जोड़ने की ख़ामख़्याली

हम सारी प्रमुख नदियों को जोड़ने की बात तो कर रहे हैं, मगर यदि बांग्लादेश अपनी जमीन पर से लिंक नहर खोदने की अनुमति न दे तो आप गंगा और ब्रह्मपुत्र को कैसे जोड़ेंगे? यदि हम इन दो विशाल नदियों को भारत की धरती के जरिये ही जोड़ना चाहें, तो इसमें किस तरह की तकनीकी चुनौतियाँ होंगी और इसकी लागत क्या होगी? पूर्वी बिहार और पश्चिम बंगाल पहले से ही गंगा से अपर्याप्त जल आपूर्ति की शिकायत करते आ रहे हैं। तब क्या यह परियोजना उनकी शिकायतों में और इजाफा करके अन्तरप्रान्तीय विवादों को जन्म नहीं देगी? देश की सभी प्रमुख नदियों को जोड़ने के वाजपेयी सरकार के संकल्प पर यदि अमल किया गया, तो यह इतिहास में सहस्त्राब्दि की सनक के रूप में दर्ज होगा। ऐसा इसलिए कि यह योजना सारी इकॉलॉजिकल, राजनीतिक, आर्थिक एवं मानवीय लागत की अनदेखी करती है और इसका आकार अभूतपूर्व है।

दुनिया में कहीं भी आज तक इतने बड़े पैमाने की और इतनी पेचीदगियों से भरी परियोजना नहीं उठायी गयी है। प्रधानमंत्री तथा उनकी इस घोषणा पर मेजें थपथपाने वाले सांसद शायद सोचते हैं कि जब सड़कों का नेटवर्क बन सकता है, तो नदियों का क्यों नहीं?

इस सोच में देश के बुनियादी संसाधनों - मिट्टियों, नदियों, सागर-संगमों, पहाड़ों और जंगलों के प्रति और जलवायु की तमाम विविधताओं के प्रति नासमझी ही झलकती है।

यह सही है कि परिवहन की दृष्टि से नदियों के नेटवर्क की कल्पना करने वाले सर आर्थर काटन एक उम्दा इंजीनियर थे। इस बात में भी कोई सन्देह नहीं कि अस्सी के दशक में इसी विचार को सिंचाई एवं बिजली के मकसद से प्रस्तुत करने वाले केएल राव भी विश्वविख्यात इंजीनियर थे। मगर यह भी सही है कि कई मरतबा इंजीनियर व्यापक मुद्दों को अनदेखा कर देते हैं।

निर्णय लेने से पहले सरकार को कुछ अहम सवालों की जांच-पड़ताल करनी चाहिए थी - देश में वे कौन-से इलाके हैं जहाँ पानी उनकी जरूरतों से अधिक है? उत्तर-पूर्वी भारत की ब्रह्मपुत्र घाटी के अलावा क्या अन्य कोई ऐसा क्षेत्र है?

गंगा के पानी से पोषित जो प्रान्त बरसात में बाढ़ग्रस्त होते हैं, क्या वे गर्मियों में पानी के लिए नहीं तरसते? बाढ़ और सूखे के इस दुष्चक्र के पीछे बुनियादी कारण क्या हैं?

फिर, सिंचाई की प्रचलित धारणा कितनी सही है? धान और गन्ने के अलावा कौन-सी फसल है, जिसे इतना अधिक पानी चाहिए? क्या यह सही नहीं है कि अन्य फसलों को लबालब सिंचाई की नहीं बल्कि मात्र नमी की जरूरत होती है? क्या अत्यन्त किफायती सिंचाई के अलावा अन्य किस्म की सिंचाई से मिट्टी बरबाद नहीं होती? क्या एक ही साल में दो-तीन मरतबा धान उगाना लवणीयता और बंजरपन को न्यौता नहीं है?

