किसान समस्या और सरकार

23 Apr 2015
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भारत में करीब साढ़े पाँच लाख गाँव हैं। इनमें देश की 68 फीसदी आबादी रहती है। ग्रामीण भारत में करीब 67 फीसदी किसान-मजदूर हैं। जाहिर है, इतनी बड़ी आबादी के खुशहाल हुए बिना देश का विकास सम्भव नहीं है। हकीकत यह है कि गरीब किसान-मजदूर आज भी बदहाल है। आजादी के कई दशक बीत जाने पर भी इस बहुसंख्यक आबादी का कोई पुरसाहाल नहीं है। आँकड़े और हालात चीख-चीखकर इस बात की गवाही देते हैं।

यह कैसा दुर्भाग्य है कि आज भारत खाद्यान्न में तो आत्मनिर्भर है, किन्तु खाद्यान्न पैदा करने वाला किसान मुश्किल में है। देश का अन्नदाता आज सरकार के सामने हाथ पसारे मदद की गुहार लगा रहा है।सन् 1991 में उदारीकरण की नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद एक आँकड़े के अनुसार तकरीबन तीन लाख किसान और खेतिहर मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं। साहूकारों और सरकारी ऋण तले दबे 80-90 फीसदी किसान अगर मरे नहीं हैं तो मरजाद पर तो पहुँच ही गए हैं। इन परिस्थितियों के मद्देनजर यह सवाल उठता है कि हर पाँच साल पर बनने-बदलने वाली सरकारों ने इतनी बड़ी आबादी के लिए क्या किया है। क्या किसानों की यही नियति है अथवा सरकारों की नीयत में ही खोट रहा है? सरकारी नीति नियन्ताओं ने किसानों के सुरक्षित, समृद्ध और खुशहाल जीवन के लिए क्यों कोई ठोस कदम नहीं उठाया? क्यों कोई ऐसी नीति नहीं बनाई गई, जिससे खेती को पुसाने लायक बनाया जा सके? क्या खेती के साथ पूरक रोजगार के अवसर प्रदान करने और नए विकल्प सुझाने की जरूरत नहीं है?

यह कैसा दुर्भाग्य है कि आज भारत खाद्यान्न में तो आत्मनिर्भर है, किन्तु खाद्यान्न पैदा करने वाला किसान मुश्किल में है। देश का अन्नदाता आज सरकार के सामने हाथ पसारे मदद की गुहार लगा रहा है। विडम्बना देखिए, किसी को 75 रुपए तो किसी को 250 रुपए का चेक मिला। इस तरह का क्रूर मजाक सरकारें किसानों के साथ कर रही हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष आँकड़ों की नूरा कुश्ती में उलझे हैं और अपनी-अपनी राजनीति साधने में लगे हुए हैं। किसानों का सच्चा हमदर्द बनकर कोई खड़ा नहीं हो रहा है।

अभी बजट सत्र के दौरान लोकसभा में 56 दिन की विदेश में छुट्टियाँ व्यतीत कर लौटे राहुल गाँधी 21वीं सदी के भारत के कोलम्बस प्रधानमन्त्री मोदी पर तंज कस रहे थे। प्रधानमन्त्री मोदी पिछले दिनों यूरोप और कनाडा भ्रमण पर थे और अगले माह वे पुन: चीन, मंगोलिया आदि देशों की यात्रा करने जा रहे हैं। फ्रांस, जर्मनी और कनाडा में हुए स्वागत समारोहों में मोदी जलवा बिखेरते रहे, लेकिन भारत में हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं। क्या किसानों को नजरअन्दाज करके भारत की छवि को वैश्विक स्तर पर चमकाया जा सकता है? क्या मोदी जी इस बात को नहीं समझते? अगर समझते तो वे दुनिया में अपनी ब्राण्डिंग करने में मस्त और व्यस्त नहीं होते। वे भारत की सरजमीं पर किसानों का दर्द बाँट रहे होते।

