कैसा भोजन पसंद करेंगे जनाब

21 Jul 2013
0 mins read
भोजन के माध्यम से कीटनाशकों से संपर्क कई जीर्ण बीमारियों को जन्म देता है। सबसे बढ़िया तरीका तो यह होगा कि हम अपनी थाली को देखें- यह हिसाब लगाएं कि हम क्या और कितना खा रहे हैं- ताकि यह पक्का कर सकें कि कीटनाशकों की सुरक्षित सीमा निर्धारित की जा सके। पोषण प्राप्त करने के लिए हमें थोड़ा जहर तो निगलना होगा मगर इसे स्वीकार्य सीमा में कैसे रखा जा सकता है? इसका मतलब है कि सारे खाद्य पदार्थों के लिए कीटनाशकों के सुरक्षित स्तर के मानक तय करने होंगे। मेरा स्थानीय सब्जीवाला पॉलीथीन की थैलियों में नींबू पैक करके बेचता है। मैं सोचने लगी कि क्या यह खाद्य सुरक्षा और स्वच्छता के बेहतर मानकों का द्योतक है। आखिर हम जब प्रोसेस्ड फूड की अमीर दुनिया के किसी सुपर मार्केट में जाते हैं, तो नजर आता है कि सारे खाद्य पदार्थ सफाई से पैक किए गए हैं ताकि मनुष्य के हाथ लगने से कोई गंदगी न हो। फिर खाद्य निरीक्षकों की पूरी फौज होती है, जो प्रोसेसिंग कारखाने से लेकर रेस्टोरेंट में परोसे जाने तक हर चीज की जांच करती है। उसूल साफ है: खाद्य सुरक्षा के प्रति जितनी ज्यादा चिंता होगी, क्वालिटी भी उतनी ही अच्छी होगी और परिणाम यह होगा कि इसे लागू करने की कीमत भी उतनी ही ज्यादा होगी। धीरे-धीरे, मगर निश्चित रूप से छोटे उत्पादक बाहर धकेल दिए जाते हैं। भोजन का कारोबार ऐसे ही चलता है। मगर क्या सुरक्षित भोजन का यह मॉडल भारत के लिए ठीक है? यह तो पक्की बात है कि हमें सुरक्षित भोजन चाहिए।

यह भी साफ है कि हम छोटे उत्पादकों की आड़ में यह नहीं कह सकते कि हमें क्वालिटी और सुरक्षा के सख्त मापदंड नहीं रखने चाहिए। हम यह दलील भी नहीं दे सकते कि हम तो एक गरीब विकासशील देश हैं और हमारी जदरूरत तो ज्यादा मात्रा में खाद्यान्न पैदा करना और उसे कुपोषित लोगों की बड़ी संख्या तक पहुंचाना है। हम ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि चाहे हम गरीब हों और ज्यादा से ज्यादा खाद्यान्न पैदा करने और उसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के दबाव में हों, मगर हम इस तथ्य को अनदेखा नहीं कर सकते कि हम खराब भोजन खा रहे हैं जो हमें बीमार कर रहा है। हम कई सारे दोहरे बोझ ढोते हैं। यह उनमें से एक है।

दूसरे दोहरे बोझ का संबंध ‘असुरक्षित भोजन की प्रकृति से है। सबसे घातक समस्या मिलावट की है- जब लोग मुनाफे के लिए भोजन में खराब चीजें मिलाते हैं। भारत में यूरिया मिला दूध और रसायनों से रंगी लाल मिर्च तो समस्या का एक छोटा-सा अंश है। हमें पता है कि इसके खिलाफ कारगर कार्रवाई की जरूरत है। मगर यह भी सच है कि ऐसी घटनाएं भारत में ही नहीं होतीं। कुछ वर्षों पहले चीन में मिलेमीन-दूषित दूध ने बच्चों की जानें ली थी। आजकल गौमांस के नाम पर बेचा जा रहा घोड़े का मांस यूरोप को झकझोर रहा है। हमारे शरीर और सेहत से जुड़े इस कारोबार में कदाचारी लोग शामिल हैं।’

चिंता का दूसरा विषय है प्रोसेसिंग के दौरान भोजन में मिलाई जाने वाली चीजों का सुरक्षित होना। यह मिलावट नहीं है क्योंकि यहां जो चीजें मिलाई जाती हैं उन्हें मिलाने की अनुमति है। सवाल यह है कि क्या हम इन चीजों के अन्य दुष्प्रभाव के बारे में जानते हैं? सामान्यतः होता यह है कि विज्ञान इन समस्याओं का पता काफी देर से लगाता है। मसलन, कृत्रिम मीठे पदार्थों को लेकर काफी हो-हल्ला हुआ है। इनमें पहले सेकरीन था और फिर एस्पार्टेम आया। औद्योगिक स्तर पर उत्पादित भोजन में एक समस्या यह भी है कि हरेक वस्तु को निहित स्वार्थों का समर्थन मिलता है। ये निहित स्वार्थ उस चीज को तब तक सुरक्षित बताते हैं, जब तक की उसकी असुरक्षा साबित न हो जाए।

