बजट में औद्योगिक कॉरिडोर पर जबरदस्त जोर दिया गया है। यदि गुजरात मॉडल के हिसाब से चले तो बड़े पैमाने पर जबरन एवं फुसलाकर विस्थापन एवं प्रदूषण होगा। यह संघर्ष और सामाजिक टकराव को भी हवा देगा। जुलाई की शुरुआत में ही महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में मुंबई-दिल्ली औद्योगिक कारिडोर हेतु प्रस्तावित 65000 एकड़ भूमि अधिग्रहण के खिलाफ विशाल प्रदर्शन हुए थे। बजट में कई वर्षों से चर्चा में रही नदी जोड़ परियोजना हेतु भी पहल की गई है। जेटली के भाषण में इस बात पर विलाप किया गया है कि भारत को “सभी तरफ सदानीरा नदियों का वरदान नहीं मिला है।” “चूंकि वर्ष 2015 सुस्थिर विकास एवं जलवायु परिवर्तन नीति के हिसाब से ऐतिहासिक वर्ष होगा अतः सन् 2014 सभी भागीदारों के लिए आत्मविश्लेषण करने का आखिरी मौका होगा कि वे समझदारी से चुन सकें कि वे सन् 2015 के बाद कैसी दुनिया चुनना चाहते हैं।” यह महत्वपूर्ण वाक्य भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण 2013-14 में लिखे गए हैं। इसका संदर्भ वर्तमान सहस्त्राब्दी लक्ष्यों जिनकी अवधि सन् 2015 तक की है, को बदलकर सुस्थिर विकास लक्ष्यों को नए सिरे से तैयार करना है।
सवाल उठता है बकाया सर्वेक्षण और बजट में आत्मविश्लेषण दिखाई देता है? नई दिल्ली में बैठे शक्ति के नए केन्द्र क्या वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भविष्य की पीढ़ियों के हितों की रक्षा हेतु समझदारी दिखाएंगे? वर्तमान पीढ़ी के करोड़ों लोग जो कि सीधे-सीधे प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है, उनकी आजीविका अधिक सुरक्षित कैसे होगी?
पहले अच्छी खबरों पर नजर डालते हैं। इसमें यूपीए सरकार का नाम लिए बिना उसके द्वारा तय अनेक लक्ष्यों खासकर राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना मिशन को इसका एक हिस्सा माना है। साथ ही सकल घरेलू उत्पाद में उत्सर्जन की गहनता को कम करने का भी महत्वपूर्ण लक्ष्य रखा है। जिसका अर्थ है निम्न कार्बन उत्सर्जन आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ना।
वैसे बजट में भी अनेक प्रावधान हैं जो कि “सुस्थिर विकास और हरित अर्थव्यवस्था” के पैराकारों को आनंदित करेंगे। इसमें प्रमुख हैं स्वच्छ ऊर्जा आधारित तकनीकें, गंगा की सफाई के लिए अधिक धन, वाटरशेड विकास को प्रोत्साहन और जहरीले कचरे से बुरी तरह प्रभावित इलाकों में पानी स्वच्छीकरण हेतु आर्थिक प्रावधान।
ऊर्जा उपकर की राशि को प्रतिटन कोयला 50 रु. से बढ़ाकर 100 रु. कर दिया गया है। सर्वेक्षण में सुस्थिर विकास और जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित अध्ययन पर अलग अध्याय है। जबकि इसे सभी अध्यायों के साथ गुथा होना चाहिए था।
सर्वेक्षण में उद्योग से संबंधित अध्याय में स्वीकार किया गया है कि यह (उद्योग) “प्राकृतिक संसाधानों (जीवाष्म, खनिज, लकड़ी) पानी, वायु, तटीय समुद्री एवं भूमि के दूषित होने, स्वास्थ्य संबंधी जोखिम, प्राकृतिक ईकोसिस्टम में गिरावट एवं जैवविविधता की हानि के लिए जिम्मेदार है।” लेकिन न तो इस अध्याय में और न ही अन्यत्र कोई समाधान सुझाया गया है।
