क्षेत्र (प्रतिशत में)

1984

14.82%

1986

9.12%

1987

3.76%

1988

2.06%

1989

1.86%

1990

1.00%

स्रोत : पर्यावरण और वन मन्त्रालय

 


उक्त तालिका से वन की आग से बचाव जैसे कार्यक्रमों के महत्व का पता चलता है। साथ ही यह भी मालूम होता है कि जंगल की आग से बचाव और उसको रोकने में यह कार्यक्रम कितना उपयोगी है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र की इस परियोजना के 1990-91 में बन्द हो जाने के बाद पर्यावरण और वन मन्त्रालय ने वन की आग से बचाव और नियन्त्रण सम्बन्धी योजना को देशभर में लागू करने की जरूरत पर कोई विचार नहीं किया जबकि इस बारे में समय-समय पर विभिन्न स्तरों पर चिन्ता व्यक्त की जाती रही है। यहाँ यह बता देना उचित होगा कि संयुक्त राष्ट्र का यह कार्यक्रम पहले दो राज्यों में शुरू किया गया था लेकिन बाद में इसे पाँच राज्यों में लागू करने की सम्भावना बन गई।

कार्यक्रम की कमियाँ


जंगल की आग पर नियन्त्रण पाने की आधुनिक योजना के मुख्य रूप से दो भाग थे। पहला, केन्द्रीय क्षेत्र की योजना के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की सहायता से मिले हेलीकॉप्टरों की मरम्मत करना और दूसरा, आग से बचाव सम्बन्धी कार्य केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजना के तहत चलाना। दोनों भागों के लिए आवंटित राशि और खर्च का ब्यौरा दिया गया है।

तालिका-4
केन्द्रीय और केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजना के तहत आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान आवंटन (लाख रुपये में)

 

आवंटन/व्यय

वर्ष

आवंटन

केन्द्रीय क्षेत्र की योजना

केन्द्र प्रायोजित योजना

कुल

1992-93

100

56.08

74.28

130.36

1993-94

100

54.60

123.88

178.48

1994-95

100

45.00

255.00

300.00

1995-96

100

55.00

345.00

400.00

1996-97

100

75.00

525.00

600.00

 

500

285.68

1323.16

1608.00

स्रोत: पर्यावरण और वन मन्त्रालय

 


तालिका-4 के विश्लेषण से पता चलता है कि दो करोड़ 85 लाख 68 हजार रुपये की राशि दो हेलीकॉप्टरों पर खर्च की गई। वन और पर्यावरण मन्त्रालय के अनुसार इन हेलीकॉप्टरों से आग बुझाने, वनों का निरीक्षण करने और वृक्षारोपण वाले क्षेत्र पर नजर रखने का काम लेना था लेकिन अनुभव से यह पता चलता है कि आग बुझाने में हेलीकॉप्टरों का प्रयोग उपयुक्त नहीं है क्योंकि इससे समस्या हल होने के बजाय और बढ़ती है। हेलीकॉप्टर के नीचे एक पानी की टंकी बनी होती है और इनसे जंगलों में जलते हुए क्षेत्र पर पानी छिड़का जाता है लेकिन इन पर आने वाला खर्च, गर्मियों में पानी की उपलब्धता और कम ऊँचाई पर उड़ने का खतरा कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो भारतीय परिप्रेक्ष्य में इनका प्रयोग बहुत मुश्किल और गैर-प्रभावी बना देते हैं। इसलिए यदि शुरुआत में ही सभी पहलुओं पर विचार कर लिया जाता और योजना ठीक से बनाई जाती तो हेलीकॉप्टरों के ऊपर आने वाली लगभग कुल परियोजना की 29.19 प्रतिशत राशि को कहीं और बेहतर ढँग से प्रयोग में लाया जा सकता था। इस राशि से आग बुझाने वाले दस्ते को तुरन्त दुर्घटना स्थल पर ले जाने के लिए वाहन खरीदे जा सकते थे। आग का शीघ्र पता लगाने के लिए वायरलैस का जाल बिछाने और आग बुझाने के उपकरणों की खरीद में भी इसका उपयोग किया जा सकता था। हेलीकॉप्टरों का प्रयोग प्रायः महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों को लाने-ले जाने में किया जाता रहा है और वास्तविक कार्य के लिए अक्सर उनका प्रयोग नहीं हुआ है। 1995-96 में उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों में लगी आग को देखते हुए पर्यावरण और वन मन्त्रालय को बिना लापरवाही किए शीघ्र एक विस्तृत कार्ययोजना तैयार करनी चाहिए।

