कैसे मिले ‘डूबते’ को सहारा

13 Jun 2014
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हिमाचल प्रदेश में नदी में बहे इंजीनियरिंग छात्रों की घटना ने देश को झकझोर दिया है। देश में हर साल इस तरह की घटनाएं होती हैं। राजनेताओं से लेकर प्रशासन तक, सभी चिंता प्रकट करते हैं। आवश्यक कदम उठाने का विश्वास दिलाते हैं लेकिन घटना की पुनरावृत्ति नहीं रोक पाते। प्रशासन तो लापरवाह है ही, हम भी कम नहीं। बेखौफ नदी, नालों और तालाबों में उतर जाते हैं। आखिर कहां है खामी? कैसे सुधरें हालात? इसी पर आधारित है आज का स्पॉटलाइट...

हिमांशु ठक्कर
को-ऑर्डिनेटर साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल

जवाबदेही बढ़े तो हादसे रुकें


बांध संचालक भी जब पानी छोड़ते हैं तो नियमों को दरकिनार करके पानी छोड़ देते हैं। मंडी में यह हादसा महज दो मिनट में हो गया। दो मिनट में पानी छ: फीट ऊपर चढ़ गया। इससे साफ है कि पानी काफी तेजी से छोड़ा गया था। अगर पानी छोड़ने की गति कम हो तो लोगों के पास बचने का मौका होता है। इन सब पहलुओं पर हमारा कोई मंत्रालय ध्यान नहीं देता है।

हर बांध का डाउन स्ट्रीम एरिया (प्रवाह क्षेत्र) जोखिमपूर्ण होता है। इसे ‘डेथ जोन’ भी कह सकते हैं। मंडी में छात्रों के डूबने सरीके हादसे तमिलनाडु, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और हिमाचल प्रदेश में पहले भी हुए हैं। इन हादसे में लोगों ने जान गंवाई है। लेकिन कभी जिम्मेदारी और जवाबदेही तय नहीं हो पाई। नदियों पर बने हाइड्रो-प्रोजेक्ट्स के बांध से ज्यादा पानी छोड़ा जाएगा तो उसका असर नदी के आसपास रहने वाले लोगों पर पड़ेगा। इसलिए ऐसे प्रोजेक्ट्स बनाते वक्त पानी छोड़ने की पूरी योजना होनी चाहिए।

‘वाटर रिलीजिंग मैकेनिज्म’ के मुताबिक शुरुआत में बांध से कम पानी छोड़ना चाहिए। पानी छोड़ते वक्त प्रवाह क्षेत्र में नीचे रहने वाले लोगों को आगाह करना जरूरी होता है। साथ ही जिस सीजन में पानी सामान्यतया नहीं छोड़ा जाता है और तब पानी छोड़ रहे हैं तो मौके पर लोगों को चौकन्ना करना जरूरी होता है। पुलिस और प्रशासन का भी रहना जरूरी होता है। उस वक्त लोगों को नदी में प्रवेश करने से रोका जाना चाहिए।

लोगों को सूचित करने के लिए सायरन का इस्तेमाल होना चाहिए। मंडी का ही उदाहरण लें तो जहां से पानी छोड़ा गया, वहां से दूर तक सायरन से सूचना पहुंचनी चाहिए थी। अब सवाल यह है कि पूरे इलाके को कैसे चौकन्ना करेंगे? स्थानीय लोग तो फिर भी समझ सकते हैं कि सायरन का मतलब क्या है, लेकिन बाहरी लोगों के लिए सायरन समझना मुश्किल होता है। इसलिए जोखिम क्षेत्र में हर 50 मीटर पर बोर्ड और खतरे के संकेतक होने चाहिए। बांध के संचालक इसमें ज्यादा गंभीरता नहीं बरतते और ऐसे हादसे हो जाते हैं।

मंडी में व्यास नदी पर 126 मेगावाट का बांध है। जिसे ‘रन ऑफ द रिवर प्रोजेक्ट’ कहा जाता है। पहले बांध में से पानी टनल में डाला जाता है वो पावर हाउस में जाता है। फिर पॉवर बनने के बाद पानी वापस नदी में छोड़ा जाता है। इस घटना में यह हुआ कि बांध संचालकों को बताया गया कि पॉवर की डिमांड ग्रिड में कम हो गई है, इसलिए पॉवर जनरेशन बंद कर देना चाहिए। इसलिए उन्होंने पॉवर जनरेशन बंद कर दिया और बांध में एकत्र पानी छोड़ना शुरू कर दिया। बहुत सारा पानी एक साथ छोड़ा गया। हालांकि बांध अथॉरिटी कह रही है कि सायरन बजाया गया था लेकिन स्थानीय लोग इससे इंकार कर रहे हैं। अब पर्यटकों को कैसे मालूम होगा कि सायरन बजाया गया है, वे तो इससे बिल्कुल अनभिज्ञ रहते हैं। उनकी जान जोखिम में रहती है। इसलिए इन मसलों को बांध बनाने से पहले हल कर लेना चाहिए।