हम सारी प्रमुख नदियों को जोड़ने की बात तो कर रहे हैं, मगर यदि बांग्लादेश अपनी जमीन पर से लिंक नहर खोदने की अनुमति न दे तो आप गंगा और ब्रह्मपुत्र को कैसे जोड़ेंगे? यदि हम इन दो विशाल नदियों को भारत की धरती के जरिये ही जोड़ना चाहें, तो इसमें किस तरह की तकनीकी चुनौतियाँ होंगी और इसकी लागत क्या होगी?

पूर्वी बिहार और पश्चिम बंगाल पहले से ही गंगा से अपर्याप्त जल आपूर्ति की शिकायत करते आ रहे हैं। तब क्या यह परियोजना उनकी शिकायतों में और इजाफा करके अन्तरप्रान्तीय विवादों को जन्म नहीं देगी? जब बांग्लादेश को पानी की आपूर्ति कम होगी, तो क्या वह इस मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नहीं उठायेगा?

क्या हम एकतरफा ढंग से गंगा के पानी के बंटवारे सम्बन्धी भारत-बांग्लादेश संधि को समाप्त कर सकते हैं? दिसम्बर, 1996 में हस्ताक्षरित इस सन्धि के तहत भारत ने वचन दिया है कि फरक्का पर पानी की मात्रा सुनिश्चित की जाएगी।

क्या नदियों को जोड़ने से प्रदूषण का फैलाव भी नहीं बढ़ेगा? क्या प्रायद्वीपीय भारत में चार-पांच साल तक लगातार ऐसा सूखा पड़ा है कि इन इलाकों की समस्या को हिमालय का पानी लाए बगैर नहीं सुलझाया जा सकता? और यदि हालत इतने ही खराब हैं तो हिमालय के ग्लेशियरों के सिकुड़ने की स्थिति को देखते हुए भविष्य में इस समस्या से कैसे निबटेंगे? सरकार लम्बे समय से नदी घाटीवार विकास कार्यक्रमों की बात करती रही है। क्या नदियों को जोड़ने की नयी योजना इस घाटीवार नजरिये के विरुद्ध नहीं है?

एक ओर तो देश स्थानीय जल स्वराज की अवधारणा - यानी पानी दोहन के विकेन्द्रित तरीके से सारी वैध जरूरतों की पूर्ति की अवधारणा को स्वीकार करने लगा है, वहीं दूसरी ओर यह विशालकाय योजना इस नयी जागरुकता के विरुद्ध काम करेगी।

‘पटना एक मात्र ऐसा बिन्दु है जहाँ अतिरिक्त पानी उपलब्ध है। यहाँ पर गंगा औसत समुद्र सतह से 200 फुट की ऊँचाई पर बहती है। यदि इसे प्रायद्वीप की किसी भी नदी से जोड़ना है, तो पानी को विन्ध्य शृंखला की ऊँचाई तक उठाना होगा यानी औसत समुद्र सतह से 2860 फुट ऊपर। 20,000 क्यूसेक पानी को इतनी ऊँचाई तक पम्प करने में देश में उस समय एक दिन में उत्पादित सारी बिजली खर्च होगी। बिजली की खपत उस समय 9 लाख मेगावाट आंकी गयी थी।

यदि हम यह मान लें कि अब उस योजना में संशोधन करके पानी को विन्ध्य पर्वत के ऊपर न ले जाकर एक लम्बे रास्ते से पर्वत के बाजू से ले जाया जाएगा, तो भी उसकी लागत अकल्पनीय होगी। बताया जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के सामने इसका जो आंकड़ा पेश किया गया, वह चकरा देने वाला है - 5,60,000 करोड़ रुपये।

