कैसे लौटेगा वो सावन

जैसे योगेश्वर श्रीकृष्ण लोक कल्याण हेतु ब्रज तज कर चले गए, वैसे ही श्रीकृष्ण का आनंद पर्व कहा जाने वाला सावन आज ब्रजवासियों और उनके भक्तों की उपेक्षा के चलते कृष्ण की तरह ही अन्यत्र चला गया है। आज ब्रजवासी और उनके भक्त श्रीकृष्ण की तरह सावन के मेघों की बाट जोह रहे हैं। प्रकृति विरोधी आधुनिकता से पैदा हुई इस बेचैनी और व्याकुलता पर गंभीर चिंतन करने की जरूरत है। प्रकृति का महोत्सव कहा जाने वाला सावन अब वह सावन नहीं रहा। सावन को हम तब ही वापस ला सकते हैं, जब श्रीकृष्ण के प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण, संवर्धन को नित्य धार्मिक कर्म की तरह अपने आचरण में आत्मसात करें। श्रीकृष्ण के प्रकृति प्रेम से जुड़े मूल्यों की स्थापना ही उनकी भक्ति की सार्थकता को तय करेगी। फिर बात चाहे यमुना शुद्धिकरण की हो या वन संपदा के रूप में प्राकृतिक विरासत को बचाने की, उन मूल्यों की पुनर्स्थापना जरूरी है। प्रस्तुत है ब्रज में सावन के बहाने श्रीकृष्ण के प्रकृति प्रेम और उनके सरोकारों की पड़ताल करता विवेक दत्त मथुरिया और मधुकर चतुर्वेदी का आलेख..

.गर्मी के ताप से तपे हुए मौसम में काले कजरारे मेघ सावन के आने की सूचना दे रहे हैं, लेकिन सावन जितना मनभावन है, उतना कठोर भी। कभी-कभी यह गर्मी से समझौता कर बैठता है, तब यही सावन बैरी हो जाता है। बिना बरखा सावन का कोई अर्थ नहीं रह जाता। भारतीय ऋतुओं में सावन की महिमा सबसे अलग है।

गर्मी के ताप से झुलसे लोग चातक जैसी व्याकुलता मन में लिए आंख उठाए आसमान की ओर देखते हैं कि काली घटा का कोई निशान मौजूद है क्या? असल में सावन को प्रकृति के यौवन का उल्लास पर्व कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।

प्यासी धरती, प्यासे लोग, प्यासे ताल-तलैया, प्यासे दादुर, पपीहा और चातक मोर, लेकिन सब सावन से आस लगाए रहते हैं। बिन बारिश सावन का रूप बैरी के समान लगता है।

सावन की बरखा असल में पानी के महत्व का संदेश है। जैसा कि रहीम ने कहा था कि बिन पानी सब सून इस बात को इस तरह भी समझा जा सकता है कि बिना पानी प्रकृति, पुरुष और जीवन का कोई सौंदर्य नहीं है। एक बात यह समझने वाली है कि घनघोर बारिश हो और आपके आसपास का वातावरण वृक्षों, लता, पताओं से शून्य हो तो सावन का आनंद अपूर्ण ही माना जायेगा।सावन का मनभावन प्राकृतिक आनंद प्रकृति और पुरुष दोनों को नव सृजन के लिए प्रेरित करता है। सुकोमल कवि मन से कविताएं अनायास ही प्रस्फुटित हो उठती हैं। मन मयूर नाच उठता है। बच्चों की कागज की नाव गड्ढों के पानी में तैरने लगती है। सावन की बारिश में हर कोई उन्मुक्त आनंद की आकांक्षा मन में लिए रहता है।

इसी उन्मुक्त आकांक्षा से पैदा हुए हैं हमारे सामाजिक समरसता को विस्तार देने वाले उत्सव, मेल और लोक परम्पराएं। इन उत्सवों में निहित हमारी संस्कृति की एकता पूरे विश्व को दिखाई देती है। सावन में शिव की आराधना प्रकृति और पुरुष की आराधना है। हमारी सनातनता का आधार प्रकृति की आराधना से ही जुड़ा है।

