कँवर सेन तथा डॉ. के. एल. राव का बयान

चीन और अमेरिका दोनों ही देशों की नदियों और उन पर बने तटबधों के तजुर्बे अच्छे नहीं थे मगर इन दोनों ही देशों से तटबन्धों की घटिया तकनीक की वकालत करने वाले इंजीनियरों की कोई कमी नहीं थी। सवाल यह है कि सिल्ट को नियंत्रित करने की पूरक व्यवस्था की परिभाषा क्या है? इसके लिए दो ही रास्ते हैं जो मालूम हैं। एक रास्ता तो यह है कि 1951 की दरों पर 177 करोड़ रुपये की लागत से बराहक्षेत्र बांध बनाया जाय और दूसरा यह कि कोसी के जलग्रहण क्षेत्र में भारी मात्रा में वनीकरण किया जाय।

इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद चीनियों की अपनी समस्याओं के प्रति उनके उस समय के सोच का अन्दाजा लगता है। जब वे अपने लिए ऊँचे बाँधों की सहायता से पीली नदी को सिल्ट मुक्त बहाने की बात कर रहे थे उसी समय हमारे यह दोनों विशेषज्ञ, डॉ. के. एल. राव और कँवर सेन, 1953 की तटबन्धों वाली कोसी योजना को ठीक-ठाक होने का प्रमाण पत्र लेकर चीन से वापस आये। कँवर सेन के ही अनुसार चीन की हुआई योजना के मुख्य अभियंता वांग-हू-चेंग ने कहा था कि “1953 वाली योजना मुझे बहुत ठीक लगती है बशर्ते कि आप लोग सिल्ट नियंत्रण के लिए भी कुछ करें।” वस्तुतः 1953 वाली योजना में सिल्ट नियंत्रण का कोई प्रावधान था ही नहीं और इसके बिना योजना का कोई दीर्घकालिक मतलब ही नहीं था। इसी प्रकार दो अमेरिकन विशेषज्ञों, टॉरपेन और मैडॉक का भी हवाला दिया जाता है जिन्होंने कहा बताते हैं कि स्वीकृत योजना वस्तुतः बहुत ही सावधानी पूर्वक किये गये अध्ययन के बाद सक्षम इंजीनियरों द्वारा बनाई गई है तथा यह योजना बहुत से सम्भावित प्रस्तावों में सबसे अच्छी है। भविष्य में कभी सिल्ट जमाव के कारण नदी तल में उठान होगा तब तटबंध अव्यावहारिक हो जायेंगे और उस समय कोई पूरक व्यवस्था करनी पड़ेगी।” यह दोनों अमरीकी विशेषज्ञ यह बताना भूल गये कि खुद उनके देश में 1833 से 1927 के बीच में मिसीसिपी नदी के तटबन्धों को 5.18 मीटर ऊँचा करना पड़ा था जिसके बावजूद तटबन्धों में दरार पड़ना तथा उनके ऊपर से होकर नदी का बहना जारी रहा।

1912 की मिस्सीसिपी नदी की बाढ़ में इसके तटबन्धों पर से कम से कम 300 जगहों पर बाढ़ का पानी ऊपर से बह गया और वहाँ तटबंध टूट गया और नदी के कुल 1640 किलोमीटर लम्बे तटबन्धों में से 96 किलोमीटर का सफाया हो गया था। वास्तव में मिस्सीसिपी तटबन्धों की हालत 1882 से ही बहुत खस्ता थी और नदी में जानलेवा बाढ़ आने लगी थी जो कि 1897 और 1903 में फिर देखी गई।

उसी तरह 1927 में, “...अमेरिका की मिस्सीसिपी नदी ने पिछले साल सारे बन्धनों को तोड़ दिया और 51,200 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में उसका पानी फैल गया जिसकी वजह से 20 करोड़ डॉलर से लेकर 100 करोड़ डॉलर के बीच की सम्पत्ति का नुकसान हुआ। टूटे तटबन्धों के कारण लगभग 7.5 लाख लोग बेघर हो गये और उनमें से कोई 6 लाख लोगों को रेडक्रास की शरण लेनी पड़ी। अमेरिका जैसे सुखी, सम्पन्न और ताकतवर देश की कोई हिकमत इन लोगों के काम नहीं आई और उन्होंने चुपचाप तकलीफें बर्दाश्त कीं। इस प्रलय का पूरा ब्यौरा अभी उपलब्ध नहीं है। कुछ लोग अपने घरों को लौट आये हैं मगर काफी लोग बाढ़ के डर से लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पाये हैं।”