दुनिया की कोई एजेन्सी इस परियोजना को फण्ड देने पर विचार तक नहीं करेगी। संशोधित योजना के अनुसार अरुणाचल प्रदेश में मानस से ब्रह्मपुत्र का पानी गंगा में लाया जाएगा, गंगा महानदी लिंक के प्रवाह को पश्चिम/उत्तर पूर्व से दक्षिणपूर्व में (गुरुत्व द्वारा) मोड़ा जाएगा और पर्वतों के दक्षिण में ले जाया जाएगा। इसके अलावा महानदी-गोदावरी लिंक के प्रवाह को पूर्व से दक्षिण पश्चिम/दक्षिण की ओर (गुरुत्व से) मोड़ा जाएगा। यह सब कागज पर तो बहुत अच्छा लगता है। यदि शेक्सपीयर की तर्ज पर कहें तो ‘नदी मोड़ के इंजीनियर महाशय, धरती और आसमान पर कई ऐसी चीजें हैं, जो आपने शायद सपने में भी न सोची होंगी।’इन इंजीनियरों को पूर्व सोवियत संघ की उस योजना का हश्र याद दिलाना लाजमी है, जिसके तहत साइबेरिया की नदियों के पिघलते बर्फ को मोड़ कर मध्य एशियाई गणतन्त्रों की नदियों तक पहुंचाने के मंसूबे थे। यह योजना बुरी तरह नाकाम रही थी, क्योंकि जहाँ कहीं भी नहर बनी, वहाँ नमकीन पानी की घुसपैठ हुई और कई अन्य पर्यावरणीय हादसे पेश आये।

अन्ततः 1980 के दशक में इस योजना को छोड़ना पड़ा। इसी प्रकार से कैलिफोर्निया (यूएसए) में भी दो नदियों को जोड़ने के प्रयास हानिकारक साबित हुए। इसकी वजह से भारी मात्रा में लवण का जमाव हो गया। इसके अलावा जब पानी समुद्र में नहीं पहुंचा तो तटवर्ती इकॉलोजी भी प्रभावित हुई।

मानव विस्थापन


एक मिनट के लिए मान लें तो इन सारे खतरों के बावजूद देश फैसला करता है कि नदियों को जोड़ना ही है। यदि ऐसा हुआ तो मानव विस्थापन के रूप में इसकी लागत भयानक होगी।

राम मनोहर रेड्डी के शब्दों में, ‘बैराजों के निर्माण तथा हजारों किलोमीटर नहरों की खुदाई में गांव गायब हो जाएंगे, शहर जलमग्न हो जाएंगे और लाखों हेक्टेयर कृषि भूमि खप जाएगी। यह योजना दसियों लाख लोगों को विस्थापित करेगी। विस्थापितों की तादाद विभाजन के दौरान हुए जन-स्थानान्तरण से कहीं ज्यादा होगी।’ इसकी एक लागत और भी है। कई नदियां खुली मल-जल नालियां बन चुकी हैं। नयी व्यवस्था में प्रदूषण नियंत्रण और भी मुश्किल हो जाएगा। तब कई और नदियों के बड़े-बड़े हिस्से नालियों में तब्दील हो जाएंगे।

समस्या की जड़


जाहिर है, कावेरी नदी के पानी को लेकर अन्तरप्रान्तीय विवाद ने नदी जोड़ो परियोजना में रुचि जगायी है, मगर उस विवाद की जड़ में अनुचित फसल प्रक्रियाएं और पारम्परिक वर्षाजल दोहन की कारगर प्रणालियों का उपयोग न होना है।

तंजौर के बड़े किसानों की जिद है कि तीन-तीन धान की फसलें लेंगे। धान की फसल में बहुत पानी लगता है। दूसरी ओर कर्नाटक में काण्ड्या के किसान गन्ने की फसल लेना चाहते हैं, जिसमें भी बहुत पानी लगता है। ये तौर-तरीके अन्यत्र भी नजर आते हैं, जैसे पंजाब के कम वर्षवाले इलाकों में धान उगाना और महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर गन्ना उगाना।

हमारे देखते-देखते भारत की उपजाऊ मिट्टियां बंजरपन की ओर बढ़ रही हैं। केन्द्र एवं राज्य सरकारें इस प्रक्रिया का संचालन कर रही हैं। अब वे बड़े किसानों की इस अदूरदर्षितापूर्ण मांग में फंस रही हैं कि सारी नदियों को जोड़ दिया जाए ताकि बड़े किसान ऐसी नगदी फसलें उगा सकें जो उनकी मिट्टी के लिए उपयुक्त नहीं है।

