कच्छ में प्रकृति का सुन्दर संतुलन


हमेशा की तरह मानसून समूचे देश में समय पर आये, न आये, अच्छी बरसात हो, न हो। इससे क्या फर्क पड़ता है, राजस्थान और गुजरात जैसे हमेशा सूखे की मार झेलने वाले इलाके जहाँ औसत बारिस सलाना 250 मिमी से अधिक नहीं है, हर वर्ष की तरह उन्हें तो इस बार भी पानी की कमी से जूझना ही है।

पिछले सप्ताह मैं, किसी काम से गुजरात के कच्छ में थी। वहां कहने को बादल तो थे लेकिन बारिश का नामोनिशां नहीं था, भीषण गर्मी थी, धूल भरे रेगिस्तान में कुछ सौ किलोमीटर का घूमना हुआ, रास्ते में मुरझाए “प्रोसोपिस जुलिफ़ोरा” के पौधे बड़ी मात्रा में दिखाई दिये, अन्य विदेशी किस्मों की तरह इन्हें भी वन विभाग ने शायद अच्छे इरादों से लगाया होगा, और अब वह एक स्थानीय प्रजाति बन चुके हैं। उस मरुस्थल में भी जीवन का अद्भुत सौन्दर्य दिखा, कहीं कोई नीलगाय या कहीं हरी-मधुमक्खियाँ, पराग की खोज में मस्ती में इधर-उधर घूम रही थीं।

गुजरात के कच्छ, राजस्थान के बाड़मेर और जैसलमेर के सूखे इलाके में अर्थव्यवस्था के मुख्य साधन हैं “मवेशी”, रास्ते में बड़ी तादाद में बकरियाँ, गायें, भेड़ें, भैंसें और ऊँट दिखे, मानो वे पानी की तलाश में आगे ही बढ़ते जा रहे हों। पर जानवर आधारित अर्थव्यवस्था में कम वर्षा वाले क्षेत्र अपने पड़ोसी राज्यों को माँस और दूध की आपूर्ति करते हैं, इस पर इवमी (इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट) ने एक शोध के जरिये यह स्पष्ट किया है कि किस तरह से इन पदार्थों के बेचने से पानी, सूखा प्रभावित इलाकों से तर इलाकों में जाता है। इससे सरकारी नीतियों पर कईं सवालिया निशान लग जाते हैं।

ग्रामीणों और किसानों से अगर बात करें तो आप तुरन्त जान जाएंगें कि इनका जीवन मवेशियों से कितना जुड़ा हुआ है। एक छोटे से गाँव हरिपर में हम एक रास्ते से गुजर रहे थे, जो कि हाल ही में बनाया गया था, ताकि ग्रामीण लोग उस इलाके में मौजूद कुँए से आसानी से पानी ला सकें। वह कुँआ कैचमेंट तालाब के किनारे ही खोदा गया है और ग्रामीणों को भरोसा है कि एक-दो बारिश मात्र से ही वह तालाब और कुँआ भर जायेंगे। गाँव की महिलायें पानी लाने के लिए इस नई सड़क से आती-जाती हैं। जब हमने पूछा कि ‘आप लोग इस कुँए में मोटर, पम्प और पाइप लाइन क्यों नहीं लगवा लेते?’ तो इस पर एक महिला ने जो जवाब दिया वाकई सीख देने वाला था, उसने कहा, “ऐसा इसलिये, ताकि समाज, पानी और जानवर का आपस में पूर्ण सन्तुलन बना रहे, यदि लोगों को पाइप लाइन से पानी मिलने लगेगा, तो पानी जल्दी खत्म होगा, और पाइपों के जरिये पानी को नियन्त्रित करना भी बेहद मुश्किल होगा। ऐसे में हमारे पालतू मवेशी जो इसी पानी पर निर्भर हैं, वे कैसे जियेंगे? और यदि मवेशी ही नहीं होंगे तब हमारा जीवन कैसे बचेगा? इससे तो किसी को फ़ायदा नहीं होने वाला”।

प्रकृति के साथ साहचर्य का यह ज्ञान तो पुराना ही है पर शायद हमने खो दिया था, लेकिन अब लगता है यह फिर से जी उठा है।