आज केवल महाराष्ट्र में ही प्रतिदिन छह किसान आत्महत्या कर रहे हैं। विदर्भ जैसे ही हालात उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड के हैं। दुर्भाग्य देखिए, आज तो मोदी जुमलेबाजी भी नहीं कर रहे हैं। ‘अच्छे दिन’ के दिखाए गए सपने कहाँ खो गए? आखिर किसान कब तक इन्तजार करे? पीढ़ियों से उसके हालात खराब हैं। इसके बरक्स पूँजीवादी और उदारवाद के प्रभाव में देश के लाखों उद्योगपति-व्यवसायी, राजनीतिक, प्रशासक और दलाल रातों-रात अरबपति बन गए हैं। टाइम पत्रिका से लेकर दुनिया की तमाम आर्थिक विश्लेषण और बाजारवाद पर नजर रखने वाली पत्रिकाएँ भारत के मिलेनियरों का यशगान कर रही हैं।

सबसे मौजूं सवाल यह है कि क्या खेती को पुसाने लायक बनाया जा सकता है। क्या किसान, मजदूर के भी अच्छे दिन आ सकते हैं? क्या कोई छोटा मंझोला किसान जीते जी अपनी बेटी के हाथ पीले करने के अरमान पूरे कर सकता है? इन प्रश्नों के जवाब तलाशने जरूरी हो गए हैं। इसके लिए हमें हिन्दुस्तान के इतिहास और भूगोल में झांकने की जरूरत है।

सबसे मौजूं सवाल यह है कि क्या खेती को पुसाने लायक बनाया जा सकता है। क्या किसान, मजदूर के भी अच्छे दिन आ सकते हैं? क्या कोई छोटा मंझोला किसान जीते जी अपनी बेटी के हाथ पीले करने के अरमान पूरे कर सकता है?पहली बात यह कि भारत में अतिवृष्टि और अनावृष्टि की लगभग एक निरन्तर प्रक्रिया है। हर तीसरे-चौथे वर्ष यह दोहराई जाती है। आज हमने इतनी वैज्ञानिक प्रगति कर ली है कि मौसम के मिजाज की सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है। यह अनुमान तात्कालिक ही नहीं बल्कि वार्षिक भी हो सकता है। जैसे- पेरु और इक्वेडोर के आसपास प्रशान्त महासागर तट पर समुद्री तापमान बढ़ने से और गर्म धाराओं के बहने से मानसून कमजोर हो जाता है। यह स्थिति लगभग प्रति तीसरे वर्ष आती है। तब भारत में अनावृष्टि की स्थिति उत्पन्न होती है। क्यों नहीं भारत सरकार ऐसी स्थिति का मुकाबला करने के लिए पहले से तैयार रहती? उसके लिए कोई स्थाई उपाय क्यों नहीं करती?

ठीक इसी तरह देखा गया है कि तीन-चार वर्ष के अन्तर पर अतिवृष्टि और ओलावृष्टि की स्थिति आती है। क्यों हमारी सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है? ऐसी विपदा में वह किसानों को क्यों उनके हालात पर छोड़ देती है? थोड़ा-बहुत मुआवजा देकर सरकारें इन किसानों के साथ अत्याचार ही करती हैं। अब यह भी किसी के छिपा नहीं है कि मुआवजा बाँटने में कितना भ्रष्टाचार होता है। मुआवजे की राशि न तो पर्याप्त होती है और न सही हाथों तक पहुँचती है। परिणामस्वरूप हताश होकर किसान आत्महत्या करता है।

फर्ज कीजिए, यह हताशा तब कितनी बढ़ जाती होगी, जब किसान अपनी पत्नी और बच्चों के साथ खेत पर ही सामूहिक आत्महत्या कर लेता है। ये हालात औपनिवेशिक भारत के हालातों से कतई अलग नहीं दिखते हैं। औपनिवेशिक भारत में किसान कर्ज के बोझ से और कभी प्राकृतिक आपदाओं के कारण अपनी जमीन से बेदखल होकर मजदूर बनने के लिए अभिशप्त था। आज तो उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा है।

