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कागज

कागज पौधों में सेल्यूलोस नामक एक संकीर्ण कार्बोहाइड्रेट होता है जो पौधों की कोशिकाओं की भित्ति बनाता है। कोशिकाएँ जीव की इकाइयाँ होती हैं। अत: सेल्यूलोस पौधों के पंजर का मुख्य पदार्थ है।

सेल्यूलोस के रेशों को परस्पर जुटाकर एकसम पतली चद्दर के रूप में जो वस्तु बनाई जाती है उसे कागज कहते हैं। कागज मुख्य रूप से लिखने और छपाई के लिए प्रयुक्त होता है।

कोई भी पौधा या पदार्थ, जिसमें सेल्यूलोस अच्छी मात्रा में हो, कागज बनाने के लिए उपयुक्त हो सकता है। रुई लगभग शुद्ध सेल्यूलोस है, किंतु कागज बनाने में इसका उपयोग नहीं किया जाता क्योंकि यह महँगी होती है और मुख्य रूप से कपड़ा बनाने के काम में आती है।

परस्पर जुटकर चद्दर के रूप में हो सकने का गुण सेल्यूलोस के रेशों में ही होता है इसी कारण कागज केवल इसी से बनाया जा सकता है। रेशम और ऊन के रेशों में इस प्रकार परस्पर जुटने का गुण न होने के कारण ये कागज बनाने के काम में नहीं आ सकते। जितना अधिक शुद्ध सेल्यूलोस होता है, कागज भी उतना ही स्वच्छ और सुंदर बनता है। कपड़ों के चिथड़े तथा कागज की रद्दी में लगभग शत प्रतिशत सेल्यूलोस होता है, अत: इनसे कागज सरलता से और अच्छा बनता है। इतिहासज्ञों का ऐसा अनुमान है कि पहला कागज कपड़ों के चिथड़ों से ही चीन में बना था।

पौधों में सेल्यूलोस के साथ अन्य कई पदार्थ मिले रहते हैं, जिनमें लिग्निन और पेक्टिन पर्याप्त मात्रा में तथा खनिज लवण, वसा और रंग पदार्थ सूक्ष्म मात्राओं में रहते हैं। इन पदार्थों को जब तक पर्याप्त अंशतक निकालकर सूल्यूलोस को पृथक रूप में नहीं प्राप्त किया जाता तब तक सेल्यूलोस से अच्छा कागज नहीं बनाया जा सकता। लिग्निन का निकालना विशेष आवश्यक होता है। यदि लिग्निन की पर्याप्त मात्रा में सेल्यूलोस में विद्यमान रहती है तो सेल्यूलोस के रेशे परस्पर प्राप्त करना कठिन होता है। आरंभ में जब तक सेल्यूलोस को पौधों से शुद्ध रूप में प्राप्त करने की कोई अच्छी विधि ज्ञात नहीं हो सकी थी, कागज मुख्य रूप से फटे सूती कपड़ों से ही बनाया जाता था। चिथड़ों तथा कागज की रद्दी से यद्यपि कागज बहुत सरलता से और उत्तम कोटि का बनता है, तथापि इनकी इतनी मात्रा का मिल सकना संभव नहीं है कि कागज़ की हामरी पूरी आवश्यकता इनसे बनाए गए कागज से पूरी हो सके। आजकल कागज बनाने के लिए निम्नलिखित वस्तुओं का उपयोग मुख्य रूप से होता है : चिथड़े, कागज की रद्दी, बाँस, विभिन्न पेड़ों की लकड़ी, जैसे स्प्रूस और चीड़, तथा विविध घासें जैसे सबई और एस्पार्टो। हमारे देश में बाँस और सबई घास का उपयोग कागज बनाने में लिए मुख्य रूप से होता है।

कागज बनाने की पूरी क्रिया के कई अंग हैं :-(1) सेल्यूलोस की लुगदी (pulp) बनाना, (2) लुगदी को विरंजित करना और इसके रेशों को आवश्यक अंश तक महीन और कोमल करना तथा (3) अंत में लुगदी को चद्दर के रूप में परिणत करना।

