कब सुनेंगे हिमालय का हाहाकार : केदारनाथ त्रासदी का एक साल

15 Jun 2014
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हिमालय चीख-चीखकर पूछ रहा है कि जब मैं मिट जाऊंगा, तब जागोगे तुम लोग? पहाड़ों से चौतरफा छेड़छाड़ ने हिमालय के मायने बदल दिए हैं। यह पर्वत श्रृंखला न सिर्फ विकास की भेंट चढ़ी है, बल्कि आतंकवाद और सीमाविवाद ने भी इसे झकझोरा है। पहाड़ की हरियाली-खुशहाली तबाह कर दी गई। आज तपस्वियों जैसी शांत पहाड़ियों पर जमी भारी-भरकम तोपें हिमालय को मुंह चिढ़ा रही हैं...

हिमालय को जब जयशंकर प्रसाद अपनी आंखों से निहारते हैं तो बरबस ही बोल पड़ते हैं- अचल हिमालय की शोभनतम लता कलित शुचि शानु शरीर, निद्रा में सुख स्वप्न देखता जैसे पुलकित हुआ अधीर। हिमालय सिर्फ पहाड़ ही नहीं है, भारतीय परिवेश में पर्वतराज हिमालय हमारी भारतीय संस्कृति के पहले गवाह हैं जिन्होंने यहां आदिम युग से आधुनिक युग के हर दौर को देखा है, महसूस किया है। पुरातन युग से नूतन सभ्यता-संस्कृति के ध्वजवाहक हिमालय राज ने विगत वर्षो में रौद्र और रास के जल से कितना अभिषेक और अवगाहन किया है। हिमालय हमारा सिर्फ पालक और प्रहरी ही नहीं है, न ही यह सिर्फ शांति, सौंदर्य और रोमांच भर है, बल्कि इस सबसे कहीं आगे हमारे अस्तित्व की सबसे बड़ी जरूरत या कहें कि जीवन आधार है हिमालय। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि हिमालय को अगर भारतीय साहित्य और इतिहास से हटा लिया जाए तो वह बहुत निष्प्राण हो जाएगा। हिमालय हमारा प्रहरी है। देवभूमि है। रत्नखान है। इतिहास विधाता है। संस्कृति का मेरुदंड है।

अडिग, विराट और आदिम दुर्गमता की मिसाल से बढ़कर हमारे लिए एक बेहद नाजुक रिश्ते की तरह है हिमालय। चूंकि वर्तमान में हिमालय के साथ प्रकृति की परिभाषा पूरी बदल चुकी है, सो प्राकृतिक नैसर्गिकता और मानव की आधुनिक उपलब्धियों के बीच का संतुलन गड़बड़ा गया है। मानव और प्रकृति के बीच का बहुत ही झीना और सलीकेदार रिश्ता टूट रहा है। प्रदूषण की भयंकर पीड़ा से कराहते पहाड़, कांपते जंगल, सिकुड़ते हिमनदों से हांफती नदियां अब हिमालय की दुर्दशा की पहचान हैं। हमने अपने विकास की खातिर हिमालय को जंजीरों से बांध दिया है। उसके जंगल, नदियां, फूल-फल-पत्तियां, चिड़िया-मछलियां-तितलियां सबको हमने कैद कर लिया है। प्राकृतिक व्यवस्था को हम चुनौती दे रहे हैं। हमने प्रकृति को परखनली में उतारने की कोशिश की है। अब स्थिति यह बन गई है कि कालिदास का मेघदूत किसी के लिए संदेशा नहीं लाता, अब बारिश वरदान नहीं-अभिशाप की तरह पहाड़ को डराती है। पता नहीं, कब ये मेघ फट जाएं और तबाही आ जाए। हमने विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन की दीवार तोड़ डाली है। विकास के नए शब्दकोश में नदी का मतलब जल विुत परियोजना और पहाड़ का मतलब महज पर्यटन रह गया है। विडंबना तो यह है कि विकास के नाम पर हम नदियों-पहाड़ियों के फैलाव को सुरंगों में समेट रहे हैं। जब हमारी सोच इतनी संकीर्ण हो चली है तो दृष्टिकोण बड़ा और व्यापक कैसे हो सकता है?