पहले अधिकतर परम्परागत वर्षाजल संजोने के तरीकों और जोहड़ आदि तथा जल प्रक्रियाओं पर सामाजिक नियन्त्रण था, जो कि लोगों ने छोड़ दिये थे, क्योंकि “सतही जल” का प्रलोभन कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था। इस इलाके में नर्मदा नहर के लिये बड़े पैमाने पर बुनियादी ढाँचा तैयार किया गया है। पर धीरे-धीरे अब यह साफ हो रहा है कि यह नहर अन्तिम छोर पर बसे लोगों के लिये स्थाई जल स्रोत नहीं बन सकती है। बड़े ही दुख के साथ और दिल में दर्द लिये, अब लोग पानी के लिये अपने मूलभूत तरीकों की तरफ़ वापस लौट रहे हैं, ऐसे तरीके जो उनके पुरखों के हैं, और सदियों से आजमाये हुए हैं।

खुशी की बात तो यह है कि राज्य सरकार उनकी मदद के लिये आगे आई है। सरकार ने यहाँ एक अभिनव भागीदारी परियोजना की शुरुआत की है, इसकी सफलता इस बात को नकार देगी कि सरकारें अपनी गलतियों को न तो स्वीकार करतीं हैं और न ही उन्हें सुधारना चाहती हैं। यहां एक स्वायत्त संस्था को पूरे वित्तीय संसाधनों के साथ स्थापित किया गया है, जो कि ग्राम पंचायतों और गैर-सरकारी संगठनों तथा दानदाताओं के साथ मिलकर एक स्थानीय प्रशासन का ढाँचा तैयार करेगी और इलाके में जल सुरक्षा के प्रति जवाबदेह होगी, ज़ाहिर है कि इसमें आम जनता की भागीदारी भी होगी। इससे स्पष्ट है कि बहुप्रचारित सतही जल योजनायें इलाके में पानी मुहैया कराने के लिये प्राथमिक स्रोत नहीं होंगी, बल्कि वे योजनायें एक “बैक-अप” अथवा यूं कहें कि अतिरिक्त स्रोत के रूप में काम करेंगी।

यह कार्य एक तरह से राज्य सरकार की प्राकृतिक तरीकों के प्रति जवाबदेही है, यह तरीका दूसरे अन्य राज्यों के लिये एक उदाहरण बन सकता है। उदाहरण के लिये समूचे देश की स्थानीय संस्थायें और नगरीय प्रशासन अपनी उन योजनाओं पर पुनर्विचार कर सकते हैं जिसमें वे सतही जल को किसी भी कीमत पर शहरों में लाने के लिये प्रयास कर रहे हैं।

इस बीच कच्छ में काम जारी है। नई तकनीक और नये तरीकों के उपयोग से लोग अब नवीनता से अपने जल स्रोतों की संरचना की तरफ़ सोचने लगे हैं। कुछ क्षेत्रों में सौर ऊर्जा से चलने वाले पम्प लगाये गये हैं ताकि बिजली की अनिश्चितता से बचा जा सके। पानी के भण्डारण और वितरण के लिये नई किस्म और नई डिजाइन के रिसाव टैंक बनाये जा रहे हैं। स्थानीय लोगों को इसके संचालन और संधारण (मेंटेनेन्स) के लिये प्रशिक्षित किया जा रहा है। कई गैर-सरकारी संगठन इस विशाल निर्माण क्षमता के अभ्यास में अपनी भागीदारी कर रहे हैं। अब इसके सामाजिक लाभ भी मिलने लगे हैं। असामान्य रूप से हमने कच्छ के हरिपुर और करमता गाँवों में कई सशक्त महिला नेत्रियों को देखा, जो आगे होकर और आगे रहकर विभिन्न चर्चाओं में भाग लेती हैं, जबकि पुरुष चुपचाप पिछली पंक्तियों में बैठे रहते हैं। लेकिन ग्रामीणों ने अपने लिये जो लक्ष्य निर्धारित किया है उसमें पूरे गाँव की ही मदद की आवश्यकता है। लोगों को अपनी ही पारिस्थितिकीय सीमाओं के भीतर रहने के लिए राजी करने का काम कोई छोटा काम नहीं है।

जो लोग पहले ही प्रकृति के साथ सन्तुलन बनाये हुए जीवनयापन कर रहे हैं अगर उनके लिये यह कठिन काम है, तो फिर हम जैसे बाकी लोगों के बारे में क्या? हमारे लिये तो यह और भी ज्यादा मुश्किल है।
 
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