दो मिनट में तबाही


बांध संचालक भी जब पानी छोड़ते हैं तो नियमों को दरकिनार करके पानी छोड़ देते हैं। मंडी में यह हादसा महज दो मिनट में हो गया। दो मिनट में पानी छ: फीट ऊपर चढ़ गया। इससे साफ है कि पानी काफी तेजी से छोड़ा गया था। अगर पानी छोड़ने की गति कम हो तो लोगों के पास बचने का मौका होता है। इन सब पहलुओं पर हमारा कोई मंत्रालय ध्यान नहीं देता है।

बांध संचालक और प्रशासन की लापरवाही को एक उदाहरण से समझना चाहिए। मध्य प्रदेश में वर्ष 2006 में नर्मदा नदी में इंदिरा सागर बांध है। वहां नदी के तट पर धाराजी नामक जगह पर हर साल मेले का आयोजन होता है। उस साल भी बहुत से लोग मेले में मौजूद थे। अचानक बांध से पानी छोड़ा गया और तेज प्रवाह में 60 लोग बह गए।

जब इस घटना की जांच हुई तो बांध संचालकों ने कहा कि उन्होंने पानी छोड़ने की सूचना पत्र के जरिए तहसीलदार को दे दी थी। लेकिन तहसीलदार ने जवाब में कहा कि कोई पत्र नहीं मिला। जवाबदेही किसी की तय नहीं हुई. हर बांध के लिए देश में एक मैनेजमेंट कमेटी होनी चाहिए।

उनमें 50 फीसद सरकारी और 50 फीसद लोग गैर सरकारी होने चाहिए। ये एक सशक्त कमेटी हो, जो बांधों के ऑपरेशन के बारे में संबंधित अधिकारियों से सवाल पूछ सके। गैर जिम्मेदारी पर अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई हो सके। हर बांध से पानी छोड़ने की मात्रा, वक्त और उसके कारणों की सार्वजनिक तौर पर जानकारी रहनी चाहिए। ऐसी पारदर्शिता होगी तभी जवाबदेही आएगी, दोषियों को सजा मिलेगी और ऐसे हादसे रुकेंगे।

सिविल डिफेंस को करें मजबूत


डॉ. राकेश दुबे,
निदेशक, डिजास्टर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट


मंडी में जो हादसा हुआ है कि उसे समझने के लिए दो-तीन बातें महत्वपूर्ण हैं। पहला, बांध से पानी छोडऩे के लिए ‘फ्लूइड डायनेमिक्स’ का इस्तेमाल होना चाहिए। यह पानी के बहाव के लिए जांची-परखी और प्रसिद्ध थ्योरी है। कोई भी तरल छोड़ने पर वह कितनी तेजी से कहां तक, कितने समय में जाएगा यह इस थ्योरी से समझा जाता है। बांधों से पानी छोड़ने में यह थ्योरी काफी काम आती है। हमारे देश में जितने भी महत्वपूर्ण बांध हैं, उन सभी के डाउनस्ट्रीम एरिया के लिए यह अध्ययन होना चाहिए।

दूसरा, इस स्टडी के बाद अलग-अलग जीआईएस मैप उपलब्ध होना चाहिए। ये बातें काफी अहम हैं। इसके बाद जो नदी के जल संसाधन से जुड़े कर्मचारी और अधिकारी हैं उन्हें चौकसी से कार्य करना चाहिए। बांध से पानी छोड़ते वक्त आपस में समन्वय के द्वारा काम होना चाहिए। डाउन स्ट्रीम के सिस्टम को प्रबंधित करने वालों को लगातार संदेश मिलता रहना चाहिए। तीसरी बात ये है कि ऐसी जगहों पर आने वाले पर्यटकों की सुरक्षा और सजगता के लिए संकेतक होना बेहद जरूरी है। भले ही हॉर्डिंग्स हों या संकेतक, जोखिमपूर्ण क्षेत्र में इनकी मौजूदगी जरूरी है। इसमें तकनीक का भी प्रभावी इस्तेमाल किया जा सकता है। पर्यटकों के डेंजर जोन में प्रवेश करते ही मोबाइल पर संदेश मिल जाना चाहिए। ताकि वे भली भांति सूचित रहें।

ऐसे हादसे रोकने में महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण भूमिका हमारे प्रशासन की होती है। भले ही वह तहसील, ब्लॉक स्तर पर हो या कलक्ट्रेट के स्तर पर, इन अधिकारियों द्वारा सम्बंधित क्षेत्र में व्यापक जागरूकता अभियान जारी रहने चाहिए। इनकी मौजूदगी उन इलाकों में रहनी चाहिए। किसी हादसे में लोगों को बचाने के लिए त्वरित बचाव अभियान और संसाधनों का स्थानीय स्तर पर पुख्ता इंतज़ाम रहना चाहिए। अभी हम हादसा होने पर सिस्टम के हरकत में आने का इंतजार करते रहते हैं। हमारे समाज के भीतर भी सिविल डिफेंस खत्म-सा हो गया है। कस्बों, शहरों में समय-समय पर प्रशिक्षण होते रहने चाहिए ताकि लोग अपना व दूसरों का बचाव करने में सक्षम हो सकें। सरकार द्वारा हर जगह बचावकर्मी तैनात करना मुश्किल होता है। ऐसे में सिविल डिफेंस की अहम भूमिका होती है। स्कूल, कॉलेज में प्रशिक्षण होना चाहिए। अंत में नागरिकों को ‘सिविक सेंस’ का भी ध्यान रखना चाहिए।

हादसों को भूलें नहीं, सबक लें


डॉ. अंजली क्वात्रा
ख्यात आपदा प्रबंधन विशेषज्ञ


हमारे देश में हादसों/आपदाओं से निबटने के लिए अभी तक पर्याप्त व्यवस्था नहीं हो पाई है। हादसे होते हैं लोग जान गंवाते हैं पर किसी की जवाबदेही तय नहीं होती है। हम सही ढंग से चेतावनी तंत्र तक स्थापित नहीं कर पाए हैं। अब मंडी में छात्रों की जान गई तो चेते हैं और थोड़े वक्त बाद आपदा प्रबंधन की जरूरतों को फिर भूला दिया जाएगा।

मंडी हादसा मीडिया की सुर्खियां बन गई तो सरकारी मशीनरी भी हरकत में आ गई। कार्रवाई शुरू हो गई, वरना छोटे-मोटे हादसों की तो फिक्र ही नहीं होती। हमारे देश में असली समस्या सिस्टम बनाने की है। अधिकारियों के निलंबन या तबादलों से फर्क नहीं पड़ेगा। मंडी में अगर हमारा सूचना और बचाव तंत्र मजबूत होता तो इतनी जानें नहीं जाती। लेकिन बचाव तो कुछ हुआ ही नहीं। बचाव दल तो सिर्फ शव ढूंढने गए हैं।

एनडीआरएफ (राष्ट्रीय आपदा राहत बल) बना तो दी गई है, लेकिन उसमें अभी भी तकनीक और वित्तीय निवेश की जरूरत है। सुनामी के बाद एनडीआरएफ कानून लाया गया तो बहुत उम्मीद बंधी थी कि अब जान-माल का कम से कम नुकसान होगी। लेकिन जितना कुछ काम होना था, वह सिर्फ केंद्र के स्तर पर हुआ, राज्यों के खास काम नहीं किया। इन हादसों के लिए आज भी स्थानीय प्रशासन के पास विजन का अभाव है। सवाल है कि इन हादसों में लोगों को कैसे बचाएंगे? एनडीआरएफ समय पर पहुंच नहीं पाती है। रात को वे हेलीकॉप्टर से जा नहीं सकते। स्थानीय प्रशासन लचर है।

मंडी के छात्रों के डूबने की तीन घंटे बाद सूचना मिली तो सर्च ऑपरेशन शुरू हो पाए। सूचना तंत्र लचर है। नदी पर बने पॉवर प्रोजेक्ट के अधिकारियों ने जवाबदेही से कार्य नहीं किया। अगर वहां पॉवर स्टेशन बना है तो उसके पास आपदा प्रबंधन योजना होनी चाहिए थी। स्टेशन से महज दो किलोमीटर दूर यह हादसा हुआ, अगर आपदा प्रबंधन किया जाता तो छात्रों की जान बच सकती थी। स्थानीय प्रशासन का भी माइंडसेट बदलने की जरूरत है। स्थानीय लोगों और पर्यटकों की सुरक्षा पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

कुछ बड़ी घटनाएं


1. अक्टूबर, 2006 - मध्यप्रदेश के दतिया में शिवपुरी के मनिखेड़ा बांध से पानी छोड़े जाने के कारण सिंध नदी में करीब 50 तीर्थयात्री बहे।
2. जुलाई 2008-यूपी के ललितपुर में शहजाद नदी में अचानक पानी बढ़ने से दो ग्रामीण बहे।
3. जुलाई 2011-मध्यप्रदेश के महू के पास स्थित पातालपानी में झरने में अचानक पानी बढ़ा, पांच मरे।
4. जुलाई 2012- हिमाचल प्रदेश के नाहन तहसील में नदी में अचानक पानी आने से 7 लोगों की मौत।
5. सितंबर 2012 - मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में सतकुंडा झरने का पानी अचानक बढ़ने से पिकनिक मनाने गए चार युवक बहे।
6. सितंबर 2012 - मध्यप्रदेश में चोरल नदी में अचानक पानी बढ़ने से छह लोग बह गए।

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