काशी के ये गंगा रक्षक

15 May 2015
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गंगा नदी के पश्चिमी तट पर रियत काशी या कहें वाराणसी विश्व के प्राचीनतम नगरों में से एक माना जाता है। यह भारत की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में सुशोभित है। गंगा और उसके घाट यहाँ की पहचान हैं। काशी में मोक्ष प्राप्ति की मान्यता पुरानी है। इसलिए गंगा को अविरल-निर्मल रखने के लिए यहाँ हमेशा से प्रयत्न किये जाते रहे हैं।

जिस तरह काशी सम्पूर्ण सनातनधर्मी समाज की आस्था का केन्द्र है वैसे ही गंगा सम्पूर्ण विश्व के लिए समाज जीवन की एक प्रयोगशाला है। यही वजह है कि देश के किसी भी दूसरे शहर की बजाय बनारस में विदेशी नागरिकों का जमावड़ा सर्वाधिक रहता है। एक सदी पहले अविरल गंगा के लिए जो काम काशी के महामना ने किया, वही काम ‘निर्मल गंगा’ के लिए 1975 में उनके द्वारा स्थापित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो.वीरभद्र मिश्र को शुरू करना पड़ा। प्रो. वीरभद्र मिश्र तब बी.एच.यू. (आईटी) के प्राध्यापक थे और फिर काशी के प्रसिद्ध संकटमोचन मन्दिर के महन्त रहे। उन्होंने 1975 में पहली बार अपने लेख के माध्यम से गंगा जल में प्रदूषण की बात उजागर की। यह बात अलग है कि आज अविरल गंगा का मुद्दा छोड़ निर्मल गंगा की बात ही समाज और सरकार के कार्यक्रम के केन्द्र में है। ‘स्वच्छ गंगा अभियान’ को व्यवस्थित और व्यापक रूप से चलाने के लिए 1982 में महन्त प्रो. वीरभद्र मिश्र ने ‘संकटमोचन फाउन्डेशन’ की स्थापना की। उनके सहयोगी बने आईटी के ही डा.एस.के.मिश्र और डा.एस.एन.उपाध्याय। 1982 में ही प्रो.मिश्र ने प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी को वाराणसी में गंगा की स्वच्छता के लिए एक ज्ञापन दिया। यह प्रो. मिश्र का ही प्रयास था कि 1985 में प्रधानमन्त्री बनने के बाद राजीव गाँधी ने प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता वाले ‘गंगा अ‍थॉरिटी’ और 1986 ‘गंगा एक्शन प्लानन’ की शुरूआत की। जिसका लक्ष्य था घाटों का सौन्दर्यीकरण, नगर के मल-मूत्र गंगा में न जाए इसके लिए सीवेज पम्प और शौचालय के साथ तीन सीवेज ट्रीटमेन्ट प्लांट (एसटीपी) का निर्माण करना। 1993 में गंगा जल के जीवन और व्यवहार पर सतत शोध के लिए फाउन्डेशन ने ‘स्वच्छ गंगा शोध प्रयोगशाला’ की स्थापना की। आज भारत ही नहीं दुनिया भर के वैज्ञानिक गंगा जल पर चल रहे शोध कार्यों के लिए इस प्रयोगशाला का उपयोग कर रहे हैं। प्रो. वीरभद्र मिश्र के अभियान को अब उनके पुत्र महन्त प्रो. विशम्भर नाथ मिश्र आगे बढ़ा रहे हैं।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध नदी वैज्ञानिक प्रो.यू.के.चौधरी ने ‘अविरल गंगा-निर्मल गंगा’ के नारे को समग्रता में लेते हुए 1985 में गंगा की समस्या का समग्र दृष्टि से समाधान ढूँढने की कोशिश शुरू की। इसी वर्ष प्रो. चौधरी ने अपने शोध के तहत बीएचयू में ‘गंगा प्रयोगशाला’ की स्थापना की। अपने सिद्धान्तों पर अडिग रहने वाले प्रो.चौधरी अकेली ऐसी शख्सियत हैं जिन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली पिछली राजग सरकार में डा. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में बनी टिहरी डैम कमेटी के सदस्य के रूप में टिहरी बाँध को खारिज किया था। 2010 में प्रो.चौधरी ने महामना मालवीय इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी फॉर गंगा मैनेजमेन्ट की स्थापना की। जिसके अध्यक्ष पूर्व न्यायाधीश गिरधर मालवीय हैं।