इंजीनियरों को मिस्सीसिपी नदी की धारों की क्षमता बढ़ाने और बाढ़ को कम करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी जिससे बाढ़ का लेवल कम हो सके। नदी की धारों की बड़े पैमाने पर खुदाई की गई जिसकी कीमत अमेरिका जैसा अमीर देश ही अदा कर सकता है।

इस तरह से चीन और अमेरिका दोनों ही देशों की नदियों और उन पर बने तटबधों के तजुर्बे अच्छे नहीं थे मगर इन दोनों ही देशों से तटबन्धों की घटिया तकनीक की वकालत करने वाले इंजीनियरों की कोई कमी नहीं थी। सवाल यह है कि सिल्ट को नियंत्रित करने की पूरक व्यवस्था की परिभाषा क्या है? इसके लिए दो ही रास्ते हैं जो मालूम हैं। एक रास्ता तो यह है कि 1951 की दरों पर 177 करोड़ रुपये की लागत से बराहक्षेत्र बांध बनाया जाय और दूसरा यह कि कोसी के जलग्रहण क्षेत्र में भारी मात्रा में वनीकरण किया जाय। यह दोनों ही काम भारतवासियों के वश में नहीं है क्योंकि बांध बनाने का स्थल और कोसी का अधिकांश जल-ग्रहण क्षेत्र-दोनों ही नेपाल में है और यह दोनों ही काम लागत और समय के लिहाज से कभी भी 1953 वाली कोसी योजना के पूरक तो नहीं ही हो सकते थे। इन दोनों तरीकों को अपनाने से होने वाला लाभ भी सन्देह के दायरे में आता है जिस पर हम आगे विचार करेंगे। जहाँ तक वनीकरण का सवाल है, वहाँ तो कोसी की धारा तब भी बदलती थी तब उत्तर के जंगलों पर अंग्रेजों की कुल्हाड़ियाँ नहीं बरसी थीं।

असल में हमारे दोनों बांध विशेषज्ञों की चीन यात्रा एक छलावा थी क्योंकि कोसी पर तटबंध बनाने का राजनैतिक निर्णय तो दिसम्बर 1953 में लिया जा चुका था और उसको केवल तकनीकी वैधता देने का काम बाकी था। यह बात इन विशेषज्ञों को पहले से ही मालूम थी और यह काम इन लोगों ने बड़ी मुस्तैदी और वफादारी से कर दिखाया।

सिल्ट की समस्या जो कि कोसी और उत्तर बिहार की लगभग सभी नदियों की समस्या की जड़ में है उसके बारे में सिर्फ यह कह देना कि यदि कोसी के पानी से मोटे बालू के कणों को अलग करने की व्यवस्था कर ली जाय तो कोई वजह नहीं है कि कोसी को क्यों इस तरह काबू में नहीं लाया जा सकता” मगर कोसी के पानी से मोटा बालू अलग कैसे हो, इसकी क्या लागत होगी और इसमें कितना समय लगेगा और यह कि इस सारे काम का ज्यादातर हिस्सा नेपाल में करना होगा-इसके बारे में रिपोर्ट में खामोशी अख्तियार कर ली गई।

विशेषज्ञों ने चीन में नदी-घाटी परियोजनाओं में चल रहे जन-सहयोग की तो खूब जम कर तारीफ की, क्योंकि उनके चीन जाने के काफी पहले 1952 में देश में भारत सेवक समाज की स्थापना हो चुकी थी जो कि इस तरह के श्रम-बाहुल्य कामों में जन-सहयोग का काम शुरू करने वाला था और 1953 आते-आते तक यह भी तय हो चुका था कि जनसहयोग की शुरुआत कोसी परियोजना से ही की जायेगी।

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