कचरे के ढेर में सेहत का सवाल


एक मशहूर कहावत है कि ‘सेहत खरीदी नही जा सकती।’ इसका मतलब साफ है कि कुछ चीजें आप खरीद नहीं सकते लेकिन वे मानव जीवन के लिए अनिवार्य है और उन्हें मात्राओं और कीमतों की कसौटी पर रख कर नहीं देखा जा सकता। दरअसल, यह बात कुछ समय पहले दिल्ली के मायापुरी इलाके में हुई विकिरण की घटना के संदर्भ में कही जा रही है कि किसी भी समुदाय में ठोस कचरे का उचित प्रबंधन न केवल लोगों की सेहत के लिहाज से जरूरी है, बल्कि इससे आखिरकार समाज की फायदे में रहता है।

सवाल है कि मायापुरी इलाके में विकिरण की गंभीर घटना के बावजूद हमने क्या सबक लिया? वहां कबाड़ में पाए गए कोबाल्ट-60 के विकिरण से कबाड़ी वालों और कई दूसरे लोगों के बीमार होने की घटना से उपजे संकट के क्या संकेत हैं? क्या यह केवल दिल्ली विश्वविद्यालय में विकिरण फैलाने वाले कचरे के निपटान में लापरवाही का मामला है? क्या शोध संस्थानों और स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का सिर्फ बीमा कराए जाने के कानूनी प्रावधान ऐसी आपदाओं की रोकथाम के लिए पर्याप्त साबित होंगे? विकिरण फैलाने वाले कचरे के निपटान के मामले में हमारी नीतियां इतनी अदूरदर्शी क्यों हैं और दूसरे कचरों के निपटान से भी कौन-से खतरे जुड़े हैं?

ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिन पर सरकार को तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। यह याद रखना चाहिए कि अशिक्षा और जागरुकता के अभाव के कारण कचरा जमा करने वाले लोगों की जान हमेशा जोखिम में रहती है, जिसकी कीमत हम पैसों से नहीं लगा सकते। नीति-निर्माताओं को ठोस कचरा जमा करने और उसमें से जरूरत की चीजें अलग करने में लगे असंगठित क्षेत्र के लोगों को शिक्षित करने और उन्हें उचित प्रशिक्षण देने की व्यवस्था कराने की तत्काल कोशिश करनी चाहिए।

हालांकि हमारे देश में आमतौर पर अनौपचारिक क्षेत्र के लोग घरों और व्यावसायिक संस्थानों से ठोस कचरे का संग्रहण और उचित तरीके प्रबंधन करते हैं। इसलिए घर-घर जाकर कचरा उठाने के मामले में इस क्षेत्र के साथ नगर निगम का तालमेल काफी उपयोगी हो सकता है। स्वयंसेवी संगठनों के माध्यम से चलने वाले ये अनौपचारिक क्षेत्र काफी संगठित तरीके से चलते हैं और इन्हें संयंत्र और वाहन आदि के रूप में कुछ आर्थिक सहायता मुहैया कराई जा सकती है और इसमें लगे लोगों को गुजर-बसर के लिए कचरे में से निकाली गई उपयोगी वस्तुओं को रीसाइकिलिंग के लिए बेचने की इजाजत देनी चाहिए। सिंगापुर जैसे विकसित देशों में कचरा संग्रहण के काम में लगे स्वयंसेवी संगठनों और दूसरे निजी क्षेत्रों के पास राष्ट्रीय पर्यावरण एजेंसी से जारी लाइसेंस का होना अनिवार्य है।

कानूनी तंत्र और निगरानी व्यवस्था की विफलता मायापुरी में विकिरण जैसे हादसों का बार-बार कारण बनेगी। और जिस तरह पिछले कुछ सालों में सस्ते श्रम के कारण हमारा देश दुनिया भर में कचरा निपटाने और उसके व्यापार के एक सबसे बड़े केंद्र के रूप में देखा जाने लगा है, ऐसे हादसे कई गंभीर आयाम ग्रहण कर ले सकते हैं। नगर निगम और निजी क्षेत्र में प्रशिक्षित कचरा चुनने वालों के लिए रोजगार को लेकर बनाई नीतियों को ठीक से क्रियान्वित किया जाना चाहिए।