इसी सबका नतीजा था कि पिछले साल उत्तराखंड की केदारघाटी में हमारे साथ वही हुआ, जिसके बीज जाने-अनजाने हमने बोए हैं। विकास का जो मॉडल हमने स्वीकार किया है, वह असल में विकास नहीं, अपितु पहाड़ों के शोषण का मॉडल है। पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा कहते हैं कि इस शाश्वत सत्य को सब भूल जाते हैं कि भूगर्भीय परिभाषा के लिहाज से हिमालय दुनिया की सबसे नई पर्वत श्रंखला है। इसका क्षरण होना लाजिमी है। वक्त का तकाजा है कि अब इसके साथ बलात छेड़छाड़ न की जाए। इसके संवेदनशील चरित्र को समझकर ही विकास की योजनाएं लागू की जाएं। बकौल बहुगुणा, हिमालय चीख-चीखकर पूछ रहा है कि जब मैं मिट जाऊंगा, तब जागोगे तुम लोग? पहाड़ों से चौतरफा छेड़छाड़ ने हिमालय के मायने बदल दिए हैं। यह पर्वत श्रंखला न सिर्फ विकास की भेंट चढ़ी है, बल्कि आतंकवाद और सीमाविवाद ने भी इसे झकझोरा है। पहाड़ की हरियाली-खुशहाली तबाह कर दी गई। आज तपस्वियों जैसी शांत पहाड़ियों पर जमी भारी-भरकम तोपें हिमालय को मुंह चिढ़ा रही हैं। हिमालय पर दावे के संघर्ष के कारण पूरा कश्मीर और पूवरेत्तर के सभी सात पहाड़ी राज्य अशांत हैं। धरती का स्वर्ग कश्मीर तीन दशकों के ऊपर से सुलग रहा है। वहां मनुष्य और प्रकृति का सामंजस्य पूरी तरह बिखर चुका है- फौजी ट्रकों की घरघराहट और आतंकियों की कारगुजारियों से कश्मीर बेचैन है। श्रीनगर, बारामुला, किश्तवाड़, कुपवाड़ा, डोडा, पुंछ और राजौरी जैसे रूमानी पहाड़ों से अब रूमानियत के गीत खत्म हो चुके हैं। इनके कस्बों की शांति भंग हो चुकी है और यहां सरहदों पर आए दिन कुछ-न-कुछ नाफरमानियां होती रहती हैं। बर्फ , बारिश, बादल, पेड़, पहाड़ की भाषा समझने वाली आंखें अब दहशतगर्द, चरमपंथी, दंगा, कर्फ्यू जैसी बेसुरी चीजों को देखने की आदी हो चुकी हैं।

सिर्फ यह आतंक ही नहीं, विकास के नाम पर अंधाधुंध दोहन ने भी हिमालय और उत्तराखंड को आतंकित कर रखा है। यही वजह है कि यहां प्रकृति प्रतिशोध की मुद्रा में खड़ी है। केदारनाथ त्रासदी से पहले भी इन क्षेत्रों में प्रकृति ने बार-बार अपना क्रोध प्रदर्शित किया है। 1978 में उत्तरकाशी जिले की कनोडिया गाड में भारी भूस्खलन से उत्तरकाशी शहर को भारी नुकसान हुआ था। उस हादसे में 25 लोगों की मौत भी हुई थी। 1980 में उत्तरकाशी के ज्ञानसू कस्बे में बादल फटने से 28 लोगों की मौत का मंजर सामने आया और संपत्ति का भारी नुकसान हुआ था। फिर 1991 में ही उत्तरकाशी में आए भूकंप में हजारो लोग काल कवलित हो गए। 1998 में तत्कालीन चमौली जिले में ऊखी मठ के मन्सुना गांव में भूस्खलन से पूरा गांव ही जमींदोज हो गया था, जिसमें 69 लोगों की मौत हो गई थी। इसी वर्ष पिथौरागढ़ के मालपा क्षेत्र में भारी तबाही में 350 लोगों की मौत का तमाशा दुनिया ने देखा। 1999 में चमौली उत्तरकाशी व टिहरी में भूकंप में 110 लोग की मौतें हुईं और 2002 में टिहरी बुढ़ाकेदार के समीप अगुडा गांव में भारी भूस्खलन में पूरा गांव तबाह हो गया। 2003 में उत्तरकाशी में वरुणावत में भारी भूस्खलन से शहर के दर्जनों होटल व मकान ध्वस्त हुए तो 2012 में ही अस्सी गंगा व भागीरथी घाटी में बादल फटने से भारी तबाही हुई और 600 करोड़ की संपत्ति बर्बाद हो गई थी। ठीक एक साल पहले 16 जून, 2013 को केदारनाथ की त्रासदी आज भी लोगों की आंखों में नाच रही है। मालूम हो कि उत्तरकाशी से गंगोत्री के बीच के जिस इलाके को पूर्व में इको सेंसिटिव जोन बनाए जाने का विरोध किया गया था, वहीं मानसून की पहली बारिश में कई बड़ी और छोटी विद्युत परियोजनाओं को एक झटके में पिछले साल की आपदा ने ध्वस्त कर दिया।

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