कृषि एवं खाद्य संबंधित अध्याय में न तो रासायनिक खादों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से स्वास्थ्य पर पड़ने वाली विपरीत परिणामों का उल्लेख है और न ही सुस्थिर विकास एवं जलवायु परिवर्तन वाले अध्याय में इन खादों से उत्पन्न उत्सर्जन को कम करने की आवश्यकता पर कुछ कहा गया है। वास्तव में केन्द्रीय बजट में खाद सब्सिडी में वृद्धि की गई है और जैविक खेती की ओर बढ़ने की सलाह की अनदेखी की गई है।
जहां उत्तरपूर्वी भारत में जैविक खेती के प्रोत्साहन हेतु ऊंट के मुंह में जीरा की मानिंद मात्र 100 करोड़ रु. का प्रावधान किया गया वहीं रासायनिक खादों की सब्सिडी हेतु 70000 करोड़ रु. से अधिक का प्रावधान किया गया है। इतना ही नहीं आर्थिक सर्वेक्षण में कहीं भी सूखी खेती एवं लोगों एवं मिट्टी का स्वास्थ्य सुधारने हेतु मोटे अनाज की खेती के पुनरुद्धार की बात नहीं कही गई है।
आर्थिक सर्वेक्षण के पारिस्थितिकीय दिवालियेपन के बारे में काफी कुछ और कहा जा सकता है। पर अब हम 10 जुलाई को वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत बजट की ओर मुड़ते हैं। यह आश्चर्यजनक है कि 53 पृष्ठों के इस बजट भाषण में सुस्थिर विकास, वनों, वन्य जीवन, जैवविविधता और पारिस्थितिकी पर बहरा कर देने वाला सन्नाटा छाया हुआ था।
गौरतलब है हमारे एक चौथाई देश पर वन, चारागाह, वेटलैंड (आर्द्रभूमि) और अन्य प्रकार के ईकोसिस्टम (पारिस्थितिकीय) मौजूद हैं और 50 करोड़ लोग सीधे-सीधे इस पर निर्भर हैं। लेकिन जब देश के धन के आवंटन की बात आती है तो फिर लगने लगता है कि जैसे यह सब कुछ अस्तित्व में ही नहीं है।
आदिवासी कल्याण के लिए काफी धन दिया गया है, लेकिन इससे यह अंदाजा नहीं लगता कि इन लोगों के प्रकृति व संस्कृति के आपसी संबंधों में हस्तक्षेप रुकेगा या पूर्ववर्ती सरकारों की तरह चलता रहेगा। सौर ऊर्जा क्षेत्र में किया गया आबंटन अच्छी खबर जान पड़ रहा था। परंतु गौर से देखने पर पता चलता है कि यह ऊर्जा के कुल बजट का मात्र 0.6 प्रतिशत ही है और बड़ा हिस्सा, कोयला, बड़ी जलविद्युत एवं परमाणु परियोजनाओं जैसे गंदे स्रोतों को आवंटित कर दिया गया है।
“सन् 2014-15 के बजट के मुख्य आकर्षण” नामक दस्तावेज में पर्यावरण पर कोई खंड नहीं है। जेटली के भाषण में भी पर्यावरण का उल्लेख मात्र कोयला, स्वच्छ ऊर्जा उपकर एवं खनन के संदर्भ में ही आया है। खनन के क्षेत्र में सुस्थिरता का वायदा बरसों से किया जा रहा है लेकिन इसके क्रियान्वयन का गंभीर प्रयास किसी भी सरकार ने नहीं किया।
देखते हैं एनडीए क्या कुछ बेहतर कर पाएगी। वैसे ऐसा होना चकित करने वाला ही होगा, क्योंकि सरकार ने तो तेजी से पर्यावरण स्वीकृतियां देना प्रारंभ कर दिया है और इस संबंध में स्व निगरानी रखने वाली कंपनियां जिनकी निगाह में अनिवार्य प्रावधानों का लेशमात्र भी सम्मान नहीं है वे भी अपना प्रस्ताव भेजने वाली हैं।