लुगदी बनाना


चिथड़ों से लुगदी बनाना : सूती कपड़ों के चिथड़ों को झाड़कर उनकी धूल निकालने के बाद उनमें मिले पत्थर के टुकड़ों और उनमें लगे बटन तथा हुक आदि निकाल दिए जाते हैं। रेशम, ऊन तथा कृत्रिम रेशम के टुकड़ों को भी छाँटकर निकाल दिया जाता है। इसके बाद चिथड़ों को गोलाई से घूमनेवाले कर्तक (rotary cutter) द्वारा लगभग एक-एक इंच छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है और फिर से एक ऐसे बेलनाकार बर्तन में डालकर घुमाया जाता है जिसमें तार का जाला लगा रहता है। यहाँ टुकड़ों का धूल झड़कर जाले के नीचे घिर जाती है। अब टुकड़ों को गोल या लंबे बेलनाकार लोहे के वाष्पित्रों (boilers) में भर दिया जाता है। वाष्पित्र में चिथड़ों से तुगना पानी भरकर इसमें दाहक सोडे की उपयुक्त मात्रा घुला दी जाती है। साधारणत: कपड़ों में लगे रंग, माँड़ों, गंदगा आदि का ध्यान रखते हुए दाहक सोडे की मात्रा, कपड़े के भार के हिसाब से, एक प्रतिशत से दस प्रतिशत तक रखी जाती है। थोड़ा सोडियम सिलिकेट भी प्राय: डाल दिया जाता है। अब वाष्पित्र को 20 से 50 पाउंड दाब की भाप द्वारा गर्म कर, टुकड़ों को भीतर भरे विलयन में आवश्यकतानुसार 2 से 12 घंटे तक उबाला जाता है। दाहक सोडा सेल्यूलोस में उपस्थित अपद्रव्यों को घुला देता है।

उबालने के बाद दाहक (कास्टिक) सोडा द्राव को बहाकर वाष्पित्र में से निकाल दिया जाता है और चिथड़ों को वाष्पित्र में ही कई बार गर्म पानी से धोया जाता है। इस फेंके गए द्राव में से दाहक सोडे को पुन: प्राप्त करने का प्रबंध भी कारखानों में रहता है। अब वाष्पित्र में से टुकड़ों को एक आयताकार बड़ी नाँद में पहुँचाया जाता है और साथ इसमें पर्याप्त पानी भर दिया जाता है। इस नाद में लोहे के बहुत से छड़ इस पकार लगे रहते हैं कि घूमने पर वे पकड़े के टुकड़ों को रगड़ते और मसलते हैं। टुकड़ों की रगड़न और मसलने की क्रिया के बीच-बीच में नाँद का पानी निकालकर इसमें नया साफ पानी डालते रहते हैं। इस प्रकार नाँद में कपड़े के टुकड़े मसले जाकर और फिर पानी से धुलकर स्वच्छ लुगदी से रूप में परिणत हो जाते हैं।

बाँस, एस्पार्टों तथा सबई घास से लुगदी बनाना : इन वस्तुओं को कर्तक द्वारा छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर इस्पात के बने पाच यंत्र (digester) में भर दिया जाता है और फिर इसमें 25 प्रतिशत दाहक सोडा विलयन का चार गुना भाग, जिसमें थोड़ा सोडियम सल्फ़ाइड भी घुला रहता है, डालकर 45 पाउंड की दाब की भाप द्वारा लगभग 5 घंटे तक उबाला जाता है, बाँस तथा घास की उपस्थित लिग्निन, पेक्टिन तथा अनन्य अपद्रव्य दाहक सोडा विलयन में घुल जाते हैं और विलयन का रंग काला हो जाता है। इस विलयन को अब 'काला द्राव' (black liquor) कहते हैं। लिग्नन और पेक्टिन आदि के निकल जाने के बाद सेल्यूलोस के रेशे मुक्त होकर लुगदी के रूप में परिणत हो जाते हैं। उबालने की क्य्रााि की समाप्ति पर काले द्राव को पाचक यंत्र से बाहर निकाल दिया जाता है और लुगदी को गर्म पानी से कई बार धोया जाता है। सोडा मूल्यवान्‌ पदार्थ है, अत: काले द्राव में से पुन: दाहक सोडा प्राप्त किया जाता है और इसी को फिर नया विलयन बनाने के काम में लाया जाता है।