विकेन्द्रीकरण


किसी भी पहाड़ी जंगल में आग के फैलाव को रोकने के लिए आग को एक क्षेत्र में सीमित रखना, प्रभावित क्षेत्र को अलग-अलग खण्डों में बाँटना, पर्याप्त पानी का भंडार रखना, वायरलैस के जरिए कर्मचारियों का आपसी सम्पर्क और सड़क के रास्ते तेजी से पहुँचने वाला आग बुझाने वाला दस्ता जरूरी है। ये सभी सुविधाएँ खण्ड स्तर के वन अधिकारी को उपलब्ध होनी चाहिए न कि ‘फारेस्ट कन्जरवेटर’ के स्तर पर, जैसा कि उत्तर प्रदेश में है। वहाँ आग बुझाने का मुख्यालय हल्द्वानी में है। एसी स्थिति में यदि अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ या नैनीताल में आग लगती है तो उसको बुझाने के लिए आवश्यक व्यवस्था तुरन्त करना कभी सम्भव नहीं हो पाता।

यदि उत्तर प्रदेश में वन-आग बचाव कार्यक्रम के तहत किए गए कार्यों का विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि परियोजना के आगे बढ़ने के साथ वेतन और भत्तों और कार्यालय पर होने वाला खर्च बचाव कार्य पर होने वाले खर्च के मुकाबले काफी बढ़ गया जैसा कि तालिका-5 में दिखाया गया है।
तलिका-5
वन आग नियन्त्रण और बचाव पर उत्तर प्रदेश मेंखर्च की गई राशि (लाख रुपये में)

वर्ष

कार्यालय और माशीनरी पर योजनागत खर्च

बचाव कार्य पर खर्च

1985-86

11.60

13.06

1986-87

19.96

81.45

1987-88

26.43

76.98

1988-89

32.83

53.62

1989-90

43.72

42.83

1990-91

6.58

58.95

1991-92

33.42

18.15

1992-93

34.88

16.58

1993-94

36.49

11.06

1994-95

38.72

10.82

स्रोत: पर्यावरण और वन मन्त्रालय

 


प्रायः वानिकी और वन्यजीव क्षेत्र में विदेशी सहायता से चलाए जा रहे कार्यक्रमों के बन्द होने के बाद कई परेशानियाँ खड़ी हो जाती हैं। इसका अच्छा उदाहरण उत्तर प्रदेश है जहाँ संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की परियोजना के बन्द होते ही दैनिक मजदूरी पर काम करने वाले लोग रातोंरात बेरोजगार हो गए। इस परियोजना के लिए केन्द्र सरकार और प्रदेश की राज्य सरकार से मिलने वाली राशि भी बंद हो गई। दैनिक मजदूरी वाले कर्मचारी न्यायालय गए और इस तर्क पर की उन्होंने लगातार कई वर्षों तक काम किया है, अपनी छँटनी पर रोक लगाने का आदेश ले आए। इस प्रक्रिया में इतनी बड़ी संख्या में धरने और हड़तालें होती रही कि हल्द्वानी स्थित आग बुझाने के मुख्यालय में कई महीनों तक काम ठप्प रहा। दूसरी बात यह कि परियोजना के दौरान तैयार व्यवस्था उपयुक्त रख-रखाव के अभाव में धीरे-धीरे खत्म होने लगी।

वर्तमान स्थिति


देखा जाए तो आग से वनों को बचाने की व्यवस्था पूरे देश में बहुत नाजुक स्थिति में है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि ज्यादातर राज्यों में इस तरह की आग से बचाव या उस पर नियन्त्रण के लिए कोई नियमित योजना नहीं है। तालिका-6 में वन-आग बचाव और वन संरक्षण योजना के आवंटन का विवरण दिया गया है। ऐसा करते समय यह मान लिया गया है कि वन संरक्षण से वन आग बचाव अपने आप हो जाएगा।

1992 में रियो में हुए पृथ्वी सम्मेलन में जंगल में फैलने वाली आग से पैदा होने वाली विभिन्न समस्याओं पर विस्तार से चर्चा की गई और मसौदा 21 के पैरा 11.2 में इसका इस प्रकार उल्लेख है-

