काजू के बगीचों को टी मास्किटों से बचाती हैं लाल चींटियां

केंचुआ किसान का मित्र है यह सर्वविदित है लेकिन लाल चींटियां भी किसान की अच्छी दोस्त एवं सहयोगी हैं; यह साबित कर दिखाया है केरल के एक प्रगतिशील किसान ने। केरल के कन्नूर जिले के 55 वर्षीय किसान एन. वासवन को काजू की पौध व इसके पेड़ों को विशेष प्रजाति के मच्छर टी मास्किटों से बचाने के लिए बतौर खेतों के वैज्ञानिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस लेख में अपनी इस सफलता को वे अन्य किसान भाईयों के लिए साझा कर रहे हैं।पिछले दिनों राजस्थान के जयपुर में राज्य सरकार एवं सेंटर फॉर इंटरनेशनल ट्रेड इन एग्रीकल्चर एंड एग्रोबेस्ड इंडस्ट्रीज, सीटा द्वारा पंचायत समिति से जिला, राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर कृषि के क्षेत्र में नवाचार अनुसंधान तथा उल्लेखनीय कार्य करने वाले 500 से अघिक प्रयोगधर्मी किसानों को सम्मानित किया गया। 28 किसानों को खेती के वैज्ञानिक सम्मान से नवाजा गया।

केरल के कन्नूर जिले के किसान एन. वासवन बताते हैं कि उन्होंने अपनी सात एकड़ जमीन में से सवा तीन एकड़ जमीन पर काजू की सुलभ किस्म का बगीचा लगा रखा है। यह बगीचा 2004 में लगाया है तथा काजू के अंकुरित दानों और इसके पेड़ों को मच्छरों की एक विशेष प्रजाति टी. मस्किटों से बचाने के लिए लाल चींटी तकनीक ईजाद की है। उन्होंने कहा कि यह विधि अनजाने में ही तैयार हो गई। जब विशेष प्रकार के मच्छरों ने मेरी काजू की फसल पर धावा बोल दिया और इसके चलते तमाम फूल झड़ गए और तनों पर खाली डंठल रह गए। इस दौरान मैंने देखा जिन पौधों पर लाल चींटियां थी उन पर इस मच्छर के प्रकोप का कोई असर नहीं हुआ।

अब तक मैं काजू की फसल को टी मास्किटों से बचाने के लिए नीम के तेल और लहसुन के मिश्रण का इस्तेमाल करता था। इससे फसल पर लगी लाल चींटियां मर जाती थी और इसके दुष्प्रभाव से काजू के पत्तों का रंग फीका पड़ जाता था। लिहाजा एक बार मैंने लाल चींटियों से लदे पेड़ों पर नीम के तेल का स्प्रे नहीं किया। बाद में मैंने पाया कि चींटियों वाले पौधे बिना किसी कीटों के हमले के भली-भांति बढ़ रहे थे। इसके बाद मैंने काजू के पौधों पर लाल चींटियों के झुंड को छोड़ दिया।

मैं आपको बता दूं कि इस दरमियान मैंने एक कृषि पत्रिका में प्रो. केएम श्रीकुमार का लाल चींटियों की कीटों की रोकथाम में भूमिका और उनके इतिहास के संबंध में एक लेख पढ़ा। उसी दिन श्रीकुमार से संपर्क साधा और संयुक्त रूप से प्रयोग करने का तय किया। काजू की फसल बचाने के लिए लाल चींटियों वाली यह तरकीब काम में लेते हुए मैंने पास ही में लगे काजू के अन्य पौधों जिन पर चींटियां नहीं थी, को चींटियों वाले पौधों से नाईलोन एवं जूट की रस्सी से बांध दिया ताकि चींटियों के लिए एक से दूसरे पेड़ तक आने-जाने का रास्ता बन जाए। साथ ही चींटियों को आकर्षित करने के लिए काजू के पौधों पर मृत सूखी हुई मछलियां और छोटे-छोटे समुद्री जीव बांध दिए। इसके अलावा चींटियों के लिए अन्य इंतजाम भी किए।

इस तरह वर्ष 2007 के बाद किए गए वैज्ञानिक अनुसंधान में पाया गया कि लाल चींटियों वाले पौधों से अधिक उत्पादन प्राप्त हुआ। छह वर्षों बाद 2010 में लिए गए आंकड़ों के अनुसार चींटियों वाले पौधों से प्रति पौधा 23.4 किलोग्राम तथा प्रति हेक्टेयर 3.45 टन काजू की पैदावार प्राप्त हुई जबकि चींटियों रहित अन्य सामान्य पौधों से केवल 7.2 किलोग्राम प्रति पेड़ तथा प्रति हेक्टेयर 1.08 टन उत्पादन ही हुआ।

श्री वासवन कहते हैं कि इस तरह टी मास्किटों के हमले से काजू की फसल को बचाने एवं अधिक उत्पादन लेने के लिए लाल चींटियां सबसे कारगर उपाय हैं। उन्होंने कहा कि लिहाजा काजू की फसल के लिए कीटनाशक के छिड़काव की बजाय लाल चींटियां पालना उचित रहेगा। यह गैरपरम्परागत और नवीन तकनीक पर्यावरण के अनुकूल होने के साथ-साथ कम खर्चीली और कम श्रम साध्य है। उन्होंने बताया कि एक रुपये के निवेश करने पर किसान इससे साढे़ पांच रुपये प्राप्त कर सकता है जबकि कीटनाशक के छिड़काव से यह आंकड़ा एक रुपये की तुलना में 1.59 बैठता है।

उन्होंने बताया कि गत दिनों कासरकोड जिले में इंडोसलफान विवाद के चलते इस तकनीक ने व्यापक स्तर पर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है तथा काजू से कई प्रकार के उत्पादन बनाने वाली छोटी-बड़ी इकाईयों ने इसके महत्व को समझा है।

श्री वासवन ने बताया कि इस तकनीक की विस्तृत जानकारी लेने के लिए कई किसान कृषि वैज्ञानिकों और खाद्य उत्पादों से जुड़े अधिकारियों ने मेरे खेत का दौरा किया है। अब किसान लाल चींटियों को अपना दुश्मन समझने के बजाय मित्र समझने लगे हैं, तथा इनको आम, काजू, लोबिया आदि पर आजमाने लगे हैं।

वे बताते हैं कि चींटियों पर किए गए अनुसंधान के बारे में मैंने वर्ष 2007 में छत्तीसगढ में काजू संगोष्ठी में प्रस्तुति दी थी। इसके अलावा 2008 में कृषि विज्ञान केन्द्र, कन्नूर में आयोजित किसान विज्ञान कांग्रेस में प्रस्तुति दी और इस प्रस्तुति को प्रथम पुरस्कार मिला। वर्ष 2008-09 और 10 में लगातार अनुसंधान के बाद केरल विज्ञान कांग्रेस में एक पर्चा पढ़ने का अवसर मिला।

इस आविष्कार को मैंने 2010 में आयोजित राष्ट्रीय कृषि आविष्कार सम्मेलन और 2011 में बैंगलूर के आईआईएचआर में आयोजित राष्ट्रीय उद्यानिकी आविष्कार सेमिनार में प्रस्तुत किया। कई सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं ने मुझे सम्मानित भी किया। इनमें भूमि सुधार एवं जल प्रबंधन कार्यों के लिए प्रकाशित संसाधन संरक्षण पुरस्कार, किसान वाणी, श्रेष्ठ किसान पुरस्कार शामिल हैं।

(लेखक संवाद समिति यूनीवार्ता में कार्यरत हैं)
ई-मेल: Manoharjosh46/yahoo.com

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