लकड़ी से लुगदी बनाना : (क) सल्फ़ेट विधि- यह विधि मुख्य रूप से चीड़ की जाति की लकड़ियों के लिए उपयोग में आती है और इसके बाँधने के काम में आनेवाला कागज (kraft paper) बनाया जाता है। इस विधि के लिए सोडियम सल्फ़ेट का विलयन, जिसमें थोड़ा दाहक सोडा भी घुला रहता है, उपयुक्त होता है। छाल निकालने के बाद लकड़ी को लगभग आधे इंच छोटे टुकड़ों में काटकर और इस्पात के बने पाचक यंत्रों में भरकर दाहक सोडा मिश्रित सोडियम सल्फ़ेट विलयन के साथ लगभग 5 घेंटे तक 100-120 पाउंड दाब पर उबाला जाता है। लकड़ी में उपस्थित लिग्निन तथा अन्य अपद्रव्य क्षारीय सोडियम सल्फ़ेट विलयन में घुल जाते हैं और सेल्यूलोस लुगदी के रूप में बच रहता है। उबालने की क्य्रााि के बाद बचे काले द्राव को अलग निकाल दिया जाता है और लुगदी को कई बार पानी से धो लिया जाता है। इस काले द्राव में से सोडियम सल्फ़ेट और दाहक सोडे को पुन: प्राप्त किया जाता है, जिससे खर्च में कमी हो जाती है।

इस विधि में उबालने का द्राव क्षारीय होता है, इस कारण यह द्राव लकड़ी में उपस्थित रोज़िन और अम्लों को घुला लेता है। अत: इस द्राव की सहायता से ऐसी लकड़ियाँ लुगदी में परिवर्तित की जा सकती हैं जिनमें रोज़िन बहुत रहता है। इस कारण यह विधि इन्हीं लकड़ियों के लिए उपयुक्त होती है।

सल्फ़ेट विधि में एक कठिनाई यह है कि लिग्निन पदार्थ द्राव में पूर्ण रूप से नहीं घुलता, जिसके फलस्वरूप लुगदी को विरंजित करने में कठिनाई होती है और इस कारण इस विधि द्वारा सफेद कागज बनाना संभव नहीं होता। इसीलिए यह विधि क्रेफ्ट कागज बनाने के लिए ही मुख्य रूप से उपयुक्त होती है। लिग्निन की कुछ मात्रा के बचे रहने के कारण इस विधि से बनाया गया क्रैफ्ट कागज बहुत चिमड़ा और मजबूत होता है।

(ख) सल्फ़ाइट विधि- इस विधि में लकड़ी के टुकड़ों को कैल्शियम और मैग्नेशियम बाइसल्फ़ाइड के विलयन में उबाला जाता है। विलयन निम्नांकित विधि से बनाया जाता है :