‘‘भूमि के अनियन्त्रित ह्रास और भूमि के दूसरे कामों में बढ़ते उपयोग, आदमी की बढ़ती जरूरतों, कृषि के विस्तार और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली प्रबन्ध तकनीक से दुनिया भर के वनों के लिए खतरा पैदा हो गया है। जंगल की आग पर नियन्त्रण पाने के अर्पाप्त साधन, चोरी-छिपे लकड़ी की कटाई को रोकने के प्रभावी उपाय और व्यापारिक गतिविधियों के लिए लकड़ी की कटाई आदि भी इसके लिए जिम्मेवार हैं। ज्यादा जानवर चराने, वातावरण में मौजूद प्रदूषण के घातक असर, आर्थिक प्रोत्साहन और अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों के लिए किए गए कुछ उपायों से भी इस खतरे को बढ़ावा मिला है। वनों के ह्रास से भूमि कटाव, जैव विविधता को नुकसान, वन्यजीव की कमी और जल स्रोतों का ह्रास हुआ है। इससे जीवन की गुणवत्ता और विकास के अवसरों में भी कमी आई है।’’

सुझाव


जंगल की आग से बचाव हमारे पूरे पर्यावरण के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है इसे सभी ने महसूस किया है और विभिन्न कमेटियों की रिपोर्टों में भी इसकी चर्चा हुई है।

खाद्य एवं कृषि संगठन के विशेषज्ञों के दल ने अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट में भारत में जंगल की आग की स्थिति को बहुत गम्भीर बताया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में जंगल की आग की स्थिति बहुत चिन्ताजनक है। आर्थिक और पारिस्थितिकी की दृष्टि से इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। वन कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने के पाठ्यक्रमों में सभी स्तरों पर आग से बचाव की तकनीक पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। आग पर नियन्त्रण के लिए कोई स्पष्ट योजना नहीं है और न ही इसकी जानकारी है। आग प्रबन्ध के प्रति ध्यान देने की अभी शुरुआत ही हो रही है और वन की अर्थव्यवस्था पर आग के प्रभाव के प्रति जागरुकता बहुत सीमित है। जंगल की आग पर यदि आँकड़े उपलब्ध हैं तो नाममात्र के हैं या विश्वास करने लायक नहीं हैं। ये सभी आँकड़े व्यवस्थित रूप से दर्ज नहीं हुए हैं। आग के मौसम की भविष्यवाणी करने की कोई व्यवस्था नहीं है। आग से खतरे का अनुमान, आग से बचाव और उसकी जानकारी के उपाय भी नहीं हैं। भारत को एक पूरी आग-प्रबन्ध व्यवस्था की जरूरत है जो राज्यों में संस्थागत रूप में उपलब्ध हो। इसके लिए प्रशिक्षण अनुसंधान और जागरुकता सम्बन्धी मदद केन्द्र से उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

वर्ष 1995 में उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी भागों में लगी आग के बाद वन मन्त्रालय द्वारा गठित आर.पी. खोसला समिति ने भी आग से बचाव के कई तरीके सुझाए हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं।

1. पहले की तरह अप्रैल, मई और जून के महीनों में आग पर निगरानी रखने के लिए पर्याप्त संख्या में कर्मचारी नियुक्त किए जाने चाहिए।

2. सीमित मात्रा में घास-फूस जलाने की सीमा रेखा का स्पष्ट रेखांकन जो धन की कमी की वजह से छोड़ दिया गया था, नियमित किया जाना चाहिए।

3. आग जलाने के काम को नियन्त्रित किया जाना चाहिए जिससे जंगल में पेड़ से गिरी चीड़ के पेड़ की पत्तियाँ इकट्ठी न होने पाएँ।

4. चीड़ की सुई जैसी पत्तियों के वैकल्पिक प्रयोग को सरकार द्वारा बढ़ावा दिया जाए। इससे जंगल में इन ज्वलनशील पत्तियों के फैलाव को रोकने में मदद मिलेगी।

5. वन विभाग के कर्मचारियों को वायरलैस के जरिए संचार के बेहतर साधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए ताकि वे जंगल की आग से निपटने और अनधिकृत रूप से पेड़ों को काटने के खिलाफ तुरन्त कार्रवाही कर सकें।

6. एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए तेज वाहन की व्यवस्था हो। इसके लिए पहाड़ी इलाकों में खण्ड वन अधिकारी (डी.एफ.ओ.) को एक अतिरिक्त जीप उपलब्ध कराई जाए।

7. आग को बुझाने के लिए आस-पास के गाँवों के लोग आएं या न आएं, हर हालत में जंगल से लकड़ी लेने का उनका अधिकार बनाए रखा जाए।

8. राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करें कि वनों की देखभाल और उनके संरक्षण के लिए वन विभाग को पर्याप्त धन उपलब्ध हो और यह राशि केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजना के जरिए उपलब्ध कराई जाए।

(लेखक योजना आयोग में उप-सलाहकार हैं।)

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