हालांकि हमारे देश में आमतौर पर अनौपचारिक क्षेत्र के लोग घरों और व्यावसायिक संस्थानों से ठोस कचरे का संग्रहण और उचित तरीके प्रबंधन करते हैं। इसलिए घर-घर जाकर कचरा उठाने के मामले में इस क्षेत्र के साथ नगर निगम का तालमेल काफी उपयोगी हो सकता है। स्वयंसेवी संगठनों के माध्यम से चलने वाले ये अनौपचारिक क्षेत्र काफी संगठित तरीके से चलते हैं और इन्हें संयंत्र और वाहन आदि के रूप में कुछ आर्थिक सहायता मुहैया कराई जा सकती है और इसमें लगे लोगों को गुजर-बसर के लिए कचरे में से निकाली गई उपयोगी वस्तुओं को रीसाइकिलिंग के लिए बेचने की इजाजत देनी चाहिए। भारत में कचरा चुनने के काम में लगे लोग कचरे से सीधे संपर्क में रहते हैं और लगातार खतरों का सामना कर रहे होते हैं। खासतौर पर चिकित्सा के काम में इस्तेमाल होने वाले साजो-सामान का कचरा सामान्य कचरे में मिला दिए जाने के अलावा इस काम को करते हुए जिस तरह उन्हें धूल और धुंए का सामना करना पड़ता है, वह आखिरकार उनकी सेहत के लिए काफी खतरनाक होता है। अपनी सेहत का जोखिम उठा कर भी लोग इस काम में लगे हैं, उनके सुरक्षा के मसले पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है।

सच तो यह है कि मायापुरी में विकिरण की घटना के मद्देनजर सरकार को कबाड़ में काम करने वाले लोगों को अनिवार्य प्रशिक्षण और लाइसेंस देने के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य बीमा कराने जैसे कदम तुरंत उठाने चाहिए।

भारत फिलहाल शहरों और महानगरों के ठोस कचरे से उपजे संकट का सामना कर रहा है, जिसके लिए समाज के सभी तबके जिम्मेदार हैं।

इस मसले पर सामुदायिक संवेदनशीलता और जन जागरुकता लगभग नहीं के बराबर है। हमारे यहां घर के स्तर पर कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थों और पुनर्शोधित कर सकने लायक कचरे को अलगाने की कोई व्यवस्था नहीं है। हालांकि देश में शहरी ठोस कचरा प्रबंधन को लेकर पर्याप्त कानूनी प्रावधान हैं, लेकिन विडंबना यह है कि उन पर अमल नहीं होता। इसके लिए सामाजिक, तकनीकी, सांस्थानिक और वित्तिय मुद्दे जिम्मेदार हो सकते हैं। जबकि नियम-कायदों पर सही तरीके से अमल के लिए जन जागरुकता, राजनीतिक इच्छाशक्ति और जन भागीदारी सबसे जरूरी है।

सरकारी नियम है कि पचास से ज्यादा बिस्तरों वाले अस्पतालों से निकले कचरे के निपटान के लिए अपना भस्मीकरण संयंत्र होना चाहिए। चूंकि यह संयंत्र लगाना और उसके रख-रखाव का काम काफी खर्चीला है, इसलिए ज्यादातर अस्पतालों में इस महत्वपूर्ण तकनीक लगाने या इसके इस्तेमाल के प्रति उदासीनता बरती जाती है।

साफ है कि अस्पतालों और कचरा निष्पादन संयंत्रों की क्षमता के मुताबिक प्रति व्यक्ति औसत कचरा उत्सर्जन के मानकों को लेकर मौजूदा सरकारी नीतियों का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए। हमें एक ऐसा माहौल बनाने की जरूरत है जहां कचरा या कबाड़ को केवल उसके शाब्दिक अर्थों में न लिया जाए। अगर ‘कचरा प्रबंधन’ को ‘संसाधन प्रबंधन’ के रूप में देखा जाए तो बहुत सारी मुश्किलों का हल अपने आप हो जाएगा।

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