गंधक अथवा लौह माक्षिक (iron pyrites) को वायु में जलाकर सल्फ़र डाइ-ऑक्साइड गैस बनाई जाती है और बनते ही इस गैस को तुरंत ठंडा कर साधारण ताप पर लाया जाता है। फिर इस गैस को चूने का पत्थर भरकर एक मीनार में नीचे से ऊपर की ओर प्रवाहित किया जाता है। इसी समय मीनार में ऊपर से पानी भी बहुत धीमी गति से फुहारों द्वारा गिराया जाता है। सल्फ़र डाइ-ऑक्साइड जब नीचे से ऊपर की आता है तब ऊपर से गिरनेवाले इस पानी में घुलकर सल्फ़ृयूरस अम्ल बनाता है। यह अम्ल तुरंत चूने के पत्थर में थोड़ा, मैग्नीशियम कार्बोनेट भी अपद्रव्य के रूप में उपस्थित रहता है। सल्फ़्यूरस अम्ल की इसपर भी अभिक्रिया होती है, जिसके फलस्वरूप मैग्नीशियम बाई-सल्फ़ाइट भी बनता है। इस प्रकार कैलसियम और मैग्नीशियम बाइ-सल्फ़ाइट का एक विलयन प्राप्त होता है।

जिस लकड़ी से लुगदी बनानी होती है उसकी छाल निकालने के बाद उसे लगभग आधा इंच छोटे टुकड़ों में काटकर इस्पात के बने पाचक यंत्र में भर दिया जाता है और फिर इसमें पूर्वोक्त विधि से बनाए गए कैल्शियम और मैग्नीशियम बाइ-सल्फ़ाइट विलयन की उपयुक्त मात्रा भी भरी दी जाती है। अब इस विलियन में लकड़ी को 130-135 सें. ताप पर लगभग 20-30 घंटे तक उबाला जाता है। लकड़ी में उपस्थित लिग्निन, पेक्टिन तथा अन्य पदार्थ बाई-सल्फ़ाइट विलयन में घुल जाते हैं और सेल्यूलोस लुगदी के रूप में बच रहता है। जब क्रिया पूरी हो जाती है तो विलयन को निकालकर अलग कर दिया जाता है और लुगदी को पानी से धो लिया जाता है।

लुगदी को विरंजित करना- जिस पेड़ की लकड़ी या पौधे ये लुगदी बनाई जाती हे उसमें उपस्थित रंग के कारण लुगदी में कुछ रंग रहता है। क्रैफ्ट कागज बनाने के लिए लुगदी को बिना विरंजित किए ही उपयोग में लाया जाता हे, किंतु अच्छा सफेद कागज बनाने के लिए लुगदी को विरंजित कर उसे सफेद करना आवश्यक होता है।

विरंजन की क्रिया में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि लुगदी का रंग तो निकल जाए, किंतु सेल्यूलोस पर विरंजक का कोई हानिकारक प्रभाव न पड़े। इस काम के लिए साधारण रीति से कोई आम्लिक विरंजक या क्लोरीन का उपयोग किया जाता है। अम्लिक विरंजक तथा क्लोरीन लुगदी में उपस्थित लिग्निन को तथा रंग पदार्थ को ऐसे यौगिक में परिणत कर देते हैं जो पानी में तो अविलेय होते हैं, किंतु दाहक सोडे या सोडियम सल्फ़ाइट विलयन में विलेय होते हैं। इन विरंजकों का सेल्यूलोस पर कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता। अत: लुगदी को इनके द्वारा उपचारित करने और फिर दाहक सोडा या सोडियम सल्फ़ाइट विलयन द्वारा निष्कर्षित करने पर लुगदी में उपस्थित अधिकांश लिग्निन और रंग पदार्थ बिना सेल्युलोस को कोई हानि पहुँचाए निकल जाते हैं। विरंजित करने के बाद लुगदी को पानी से कई बार धो लिया जाता है।

लुगदी को पीटकर तथा कोमल बनाकर कागज बनाने के उपयुक्त बनाना- विरंजित करने और धोने के बाद लुगदी को पीटक (beater) में भेजा जाता है। पीटक एक अंडाकर नाँद होती है, जिसमें लोहे का एक बेलन, पट्ट तथा कई डंडे लगे रहते हैं। जब बेलन घूमता है तो लुगदी खिंचकर डंडों के बीच में बेलन पर आ जाती है। बेलन की घूमने से लुगदी विच्छिन्न हो जाती है और इसके सेल्युलोस के रेशे टूटकर छोटे हो जाते हैं। सेल्यूलोस के रेशों को जितना महीन करने की आवश्यकता होती है उतना महीन उन्हें पीटक में कर लिया जाता है। जिस प्रकार का कागज बनाना होता है उसी के अनुसार लुगदी के रेशों को महीन किया जाता है। रेशे जितने महीन होते हैं वे उतने ही घने और मजबूत ढंग से परस्पर जुटकर कागज की चद्दर बनाते हैं।

पीटक में जब पीटने की क्रिया होती रहती है तभी जो भी रंग आदि मिलाना होता है लुगदी में मिला दिया जाता है। यहीं पर लुगदी में चीनी मिट्टी तथा टाइटेनियम डाइ-ऑक्साइड आदि पूरक (filler) भी मिलाए जाते हैं। चीनी मिट्टी से कागज में चिकनापन आता है और टाइटेनियम डाइ-आक्साड से कागज में अधिक सफेदी तथा पारांधता आती है।

पूर्वोक्त विधि द्वारा प्राप्त लुगदी बनाने पर उसमें महीन रध्रं रहते हैं, जिनमें पानी शोषित करने का गुण होता है। अत: ऐसे कागज पर स्याही फैलती है। इस कारण लिखने का कागज बनाने के लिए कुछ ऐसे पदार्थों का व्यवहार किया जाता है जो कागज के रंध्रों को भरकर सतह को चिकना कर देते हैं। इन पदार्थों को सज्जीकारक कहते हैं और इनके द्वारा रध्रंहीन बनाने की क्रिया को सज्जीकरण (siging) कहते हैं।

जिलैटिन का उपयोग सज्जीकारक के रूप में हाथ का कागज बनाने के लिए बहुत प्राचीन काल से होता आया है। जिलैटिन द्वारा सज्जीकरण करने में कागज के ताव (sheet) को जिलैटिन के एक पतले विलयन में डुबोकर हवा में सूखने के लिए लटका दिया है। इससे जिलैटिन की एक महीन पर्त कागज की सतह पर जम जाती है जिसके कारण कागज के रध्रं भर जाते हैं और स्याही कागज पर नहीं फैलती। जिलैटिन की परत का एक लाभ यह भी होता है कि यह कागज के ताव को पुष्टता भी प्रदान करती है। सज्जीकरण की यह रीति हिसाब लिखनेवाला पुष्ट और टिकाऊ कागज बनाने में आज भी उपयुक्त होती है। जिलैटिन महँगा पदार्थ है; इस कारण साधारण प्रकार का कागज बनाने के लिए अन्य सस्ते सज्जीकारक उपयोग में लाए जाते हैं, जिनमें रोज़िन अधिक प्रचलित है। रोज़िन सज्जीकारक निम्नलिखित प्रकार से बनाया जाता है-

रोज़िन को क्षार विलयन की सीमित मात्रा से उपचारित कर पहले एक सफेद पायस (इमल्शन) के रूप में परिणत कर लिया जाता है और फिर इस पायस को पीटक में ही लुगदी में मिला दिया जाता है। इसके बाद लुगदी में फिटकरी की उपयुक्त मात्रा मिलाकर अभिक्रिया को थोड़ा आम्लिक रखा जाता है (पीएच 4 और 6 के बीच में)। फिटकरी मिलाने पर एक महीन अवक्षेप बनता है जो रोज़िन, ऐल्यूमिना और भास्मिक ऐल्यूमिनियम सल्फ़ेट का मिश्रण होता है। यह अवक्षेप सेल्यूलोस के रेशों की सतह पर दृढ़ता से चिपक जाता है और सेल्यूलोस को पानी के प्रति प्रतिसारक (repellent) बनाता है, जिसके फलस्वरूप इस लुगदी से बनाए गए कागज पर स्याही नहीं फैलती।