आज सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों आँकड़ों का वाक्युद्ध करने में मशगूल हैं। प्रधानमन्त्री ने मुआवजे के लिए फसल की बर्बादी का पैमाना पचास फीसदी से घटाकर एक तिहाई जरूर कर दिया है, किन्तु कृषि भूमि का आँकड़ा घटा दिया है। केन्द्र सरकार, कृषि विभाग और राज्य सरकारों के अलग-अलग आँकड़े निकल कर आ रहे हैं। कोई 168 लाख हेक्टेयर खेती के बर्बाद होने की बात कह रहा है तो कोई 108 लाख हेक्टेयर की तो तीसरा महज 80 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि की फसल की बर्बादी की बात कर रहा है। इन आँकड़ों की बाजीगरी के बीच इस विपदा में किसान ने मड़ाई करके जो अन्न निकाला है, उसका खरीददार कोई नहीं है।

पंजाब हरियाणा के उदाहरण हमारे सामने हैं। जहाँ कुछ दिनों पहले आलू की फसल को लेकर किसान सरकारी लिवाली की बाट जोह रहे थे। अब गेहूँ की फसल को लेकर भी यही हालात हैं। उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों की हालत भी कामोबेश ऐसी ही है। गन्ना मिल मालिकों ने पहले ही किसानों का कई हजार करोड़ रुपया दबाकर रखा हुआ है। अब उनकी गन्ना खरीद में हीलाहवाली हो रही है। अब हमें ऐसे प्रयास करने होंगे, जिससे किसानी घाटे का सौदा न रहे। किसानों की मुश्किलें दूर करने के लिए सरकारी तन्त्र चुस्त-दुरुस्त बनाना होगा। इसके लिए जरूरी है कि सरकारी नीतियों में परिवर्तन कर उन्हें किसान समर्थित बनाया जाना चाहिए। मौसमी प्रभाव को दूर करने या कम करने के लिए पहले से सरकार को तैयार रहना चाहिए और जरूरी उपाय करने चाहिए।

अब थोड़ी सी बात इतिहास की करते हैं। इतिहास गवाह है कि मुगलकाल के अन्तिम दौर में जब भारत में अंग्रेज सत्ता स्थापित करने के लिए प्रत्यनशील थे, भारत की अर्थव्यवस्था उस दौर की सबसे समृद्ध और शक्तिशाली अर्थव्यवस्था थी। औरंगजेब के अन्तिम दिनों में, एक अनुमान के मुताबिक भारत की जीडीपी वैश्विक जीडीपी की करीब 33.1 फीसदी थी। सन् 1947 में जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ा तब भारत की जीडीपी विश्व की जीडीपी की महज 0.1 फीसदी रह गई थी। तब हमें सोचना चाहिए की अंग्रेजों ने कौन-सी ऐसी नीतियाँ बनाई थीं, जिनसे भारत की यह दुर्दशा हुई।

अंग्रेजों से पूर्व भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर होती थी। गाँव में वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था की तमाम खामियों के बावजूद उसकी खूबसूरती यह थी कि विभिन्न दस्तकारियाँ यहाँ फलफूल रही थीं। कृषि व्यवस्था के साथ दस्तकारी व्यवस्था ने गाँवों को आत्मनिर्भर बनाने में महती भूमिका अदा की थी। यही कारण है कि गाँधी जी गाँवों के पुनरुद्धार की वकालत करते थे। लघु-कुटीर उद्योग और दस्तकारी व्यवस्था को समृद्ध बनाने की बात करते थे। आज पुन: गाँव के किसानों-मजदूरों को दस्तकारी से जोड़ने की आवश्यकता है। यह दस्तकारी और लघु-कुटीर उद्योग अंचल की अपनी विशेषताओं पर आधारित हों। एक बात और, पिछले कुछ दशकों में गाँव में किसानों की चौपाल भी सूनी हो गई है। प्राकृतिक विपदा में किसानों को पशुधन से बहुत राहत मिलती है। पशुपालन को प्रोत्साहित कर सरकार किसानों के दुर्दिनों में सहायक बन सकती है।

ई-मेल : rush2ravikant@gmail.com

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