ब्रज में सावन का अपना विशेष महत्त्व है क्योंकि ब्रज संस्कृति एक गो-पालक संस्कृति है। स्वयं श्रीकृष्ण गो-पालक संस्कृति के ध्वज वाहक रहे हैं। श्रीकृष्ण का संपूर्ण लीला दर्शन प्रकृति से जुड़ा हुआ है। वन, उपवन की उनकी संस्कृति पर्यावरण के संरक्षण और संवर्धन से जुड़ी है। आज हम लोग सावन की रिमझिम बारिश के आनंद में आनंद कंद भगवान श्रीकृष्ण के प्रकृति संरक्षण और संवर्धन के संदेश को भुला बैठे हैं। आज ब्रज में सावन का वह पुरातन और स्वाभाविक रूप आधुनिकता की भेंट चढ़ गया है। आधुनिकता के कलेवर में लिपटी भक्ति ने कृष्णकालीन प्रवाह का हरण कर लिया है।

लोकमानस से जुड़ी सावन के आनंद की संस्कृति और परंपरा मंदिरों के आयोजनों तक सिमट कर रह गई है। सावन इस बात का भी संदेश देता है कि जीवन का वास्तविक आनंद और जीवन ऊर्जा प्रकृति के सानिध्य में ही संभव है।

समूचा भारतीय धर्म-दर्शन प्रकृति के सूत्रों में निहित है। मुनाफे के सरोकारों से जुड़ी दिशाहीन प्रयोजनवादी संस्कृति ने हमारे प्राकृतिक ऋतु चक्र को पूरी तरह अव्यवस्थित कर दिया है। ब्रज में सावन की घनघोर वर्षा और उसके प्राकृतिक सौंदर्य का काव्यमयी वर्णन आज झूठ सा प्रतीत होता है।

भारतीय दर्शन की दृष्टि से सावन की महिमा को हम इस रूपक से समझ सकते हैं- ‘यह प्रकृति ब्रहमस्वरूपा, मयामयी और सनातनी है और इस प्रकृति में मनुष्य के आनंद की सृष्टि करता है सावन। सावन प्रकृति का कमल है और मनुष्य उसका मकरंद।’ इसी कारण सावन और उत्सव मनुष्य को प्रकृति प्रेमी बनाता है।

इसका मनोवैज्ञानिक आधार प्रमाणित है क्योंकि मनुष्य के साथ-साथ सम्पूर्ण प्रकृति ऋतु परिवर्तन का अनुभव करती है। उसकी दिनचर्या परिवर्तित हो जाती है। आहार, निद्रा के साथ उसके मन पर वातावरण का असर हो जाता है।

वह अचानक ही सूरज की गर्मी से शीतल बूंदों की ओर निहारने लगता है, तो समझो कि सावन आ रहा है और आ गया, तभी पपीहे की कोमल पुकार उसका स्वागत करती है। पावस के प्रारंभ में पपीहे की कूहू से मोर, चातक, मेढक, कोयल, सांप, बिच्छू, हंस, सारस के साथ धरती पर रहने वाली धरती की संतानें प्रसन्नता के साथ नभदर्शन करती हैं। चारों ओर प्रकृति संगीतमयी हो जाती है।

जिधर भी देखो, धरती सप्त सुरों की जानी-मानी आवाजों से गूंज उठती है। पेड़ हवा से स्वर उत्पन्न करते हैं तो पक्षी अपनी आकुलता को दिखाते हैं और मनुष्य इन सब के स्वरों को अपने स्वरों के साथ मिलाकर रागमाला को बनाने की ओर अग्रसर होता है।

इसे ही सावन का उत्सव कहते हैं। आम अशोक, क़दम, जूही, बेलपत्नी, मोगरा के साथ वन उपवन उद्यान सभी की टहनियां घर मंदिर में स्थापित हो जाती हैं। पर, यह सब अब अतीत की मधुर स्मृतियों से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। जरा सोचो, हमने आधुनिक के कृत्रिम ऐश्वर्य में जीवन के सच्चे आनंद को कहीं खो दिया है। गर्मी के ताप में हिल स्टेशनों की ओर हमारा कूच प्राकृतिक आनंद की खोज ही तो है। प्राकृतिक आनंद की इस भूख को हम ब्रजवासियों को फिर जगाना होगा और सावन को वापस बुलाना होगा।

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