लुगदी को कागज में परिवर्तित करना- पीटक में लुगदी को पूर्वोक्त विधि से उपयुक्त रूप में तैयार कर लेने पर कागज बनाने के लिए इसे केवल इच्छित मोटाई की चद्दर के रूप में परवर्तित करना होता है। यह कार्य हाथ या मशीन द्वारा होता है। हाथ से यह काम करने के लिए लकड़ी का बना एक आयताकार चौखटा लिया जाता है जिसपर उपयुक्त बारीकी की जाली जड़ी रहती है। जिस नाप का कागज बनाना होता है उसी नाप का चौखटा लेना पड़ता है। जाली के ऊपर एक अन्य चौखटा बैठता है जिसकी ऊँचाई लगभग आध इंच होती हे। यह चौखटा जाली पर से हटाकर अलग किया जा सकता है। लुगदी कोपानी में फेंटकर एक पतला आलंबन बनाया जाता है। फिर चौखटे को इसआलंबन में डुबाकर ऊपर उठा लिया जात है। दूसरे चौखटे की ऊँचाई के अनुसार, लुगदी की एक नियत मात्रा इस प्रकार चौखटे की जाली पर पानी सहित आ जाती है। चौखटे को ऊपर उठाने पर पानी तो नीचे गिर जाता है, किंतु लुगदी जाली पर एक चद्दर के रूप में बच रहती है। जिस समय लुगदी के आलंबन का पानी चौखटे की जाली में से गिरता रहता है उस समय चौखटे को थोड़ा हिलाते भी रहते हैं, जिससे सेल्यूलोस के रेशे परस्पर मिलकर ठीक से जुट जाएँ। जब सारा पानी टपककर निकल जाता है तब ऊपरी चौखटा हटाकर नीचे के चौखटे को एक गीले फ़ेल्ट की चद्दर पर उलटकर कागज का ताव फ़ेल्ट पर उतार दिया जाता है। नीचेवाले चौखटे ऊपरी चौखटा लगाकर, फिर पहले की भाँति लुगदी के आलंबन में डुबाए जाते हैं और कागज का दूसरा ताव बनाया जाता है। इसे पहले कागज के ऊपर फ़ेल्ट की दूसरी चद्दर रखकर उतार दिया जाता है। इस रीति से कागज का एक के बाद दूसरा ताव बनाकर फ़ेल्ट के टुकड़ों पर क्रम से रखते जाते हैं और जब पर्याप्त ऊँचा ढेर हो जाता है तब इस ढेर को एक दाबक (press) में दबाया जाता है, जिससे कागजों का अधिकांश पानी निकल जाता है। अब इस ढेर में से प्रत्येक कागज का ताव अलग कर सूखने के लिए तार या डोरी पर टाँग दिया जाता है। सूखने के बाद कागज तैयार हो जाता है और सबको एकत्रित कर तथा चिकनाकर गट्ठे (बंडल) के रूप में बाँध लिया जाता है। हाथ से कागज बनाने में मजदूरी लगती है। इसलिए इस विधि का उपयोग केवल सर्वोत्तम प्रकार का कागज बनाने में किया जाता है। ऐसा कागज चिथड़े से बनाया जाता है और बहुत पुष्ट होता है। इसका उपयोग पत्र लिखने और चित्र खींचने में होता है।

