किसानों की बेहतरी का कठिन लक्ष्य

27 Feb 2018
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प्रतिमत


किसानों के परिवार भी खेती में सहयोग करते हैं इसलिये उनकी मेहनत को भी जोड़ा जाता है। इसे ए 2-एफएल कहते हैं। इससे इतर कॉम्प्रेहेंसिव कॉस्ट यानी सी-2 भी एक व्यवस्था है जिसके तहत अन्य लागत के साथ ही स्वयं की भूमि और पूँजी का किराया भी शामिल होता है। सी-2 के तहत निर्धारित लागत मूल्य के अलावा 50 फीसद लाभकारी मूल्य ही किसानों की माँग रही है, लेकिन बजट में उत्पादों की डेढ़ गुना कीमत देने के वायदे के बीच कृषि भूमि के किराए को लागत मूल्य से वंचित रखना निराशाजनक है। बीते सप्ताह दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय कृषि सम्मेलन के दौरान 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने को लेकर प्रधानमंत्री समेत देश के कृषि विशेषज्ञों और किसान प्रतिनिधियों द्वारा कृषि हित पर हुई चर्चा सुर्खियाँ बनीं। इस दौरान नीति और गर्वनेंस सम्बन्धी सुधार, कृषि व्यापार नीति एवं निर्यात संवर्धन, बाजार की संरचना कृषि क्षेत्र में स्टार्ट-अप, पूँजीगत निवेश और किसानों हेतु संस्थागत कर्ज एवं पशुधन, डेयरी, मछली पालन आदि विषय परिचर्चा के केन्द्र में रहे।

प्रधानमंत्री ने कच्चे माल की लागत घटाने, उपज का लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करने, बर्बादी पर अंकुश लगाने और आमदनी के वैकल्पिक स्रोत सृजित करने पर विशेष बल देते हुए किसानी के संकट के समाधान को लेकर आश्वासन दिया। कृषि मंत्रालय भी किसानों की समस्याओं को लेकर निरन्तर चिन्तित है। अगले माह केन्द्र और राज्यों के बीच एक बैठक प्रस्तावित है जिसमें फसलों के मूल्य निर्धारण को लेकर विमर्श होना है।

आम बजट में किसानों की लागत से डेढ़ गुना कीमत प्रदान करने की नीतिगत घोषणा से कृषक वर्ग में राहत की आस जरूर जगी है, लेकिन कृषि उत्पादों के दाम तय करने वाले आयोग-कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट्स एंड प्राइस द्वारा लागत मूल्य तय करने वाली प्रक्रिया सवालों के घेरे में है। मौजूदा मूल्य निर्धारण प्रणाली के अन्तर्गत तीन चरणों में 23 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित होता है। प्रक्रिया ए-2 के तहत किसानों द्वारा खेती में उपयुक्त सभी सामग्री जिसमें बीज, उर्वरक, कीटनाशक, मजदूरी और मशीन एवं भूमि का किराया आदि को जोड़ा जाता है।

चूँकि किसानों के परिवार भी खेती में सहयोग करते हैं इसलिये उनकी मेहनत को भी जोड़ा जाता है। इसे ए 2-एफएल कहते हैं। इससे इतर कॉम्प्रेहेंसिव कॉस्ट यानी सी-2 भी एक व्यवस्था है जिसके तहत अन्य लागत के साथ ही स्वयं की भूमि और पूँजी का किराया भी शामिल होता है। सी-2 के तहत निर्धारित लागत मूल्य के अलावा 50 फीसद लाभकारी मूल्य ही किसानों की माँग रही है, लेकिन बजट में उत्पादों की डेढ़ गुना कीमत देने के वायदे के बीच कृषि भूमि के किराए को लागत मूल्य से वंचित रखना निराशाजनक है।

ए 2-एफएल के तहत प्रदत्त एमएसपी से किसानों का भला नहीं हो पा रहा है। इसके तहत जहाँ धान और गेहूँ का समर्थन मूल्य लागत से 50 फीसदी अधिक है वहीं सी2 फॉर्मूले के मुताबिक ज्यादातर फसलों के मूल्य इससे कम हैं। इन दोनों प्रक्रिया की गणना में लगभग 30 से 35 फीसद का अन्तर है।

एमएसपी नहीं मिल पाने की स्थिति में सरकार मध्य प्रदेश की भावांतर भुगतान योजना की तर्ज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य एवं बाजार मूल्य के बीच के अन्तर की भरपाई करने पर विचार कर रही है। यह स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन इससे एमएसपी प्रक्रिया की सार्थकता प्रभावित हो सकती है। ऐसे में यह जरूरी है कि किसानों को अंकगणित के जाल से बाहर निकालकर उनका भला किया जाये। पिछले दो वर्षों से किसानों की आमदनी दोगुनी करने की वकालत के जरिए निःसंदेह कृषि मंत्रालय चर्चा में है, लेकिन कृषि सामग्री की कीमत में निरन्तर हो रही वृद्धि से यह लक्ष्य ओझल बना हुआ है।

इस दिशा में 2016 में कृषि मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव अशोक दलवई की अध्यक्षता में एक अन्तर मंत्रालयी समिति गठित हुई थी। इसमें उन्होंने 2012 के मूल्य पर 6.4 लाख करोड़ के निवेश की बात कही थी। हालांकि इस बार बजट में कृषि हेतु आवंटित राशि पिछले वर्ष की तुलना 15 फीसद अधिक है, लेकिन यह दलवई समिति के आकलन से काफी कम है। स्वयं इस समिति के अध्यक्ष द्वारा यह स्पष्ट किया जा चुका है कि किसानों की आय ज्ञात करने की अब तक कोई ठोस व्यवस्था नहीं है। वहीं उत्पादन बढ़ने की स्थिति में एमएसपी तक से वंचित रह जाना, उत्पादन लागत का कम नहीं होना, जोत में निरन्तर कमी आना और बाजार के अभाव में औने-पौने दाम मिलना दोगुनी आय के सुगम पथ नहीं हैं।

कृषि उत्पादों का रख-रखाव भी एक चुनौतीपूर्ण विषय है। वर्तमान में देश भर में कोल्ड स्टोरेज की क्षमता 32 मिलियन टन की है जो मौजूदा उत्पादन समेटने हेतु नाकाफी है। इस वर्ष फसल बीमा योजना के कवरेज क्षेत्र को 50 फीसद तक बढ़ाते हुए 9000 करोड़ रुपए की राशि आवंटित हुई है, पर अब तक के अनुभव से पता चलता है कि इससे किसानों के बजाय कम्पनियों का हित हुआ है।

कृषि कर्ज की घोषणा नए बजट का दूसरा बड़ा आकर्षण रही। बजट में किसानों को कर्ज के लिये 11 लाख करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है जो पिछले बजट से एक लाख करोड़ रुपए अधिक है। हाल के समय में कई राज्यों में कर्ज माफी की माँग की गई है, लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं हो सकता। कर्ज के ब्याज का भी किसानों पर प्रतिकूल असर पड़ा है।

सर्वोच्च न्यायालय ने कृषि कर्ज पर बैंकों की ओर से अधिक ब्याज वसूले जाने सम्बन्धी एक याचिका पर फैसला दिया है। इसके तहत अब वह कृषि कर्ज के बदले वसूले जा रहे ब्याज पर बारीकी से नजर रखेगा। डॉ. स्वामीनाथन ने भी कर्ज माफी की बजाय सी2 फॉर्मूले से एमएसपी के भुगतान को कल्याणकारी बताया है।

अनुबन्ध पर खेती की वकालत एक स्वागत योग्य पहल है, लेकिन इसे कम्पनियों के निजी स्वार्थ से बचाने की आवश्यकता होगी। असिंचित भूमि का बड़ा रकबा भी किसानी की समस्याओं को कम नहीं होने दे रहा है। इसके लिये 2600 करोड़ रुपए की घोषणा ज्यादा असरदर नहीं हो सकती। यह अवश्य राहतकारी है कि केन्द्र सरकार 99 अपूर्ण सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने की दिशा में कार्यरत है। सरकारी आश्वासन है कि इन परियोजनाओं के पूरा हो जाने से किसानों की कच्चे माल सम्बन्धी लागत घट जाएगी।

20 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि को सूक्ष्म सिंचाई के दायरे में लाया जाना भी एक उपलब्धि है। देश भर के आलू, प्याज एवं टमाटर उत्पादकों की पीड़ा को महसूस करते हुए बजट में ऑपरेशन ग्रीन की शुरुआत भी किसानों के लिये राहतकारी हो सकता है। इसके अलावा 42 मेगा फूड पार्कों की स्थापना, जैविक खेती को बढ़ावा, 22 हजार कृषि हाट का निर्माण, पशुपालकों को क्रेडिट कार्ड आदि के प्रावधान के जरिए सरकार किसानों के संकट के निपटारे को प्रतिबद्ध है, लेकिन अब इसे धरातल पर उतारने का वक्त आ गया है।

पिछले तीन वर्षों में किसानों की आत्महत्या में इजाफे के चलते 2017-2018 का बजट भी काफी हद तक किसानों के हित में था, लेकिन योजनाओं के क्रियान्वयन में सुस्ती की वजह से ग्रामीणों की दुर्दशा जारी है। चूँकि 2019 में आम चुनाव होने हैं इसलिये किसानों का असन्तोष सरकार के लिये नुकसानदेह हो सकता है। ऐसे में घोषणाओं से ज्यादा अमल और नतीजे देने पर जोर होना चाहिए।

यह लेखक के अपने विचार हैं।
(लेखक जनता दल यू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)

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