बजट में औद्योगिक कॉरिडोर पर जबरदस्त जोर दिया गया है। यदि गुजरात मॉडल के हिसाब से चले तो बड़े पैमाने पर जबरन एवं फुसलाकर विस्थापन एवं प्रदूषण होगा। यह संघर्ष और सामाजिक टकराव को भी हवा देगा। जुलाई की शुरुआत में ही महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में मुंबई-दिल्ली औद्योगिक कारिडोर हेतु प्रस्तावित 65000 एकड़ भूमि अधिग्रहण के खिलाफ विशाल प्रदर्शन हुए थे।
बजट में कई वर्षों से चर्चा में रही नदी जोड़ परियोजना (विस्तृत परियोजना रिपोर्ट हेतु 100 करोड़ रु.) हेतु भी पहल की गई है। जेटली के भाषण में इस बात पर विलाप किया गया है कि भारत को “सभी तरफ सदानीरा नदियों का वरदान नहीं मिला है।”
दूसरी ओर यूपीए और एनडीए दोनों ही विशेषज्ञों की उन रिपोर्टों की अनदेखी कर रही हैं जिन्होंने चेताया था कि इतने बड़े आकार के इंजीनियरिंग परियोजनाओं से जबरदस्त पारिस्थितिकीय विघटन एवं सामाजिक विस्थापन होगा। इसी के साथ यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि देश के सूखे इलाकों एवं अन्य स्थानों पर जलसुरक्षा हेतु किए गए छोटे-छोटे उपायों की भी अवहेलना की गई है।
मैंने ऊपर कहा है कि जेटली द्वारा महत्वपूर्ण पारिस्थितिकीय शर्तों को भूल जाना आश्चर्यजनक है। संभवतः ऐसा नहीं है। वास्तविकता यह है कि भारत के कारपोरेट जगत ने कमोवेश एकस्वर से इस बजट का स्वागत किया है। यह इस बात का सूचक है कि एनडीए भी यूपीए के नव उदारवादी रास्ते पर और भी अधिक रफ्तार से दौड़ेगी।
इस तरह की कार्ययोजना (एजेंडे) में उद्योग और वाणिज्य की राह आसान कर वृद्धि पर इस अनुमान के आधार पर केंद्रित किया जाता है कि ऐसा व्यापक आर्थिक घालमेल गरीबों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने में मदद करेगा। तथ्य तो यह है कि वर्ष 1990 एवं 2000 के दशकों में जबरदस्त आर्थिक वृद्धि के बावजूद रोजगार की स्थिति बदतर (नवीनतम आंकड़े 15 प्रतिशत बेरोजगारी बता रहे हैं) हुई थी और 70 प्रतिशत भारतीयों को आज भी जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं उपलब्ध नहीं हैं।
हमारी वृद्धि को लेकर विश्व बैंक के सन् 2013 के अध्ययन भी बता रहे हैं कि पर्यावरणीय विध्वंस ने हमारे सकल घरेलू उत्पाद में 5.7 प्रतिशत की चोट पहुंचाई है। अपने पूर्ववर्तियों की तरह यह बजट भी एक बड़ी तस्वीर प्रस्तुत कर रहा हैं, लेकिन इसमें किसी भी ऐसे नवाचार का अभाव है, जिससे कि भारत पारिस्थितिकीय सुस्थिरता व न्याय की दिशा में कदम बढ़ा सके।
सवाल उठता है बकाया सर्वेक्षण और बजट में आत्मविश्लेषण दिखाई देता है? नई दिल्ली में बैठे शक्ति के नए केन्द्र क्या वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भविष्य की पीढ़ियों के हितों की रक्षा हेतु समझदारी दिखाएंगे? वर्तमान पीढ़ी के करोड़ों लोग जो कि सीधे-सीधे प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है, उनकी आजीविका अधिक सुरक्षित कैसे होगी?
पहले अच्छी खबरों पर नजर डालते हैं। इसमें यूपीए सरकार का नाम लिए बिना उसके द्वारा तय अनेक लक्ष्यों खासकर राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना मिशन को इसका एक हिस्सा माना है। साथ ही सकल घरेलू उत्पाद में उत्सर्जन की गहनता को कम करने का भी महत्वपूर्ण लक्ष्य रखा है। जिसका अर्थ है निम्न कार्बन उत्सर्जन आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ना।
वैसे बजट में भी अनेक प्रावधान हैं जो कि “सुस्थिर विकास और हरित अर्थव्यवस्था” के पैराकारों को आनंदित करेंगे। इसमें प्रमुख हैं स्वच्छ ऊर्जा आधारित तकनीकें, गंगा की सफाई के लिए अधिक धन, वाटरशेड विकास को प्रोत्साहन और जहरीले कचरे से बुरी तरह प्रभावित इलाकों में पानी स्वच्छीकरण हेतु आर्थिक प्रावधान।
ऊर्जा उपकर की राशि को प्रतिटन कोयला 50 रु. से बढ़ाकर 100 रु. कर दिया गया है। सर्वेक्षण में सुस्थिर विकास और जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित अध्ययन पर अलग अध्याय है। जबकि इसे सभी अध्यायों के साथ गुथा होना चाहिए था।
सर्वेक्षण में उद्योग से संबंधित अध्याय में स्वीकार किया गया है कि यह (उद्योग) “प्राकृतिक संसाधानों (जीवाष्म, खनिज, लकड़ी) पानी, वायु, तटीय समुद्री एवं भूमि के दूषित होने, स्वास्थ्य संबंधी जोखिम, प्राकृतिक ईकोसिस्टम में गिरावट एवं जैवविविधता की हानि के लिए जिम्मेदार है।” लेकिन न तो इस अध्याय में और न ही अन्यत्र कोई समाधान सुझाया गया है।
कृषि एवं खाद्य संबंधित अध्याय में न तो रासायनिक खादों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से स्वास्थ्य पर पड़ने वाली विपरीत परिणामों का उल्लेख है और न ही सुस्थिर विकास एवं जलवायु परिवर्तन वाले अध्याय में इन खादों से उत्पन्न उत्सर्जन को कम करने की आवश्यकता पर कुछ कहा गया है। वास्तव में केन्द्रीय बजट में खाद सब्सिडी में वृद्धि की गई है और जैविक खेती की ओर बढ़ने की सलाह की अनदेखी की गई है।
जहां उत्तरपूर्वी भारत में जैविक खेती के प्रोत्साहन हेतु ऊंट के मुंह में जीरा की मानिंद मात्र 100 करोड़ रु. का प्रावधान किया गया वहीं रासायनिक खादों की सब्सिडी हेतु 70000 करोड़ रु. से अधिक का प्रावधान किया गया है। इतना ही नहीं आर्थिक सर्वेक्षण में कहीं भी सूखी खेती एवं लोगों एवं मिट्टी का स्वास्थ्य सुधारने हेतु मोटे अनाज की खेती के पुनरुद्धार की बात नहीं कही गई है।
आर्थिक सर्वेक्षण के पारिस्थितिकीय दिवालियेपन के बारे में काफी कुछ और कहा जा सकता है। पर अब हम 10 जुलाई को वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत बजट की ओर मुड़ते हैं। यह आश्चर्यजनक है कि 53 पृष्ठों के इस बजट भाषण में सुस्थिर विकास, वनों, वन्य जीवन, जैवविविधता और पारिस्थितिकी पर बहरा कर देने वाला सन्नाटा छाया हुआ था।
गौरतलब है हमारे एक चौथाई देश पर वन, चारागाह, वेटलैंड (आर्द्रभूमि) और अन्य प्रकार के ईकोसिस्टम (पारिस्थितिकीय) मौजूद हैं और 50 करोड़ लोग सीधे-सीधे इस पर निर्भर हैं। लेकिन जब देश के धन के आवंटन की बात आती है तो फिर लगने लगता है कि जैसे यह सब कुछ अस्तित्व में ही नहीं है।
आदिवासी कल्याण के लिए काफी धन दिया गया है, लेकिन इससे यह अंदाजा नहीं लगता कि इन लोगों के प्रकृति व संस्कृति के आपसी संबंधों में हस्तक्षेप रुकेगा या पूर्ववर्ती सरकारों की तरह चलता रहेगा। सौर ऊर्जा क्षेत्र में किया गया आबंटन अच्छी खबर जान पड़ रहा था। परंतु गौर से देखने पर पता चलता है कि यह ऊर्जा के कुल बजट का मात्र 0.6 प्रतिशत ही है और बड़ा हिस्सा, कोयला, बड़ी जलविद्युत एवं परमाणु परियोजनाओं जैसे गंदे स्रोतों को आवंटित कर दिया गया है।
“सन् 2014-15 के बजट के मुख्य आकर्षण” नामक दस्तावेज में पर्यावरण पर कोई खंड नहीं है। जेटली के भाषण में भी पर्यावरण का उल्लेख मात्र कोयला, स्वच्छ ऊर्जा उपकर एवं खनन के संदर्भ में ही आया है। खनन के क्षेत्र में सुस्थिरता का वायदा बरसों से किया जा रहा है लेकिन इसके क्रियान्वयन का गंभीर प्रयास किसी भी सरकार ने नहीं किया।
देखते हैं एनडीए क्या कुछ बेहतर कर पाएगी। वैसे ऐसा होना चकित करने वाला ही होगा, क्योंकि सरकार ने तो तेजी से पर्यावरण स्वीकृतियां देना प्रारंभ कर दिया है और इस संबंध में स्व निगरानी रखने वाली कंपनियां जिनकी निगाह में अनिवार्य प्रावधानों का लेशमात्र भी सम्मान नहीं है वे भी अपना प्रस्ताव भेजने वाली हैं।
बजट में औद्योगिक कॉरिडोर पर जबरदस्त जोर दिया गया है। यदि गुजरात मॉडल के हिसाब से चले तो बड़े पैमाने पर जबरन एवं फुसलाकर विस्थापन एवं प्रदूषण होगा। यह संघर्ष और सामाजिक टकराव को भी हवा देगा। जुलाई की शुरुआत में ही महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में मुंबई-दिल्ली औद्योगिक कारिडोर हेतु प्रस्तावित 65000 एकड़ भूमि अधिग्रहण के खिलाफ विशाल प्रदर्शन हुए थे।
बजट में कई वर्षों से चर्चा में रही नदी जोड़ परियोजना (विस्तृत परियोजना रिपोर्ट हेतु 100 करोड़ रु.) हेतु भी पहल की गई है। जेटली के भाषण में इस बात पर विलाप किया गया है कि भारत को “सभी तरफ सदानीरा नदियों का वरदान नहीं मिला है।”
दूसरी ओर यूपीए और एनडीए दोनों ही विशेषज्ञों की उन रिपोर्टों की अनदेखी कर रही हैं जिन्होंने चेताया था कि इतने बड़े आकार के इंजीनियरिंग परियोजनाओं से जबरदस्त पारिस्थितिकीय विघटन एवं सामाजिक विस्थापन होगा। इसी के साथ यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि देश के सूखे इलाकों एवं अन्य स्थानों पर जलसुरक्षा हेतु किए गए छोटे-छोटे उपायों की भी अवहेलना की गई है।
मैंने ऊपर कहा है कि जेटली द्वारा महत्वपूर्ण पारिस्थितिकीय शर्तों को भूल जाना आश्चर्यजनक है। संभवतः ऐसा नहीं है। वास्तविकता यह है कि भारत के कारपोरेट जगत ने कमोवेश एकस्वर से इस बजट का स्वागत किया है। यह इस बात का सूचक है कि एनडीए भी यूपीए के नव उदारवादी रास्ते पर और भी अधिक रफ्तार से दौड़ेगी।
इस तरह की कार्ययोजना (एजेंडे) में उद्योग और वाणिज्य की राह आसान कर वृद्धि पर इस अनुमान के आधार पर केंद्रित किया जाता है कि ऐसा व्यापक आर्थिक घालमेल गरीबों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने में मदद करेगा। तथ्य तो यह है कि वर्ष 1990 एवं 2000 के दशकों में जबरदस्त आर्थिक वृद्धि के बावजूद रोजगार की स्थिति बदतर (नवीनतम आंकड़े 15 प्रतिशत बेरोजगारी बता रहे हैं) हुई थी और 70 प्रतिशत भारतीयों को आज भी जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं उपलब्ध नहीं हैं।
हमारी वृद्धि को लेकर विश्व बैंक के सन् 2013 के अध्ययन भी बता रहे हैं कि पर्यावरणीय विध्वंस ने हमारे सकल घरेलू उत्पाद में 5.7 प्रतिशत की चोट पहुंचाई है। अपने पूर्ववर्तियों की तरह यह बजट भी एक बड़ी तस्वीर प्रस्तुत कर रहा हैं, लेकिन इसमें किसी भी ऐसे नवाचार का अभाव है, जिससे कि भारत पारिस्थितिकीय सुस्थिरता व न्याय की दिशा में कदम बढ़ा सके।
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