वर्तमान समय में लुगदी से कागज मशीनों की सहायता से बनाया जाता है। इस विधि से कागज बनाने में भी वे सब क्रियाएँ आवश्यक हैं जो हाथ द्वारा कागज बनाने में। अंतर केवल इतना होता है कि प्रत्येक क्रिया मशीन द्वारा पर्याप्त शीघ्रता से होती है। इस रीति में लुगदी का एक बहुत पतला आलंबन बनाया जाता है और उसकी उचित मात्रा तार के बने एक अंतहीन पट्टे पर उठा ली जाती है। जितना चौड़ा कागज बनाना होता है पट्टे की चौड़ाई भी उतनी ही रखी जाती है। यह पट्टा बराबर आगे बढ़ता जाता है। पट्टा जैसे-जैसे आगे बढ़ता है इसपर उठाए हुए लुगदी के आलंबन का पानी टपकता जाता है और लुगदी चद्दर के रूप में परिवर्तित होती जाती है। इस तार के पट्टे की दोनों बगलों पर दो इंच चौड़ा रबर का पट्टा रहता है, जो तार के पट्टे के साथ घूमता रहता है। रबर के पट्टे का काम तार के पट्टे के कागज के ताव को बगलों की ओर खिसकने से रोकना है। जब तार का पट्टा सिरे के पास पहुँचता है तो यह ऐसे संदूकों के ऊपर से घूमकर नीचे को मुड़ता है जहाँ चूषण पंप लगे रहते हैं। ये पंप पट्टेवाले कागज के ताव का बहुत सा पानी चूसकर निकाल देते हैं। कुछ आगे इस सिरे पर दो बड़े बेलन भी होते हैं, जिनपर फ़ेल्ट मढ़ा रहता है। जब पट्टा इन बेलनों के भीतर से होकर जाता है तो कागज के ताव पर बहुत दाब पड़ती है। इस दाब से ताव का कुछ और पानी निकल जाता है, साथ ही लुगदी के रेशे अधिक दृढ़ता से परस्पर जुटकर जम जाते हैं। यहाँ से तार का पट्टा तो नीचे की ओर घूमकर पीछे की ओर चला जाता है, किंतु कागज का ताव रबर के दूसरे पट्टों की सहायता से आगे बढ़ता है। आगे बढ़ने पर ताव पुन: फ़ेल्ट मढ़े कई जोड़ी बेलनों के भीतर से होकर जाता है। ये बेलन कागज के ताव के शेष पानी को भी निकाल देते हैं और ताव को और अधिक जमा देते हैं। अब ताव को सुखाने के लिए उसे इस्पात के बने बड़े बेलनों के ऊपर से ले जाया जाता है। ये बेलन कम दाब की भाप द्वारा साधारण ताप तक गर्म किए जाते हं और दो पंक्तियों में व्यवस्थित रहते हैं। ताव क्रम से ऊपर की पंक्ति के एक बेलन के ऊपर से होकर नीचे की पंक्ति के बेलन के नीचे से होकर जाता है। इन गर्म बेलनों से होकर बाहर निकलने पर कागज का ताव एकदम सूखा रहता है। तदुपरांत इन तावों को निष्पीड़क बेलनों (calendering rollers) के बीच से निकाला जाता है। इससे कागज का पृष्ठ चिकना हो जाता है। इस क्रिया को निष्पीड़न (calendering) कहते हैं। यदि बहुत चिकने कागज की आवश्यकता होती है तो इस्पात के बने कई चिकने निष्पीड़क बेलनों के भीतर से कागज के ताव को निकाला जाता है। अब कागज के ताव के बड़े पुलिंदे के रूप में लपेट लिया जाता है।

निष्पीड़क बेलनों से निकलने के बाद जो कागज प्राप्त होता है जब बहुत सूखा रहता है। सामान्य अवस्था में लाने के लिए इसमें थोड़ी नमी शोषित कराना आवश्यक होता है। नमी शोषित कराने की क्रिया को आर्द्रताकरण (humidification) कहते हैं। इस क्रिया में कागज को पोले बेलनों के ऊपर से, जो क्रम से व्यवस्थित रहते हैं, धीमी गति से भेजा जाता है। कक्ष का वायुमंडल आर्द्र रखा जाता है, अत: कागज आवश्यक आर्द्रता शोषित कर लेता है। आर्द्रताकरण के बाद कागज की लंबी चादर को एक मशीन की समतल सतह पर खोलकर इच्छित नाप के ताव काट लिए जाते हैं और फिर इन तावों को गिनकर बेठन के कागज में लपेटा और बाँधा जाता है। साधारणत: प्रत्येक बंडल में 500 ताव रखे जाते हैं और इतने को एक रीम कहते हैं।

अन्य स्रोतों से:




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