सन 2008 में उत्तरकाशी में गंगा रक्षा के लिए आमरण अनशन करने वाले स्वामी सानन्द (प्रो. जी.डी.अग्रवाल) के अभियान की शुरूआत भी काशी में ही हुई। उत्तरकाशी जाने से पूर्व स्वामी सानन्द ने बनारस में तुलसी घाट पर, संकटमोचन फाउन्डेशन के मंच पर अपनी पीड़ा व्यक्त की थी।

सन 2003-04 में बनारस में डीआईजी (पीएसी) रहे आर.एन.सिंह के नेतृत्व में पीएसी के जवानों और नागरिकों ने गंगा घाटों की सफाई का सार्थक प्रयास शुरू किया। इसके पूर्व नगर के गंगा प्रेमी उद्योगपति शान्ति लाल जैन निजी प्रयासों से बाढ़ के बाद घाटों पर जमा हुई गाद की सफाई का प्रयास करते रहे। ‘वाराणसी नागरिक समाज’ के बैनर तले आर.एन.सिंह के नेतृत्व में शुरू हुआ घाटों की सफाई का काम लम्बे समय तक चला। बाढ़ के दिनों में घाटों की सफाई सम्भव न होने पर उनका ध्यान नगर के कुण्डों-तालाबों की सफाई की ओर गया। फिर नगर के पौराणिक और सामाजिक महत्त्व के कुण्डों-तालाबों की सफाई का जो अभियान शुरू हुआ, वह अनवरत जारी है। वाराणसी नागरिक समाज के छेदी लाल वर्मा और ललित मालवीय के साथ देव दीपावली समिति के आचार्य वागीश दत्त जैसे गंगा-पुत्र, गंगा और समाज के बीच संवाद सेतु के रूप में काम को आगे बढ़ा रहे हैं।

गंगा बचाओ की गुहार लगाकर अपने प्राणों की आहुति देने वाले स्वामी नागनाथ को याद किए बिना काशी अधूरा रहेगा। जैसे हरिद्वार में गंगा में अवैध खनन रोकने के लिए स्वामी निगमानन्द आमरण अनशन कर बलिदान दिया वैसे ही स्वामी नागनाथ ने गंगा बचाने के लिए अन्न-जल त्याग कर अपने प्राणों की आहुति दी। गंगा सफाई को अपना सामाजिक उत्तरदायित्व समझकर परम्परागत ढँग से काम करने वाले निषाद समाज का संगठन ‘वाराणसी निषाद राज कल्याण सेवा समिति’ भी है। निषाद समाज के लोग गंगा में डूबे हुए लोगों को बचाने और निकालने के महत्त्वपूर्ण काम में लगे हैं।

गंगा सेवा की समाज साधना के बीच सरकारी निधि के मोह में कुछ ऐसे समूह और व्यक्ति भी समय-समय पर दिखाई दिए जिनकी नीयत हमेशा सन्देहास्पद रही। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती के शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द का ‘गंगा रक्षा अभियानम’ ऐसा ही प्रयास रहा जो अखबारी बयानबाजी से आगे नहीं बढ़ पाया। अविमुक्तेश्वरानन्द जैसी भूमिका में ही पेशे से चिकित्सक डा. हेमन्त गुप्ता हैं। उनका ‘पंचगंगा फाउन्डेशन’ भी महज कागजी खानापूर्ति है। ऐसे छद्म समाजसेवियों के कारण ही सार्थक प्रयासों की विश्वसनीयता भी सन्देह के घेरे में आ जाती है।

बहरहाल बनारस में एक कहावत प्रचलित है- ‘‘चना चबेना गंग जल और करे पुरवार, काशी कबहुं न छाड़िए विश्वनाथ दरबार’’। आस्था का यही वह सूत्र है जिसके सहारे उत्तरकाशी से काशी होते हुए गोमुख से निकली गंगा, गंगासागर तक मोक्षदायिनी के रूप में बहती जा रही है। समाज की साधना और सरकार की निधि गंगा की निर्मलता और अविरलता कायम रखने में कितनी कारगर होगी, यह तो वही जाने। लेकिन नीति, नीयत और निधि के भँवर में फँसे बिना गंगा सतत प्रवाहमान है।

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