कृषि वैज्ञानिक आई सी महापात्र ने कर्नाटक एवं तमिलनाडु के लिए एक वैकल्पिक फसल पैटर्न सुझाया है, जिसमें पानी की खपत न्यूनतम होगी। यह वहाँ की मिट्टी को भी बचायेगा और किसानों की आमदनी के साथ-साथ लोगों की पोषणसम्बन्धी स्थिति भी सुधारेगा।

‘गैर-सिंचित (वर्षापोषित) क्षेत्रों में कर्नाटक के लोग रागी, ज्वार, बाजरा, चना, लाल चना, मूंगफली, अरण्डी और नारियल की फसलें अपना सकते हैं। सिंचित क्षेत्रों में गन्ना, मक्का, बैंगन, मिर्ची, शहतूत, टमाटर, आलू, हल्दी, अदरक, अंगूर, केले एवं पान की खेती की जा सकती है।

तमिलनाडु में नदी घाटी के 62 प्रतिशत भाग में साल में तीन बार धान उगाया जाता है- कुरवाई, तलादी और साम्बा। हमारा अध्ययन दर्शाता है कि साम्बा किस्म की एक ही फसल तलादी या कुरुवाई के मुकाबले ज्यादा उपज दे सकती है। धान के अलावा तमिलनाडु में रागी, मूंगफली, तिल, अरण्डी, चना, मटर, गन्ना और कपास अपनाये जाने चाहिए।

इस बात में कोई तुक नहीं है कि एक ओर तो हम दिवालिया करने वाली विशाल परियोजनाएं हाथ में लें तथा दूसरी ओर मौजूदा वर्षा जल दोहन की संरचनाओं को तहस-नहस होने दें, जबकि उनकी उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है। आज कर्नाटक में कम से कम 11 हजार पारम्परिक जल-संरचनाएं (टैंक, तालाब वगैरह) गाद से भर कर सूख चुकी हैं, क्योंकि किसानों ने इनकी देख-भाल करना बन्द कर दिया है।

तमिलनाडु में बड़ी संख्या में अद्भुत एरियां थीं, जिनकी कार्य-क्षमता दुनिया के विशेषज्ञों द्वारा सराही गयी हैं। ये अब उपेक्षित पड़ी हैं। इसके अलावा रेत खनन के जरिये तमिलनाडु अपनी कुछ नदियों की क्षमता का ह्रास कर रहा है। चेन्नई शहर में बहती कूम नदी एक गन्दा नाला बन गयी है। इससे जाहिर है कि राज्य ने अपनी नदियों की कितनी देखभाल की है।

भारत के जल-संसाधन की बुनियादी समस्या हिमालय के बर्फ से पोषित नदियों में गाद भरने की रफ्तार है, जो विश्व में सर्वाधिक है। इसके कारण नदियां उथली हो जाती हैं और उनमें संधारण क्षमता कम हो जाती है। इसकी वजह से पानी तेजी से समुद्र में बह जाता है।

इसी वजह से बारिश के दौरान बाढ़ और गर्मियों में सूखे पड़ते हैं। लिहाजा प्रमुख काम यह होना चाहिए कि नदियों की गाद हटाकर उन्हें गहरा किया जाए, नहरें फिर से खोदी जाएं, हिमालय में फिर से जंगल लगाये जाएं और नदी किनारों पर वृक्षारोपण किया जाए। नदियों को जोड़ने के चक्कर में ये बुनियादी काम छूट जाएंगे।

सरकार को पहले यह अध्ययन करना चाहिए: (1) किस जलवायु में कौन-सी फसलें उपयुक्त या अनुपयुक्त हैं, (2) पोषण के हिसाब से कौन-कौन सी फसलों का मिला-जुला उपयोग होना चाहिए और (3) इनके लिए किस तरह की सिंचाई/निकास उपयुक्त होंगे।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading