कारपोरेट खेती के खिलाफ किसान जागरण


कृषि के व्यापारिक स्वरूप को भारत जैसे देश हरित क्रान्ति के रूप में देख चुके हैं जहाँ कि अब किसान आत्महत्याओं की चपेट में हैं। इस सम्बन्ध में कई अन्य जरूरी प्रश्न हैं। जैसे कि हरित क्रान्ति किस प्रकार से किसानों के देशी बीजों से सम्बन्धित अधिकारों की सुरक्षा कर पाएगी, हरित क्रान्ति से किसान किस तरह अपने विकास का एजेंडा आगे ले जा पाएँगे, एकल उत्पादन प्रणाली से खुद को कैसे बचा पाएँगे और हरित क्रान्ति किस प्रकार से जलवायु न्याय एवं अग्रणी समुदायों की समस्याओं का निदान कर पाएगी।

मानव जीवन में भोजन की अनिवार्यता के चलते सभी की रुचि इससे सम्बन्धित विमर्श में रहती है। दुर्भाग्य से आज छोटे किसानों की कीमत पर कारपोरेट को फायदा पहुँचाया जा रहा है। सन 2008 में खाद्यान्न के भावों में हुई अत्यधिक वृद्धि के परिणामस्वरूप विकसित व विकासशील दोनों ही देशों के नागरिकों ने इसका ताप महसूस किया था। आज बड़ी संख्या में परिवार व समुदाय अपने कल के भोजन हेतु चिन्तातुर रहते हैं तो बाकी के उसकी गुणवत्ता को लेकर।

वर्तमान परिस्थितियों में हमारी पारम्परिक भोजन प्रणालियाँ संकट में हैं। इसमें जलवायु परिवर्तन, जैवविविधता की हानि व खाद्य आपूर्ति की सुरक्षा भी शामिल हैं। केन्या के कुछ हिस्सों में तो राजनीतिक उथल-पुथल की मुख्य वजह खाद्य आपूर्ति है। अफ्रीकी कृषि पर पड़ रही मार के लिये कहीं-न-कहीं अधिक पूँजी की माँग भी जिम्मेदार है। परन्तु जो छोटे किसान खाद्य उत्पादन करते हैं उनकी आवाज कौन सुनेगा? छोटे किसान ही देश व सम्पूर्ण विश्व की उदरपूर्ति करते हैं। आज उनकी आवाज जान-बूझकर अनसुनी की जा रही है।

छठी अफ्रीकी हरित क्रान्ति फोरम में इस बात पर जोर दिया गया कि कृषि में निवेश बढ़ाना जरूरी है क्योंकि इस पर 70 प्रतिशत आबादी निर्भर है। अतः कृषि निवेश से गरीबी घटेगी, खाद्य सुरक्षा व पोषण तक पहुँच भी ज्यादा होगी, परन्तु त्रासद सच्चाई यही है कि इस प्रकार के विमर्श सामान्यतया उत्पादन से सम्बन्धित अधिकारों पर मौन ही रहते हैं।

इसके अलावा निवेश में वृद्धि हेतु प्रयास इस तर्क पर आधारित हैं कि यह एक आर्थिक अवसर है जिसका फायदा उठाया जाना चाहिए। क्योंकि अभी जो बाजार 300 अरब डॉलर का है उसके सन 2030 तक 40 खरब डॉलर तक पहुँच जाने की उम्मीद है। तुलनात्मक गणनाएँ बता रही हैं कि अफ्रीका का वर्तमान खाद्य आयात 30 से 40 अरब डॉलर प्रतिवर्ष का है और निवेश के पश्चात अफ्रीका न केवल खुद की जरूरतें पूरी कर पाएगा बल्कि खाद्यान्न का निर्यातक भी बना जाएगा।

गौरतलब है कृषि के व्यापारिक स्वरूप को भारत जैसे देश हरित क्रान्ति के रूप में देख चुके हैं जहाँ कि अब किसान आत्महत्याओं (ऋण की वजह से) की चपेट में हैं। इस सम्बन्ध में कई अन्य जरूरी प्रश्न हैं। जैसे कि हरित क्रान्ति किस प्रकार से किसानों के देशी बीजों से सम्बन्धित अधिकारों की सुरक्षा कर पाएगी, हरित क्रान्ति से किसान किस तरह अपने विकास का एजेंडा आगे ले जा पाएँगे, एकल उत्पादन प्रणाली से खुद को कैसे बचा पाएँगे और हरित क्रान्ति किस प्रकार से जलवायु न्याय एवं अग्रणी समुदायों की समस्याओं का निदान कर पाएगी।

वास्तविकता तो यही है कि वैज्ञानिक कृषि के और अफ्रीका के बेहतर एवं हरित भविष्य के नाम पर निवेश करवाकर अफ्रीका के शोषण की पूरी तैयारी कर ली गई है। यदि कारपोरेट भोजन/खाद्य प्रणाली को अपने नियंत्रण में ले लेंगे तो वे जबरदस्त फायदे में रहेंगे। कृषि योग्य भूमि को औद्योगिक फसलों के लिये प्रयोग में लाना जलवायु परिवर्तन एवं जल तथा ऊर्जा उपयोग के नजरिए से भी घातक सिद्ध हो रहा है। इसके अलावा कृषि ईंधन का महिलाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा हैं क्योंकि उत्पादक के नाते खाद्य संकट की जिम्मेदारी उन्हीं पर आ रही है।

खाद्य उद्योग में बढ़ता एकाधिकार कृषि पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है, जो कि विश्व के अधिकांश गरीबों की आमदनी का एकमात्र स्रोत है। अभी तक के प्रभाव बता भी रहे हैं कि ग्रामीण गरीबी उन्मूलन में छोटी अर्थव्यवस्था अधिक कारगर सिद्ध होती है। जैसे-जैसे इसका स्वरूप विस्तारित होता जाएगा और कारपोरेट की बाजार में हिस्सेदारी बढ़ती जाएगी, राज्य भी कृषि सम्बन्धित कानूनों में परिवर्तन करेंगे और कारपोरेट जगत मिट्टी से लेकर भोजन की थाली तक सब पर कब्जा कर लेगा।

गौरतलब है अकाल के दौरान हमेशा खाद्य/भोजन सहायता पर ही जोर दिया जाता है। यह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिये तैयार बाजार का काम करता है। परन्तु पानी की निर्बाध व्यवस्था पर बात नहीं की जाती। यह एक ढाँचागत हिंसा है जो कि जान-बूझकर मनुष्य के मूल अस्तित्व, यानी पेट पर सीधे हमला करती है।

बार-बार इसका हल बताया जा चुका है कि एकल फसल और रसायन आधारित कथित ‘जलवायु अनुकूल कृषि’ मिट्टी की उर्वरा शक्ति नष्ट कर रही है। इसके बावजूद कोई भी किसानों को इनके अन्धे उपयोग से बचाने की पहल नहीं कर रहा है। अनेक किसान शिकायत कर रहे हैं कि उनकी मिट्टी सफेद और कठोर होती जा रही है। यह सब कुछ रसायनों के अधिक उपयोग का ही परिणाम है। परन्तु इससे बचने के बजाय रसायनों की मात्रा और बढ़ा दी जाती है।

मिट्टी की समस्या दिनोंदिन गम्भीर होती जा रही है। एक तरह से किसान अब नव उपनिवेशवाद के शिकार होते जा रहे हैं। अधिकाधिक फसल लेने की चाह में मिट्टी से खिलवाड़ हो रहा है। पारम्परिक खेती को नष्ट किया जा रहा है। गाँव में एकाध किसान के ही पास अब देशज बीज बचे हैं। बढ़ती विज्ञापन बाजी ने बीजों को संजोकर रखने की परम्परा को ही नष्ट कर दिया है। जबकि पारम्परिक बीज अधिक फसल देते हैं और कम पानी माँगते हैं।

हरित क्रान्ति जैसे विचार छोटे किसानों को बहिष्कृत कर देते हैं। केन्या के एक किसान का कहना है, “हम बिना खाद के अपनी फसल पैदा कर लेते थे। अगर अब हम अपनी देशी खाद का इस्तेमाल भी करते हैं तो वे कहते हैं कि इसमें भी रासायनिक खाद का मिश्रण करो।” इससे साफ जाहिर होता है कि किसान कारपोरेट के शिकंजे में फँस चुका है और पूरी कृषि उत्पादन प्रक्रिया उन्हीं के हाथों में चली गई है।

इसके विपरीत पूर्व एवं मध्य केन्या के किसान परिवर्तन के लिये अपनी खाद्य सुरक्षा यात्रा पर कूच कर चुके हैं। जैविक खेती और इससे सम्बन्धित संगठन बनाकर वे एकजुट हो गए हैं। एक तरह से वे अपनी पारम्परिक कृषि पर लौट रहे हैं। यह एक सकारात्मक स्थिति है। अब वे सामुदायिक खेती को भी अपना रहे हैं। इससे लैंगिग भेदभाव में भी कमी आ रही है। खेती पर निर्भर शिल्पकारों को भी इससे काम मिल रहा है।

अतएव स्पष्ट है कि छोटे किसान ही खाद्य समस्या का हल निकाल सकते हैं। इन सफलताओं के बावजूद छोटे किसानों के लिये बहुत कुछ किया जाना आवश्यक है। यह संघर्ष लम्बा चलने वाला है। हमें प्रणाली, नीति और कानून तीनों में परिवर्तन लाना होगा तभी किसानों का शोषण रुक सकता है। हमें यह भी समझना होगा कि खाद्यान्न की कीमतों का निर्धारण बाजार की माँग व पूर्ति निर्भर न हो बल्कि इसे किसान स्वयं तय करें।

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