अक्सर हमें हमारे खाद्य पदार्थों में मिलाए गए तत्वों के बारे में ज्यादा पता नहीं होता। जैसे, हम वैनीला यह सोचकर खाते हैं कि आइसक्रीम और केक को सुगंधित करता यह पदार्थ मसालों का असली सम्राट है। हमें पता ही नहीं होता कि अधिकांश वैनीला कृत्रिम रूप से बनाया जाता है और यह रसायन, आप मानें या न मानें, कागज कारखानों के कचरे या कोलतार के घटकों से बनाया जाता है। यह सस्ता होता है और विभिन्न देशों के खाद्य व औषधि प्रशासन ने इसे मानव उपभोग के लिए स्वीकृत किया है।

तीसरी चुनौती हमारे भोजन में विष की है। ये वे रसायन हैं जो खाद्यान्न उपजाने और प्रसंस्करण के दौरान उपयोग किए जाते हैं। बहुत कम मात्रा में भी ये अस्वीकार्य जहर हैं। भोजन के माध्यम से कीटनाशकों से संपर्क कई जीर्ण बीमारियों को जन्म देता है। सबसे बढ़िया तरीका तो यह होगा कि हम अपनी थाली को देखें- यह हिसाब लगाएं कि हम क्या और कितना खा रहे हैं- ताकि यह पक्का कर सकें कि कीटनाशकों की सुरक्षित सीमा निर्धारित की जा सके। पोषण प्राप्त करने के लिए हमें थोड़ा जहर तो निगलना होगा मगर इसे स्वीकार्य सीमा में कैसे रखा जा सकता है? इसका मतलब है कि सारे खाद्य पदार्थों के लिए कीटनाशकों के सुरक्षित स्तर के मानक तय करने होंगे।

इसके बाद कुछ विष ऐसे हैं, जो भोजन में कदापि नहीं होने चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ वर्षों पहले विज्ञान व पर्यावरण केंद्र (सीएसई) ने पाया था कि भारत के बाजार में मिलने वाले शहद में एंटीबायोटिक औषधियां हैं। कारण यह है कि भारत में औद्योगिक मधुमक्खी पालक मधुमक्खियों को एंटीबायोटिक दवाएं खिलाते हैं- उनकी वृद्धि को बढ़ाने और बीमारियों पर नियंत्रण के लिए एंटीबायोटिक्स का सेवन हमें दवाइयों का प्रतिरोधी बनाता है। सीएसई ने कोशिश करके घरेलू बाजार में शहद के लिए एंटीबायोटिक मापदंड तैयार करवाए। इसमें कोई संदेह नहीं कि छोटे-छोटे शहद उत्पादकों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा क्योंकि उनके पास कागजी कार्रवाई और निरीक्षकों को संभालने की क्षमता नहीं है। मगर इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि हम अपने भोजन में एंटीबायोटिक के इस्तेमाल को बर्दाश्त करते रहें। क्या इसका मतलब यह है कि हम खाद्य कारोबार में इस तरह के बदलाव करें कि भोजन सुरक्षित भी रहे और जीविकाओं पर आंच भी न आए?

भोजन संबंधी चौथी चुनौती शायद इस सवाल का जवाब दे देगी। भोजन न सिर्फ सुरक्षित होना चाहिए बल्कि पौष्टिक भी होना चाहिए। आजकल दुनिया में भोजन का चेतावनी तंत्र जंक फूड (कचरा खाद्य) के मामले में सक्रिय हो चला है- जंक फूड यानी ऐसा भोजन जिसमें खाली कैलोरियां हैं और जो सेहत के लिए खराब है। इस बात के काफी प्रमाण हैं कि खराब भोजन का सीधा संबंध गैर-संक्रामक बीमारियों (जैसे मधुमेह, दिल की बीमारी, कैंसर) में विस्फोट से है। बहुत हो चुका, कहने का वक्त बहुत पहले आ चुका है।

सवालों के जवाब खाद्य कारोबार के एक अलग मॉडल के बारे में सोचकर मिलेंगे। यह मॉडल सबके लिए एक जैसे औद्योगिक उत्पादन का मॉडल तो नहीं हो सकता। नया मॉडल पोषण, आजीविका और सुरक्षा के सामाजिक उद्देश्यों को मुनाफे से ऊपर रखने पर आधारित होना चाहिए। यदि हम इस बात को सही समझ जाएं, तो सही भोजन खाएंगे।

पता : विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र 41, तुगलकाबाद इंस्टिट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली- 110062

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading