कोचाबांबा का पानी युद्ध

पानी के निजीकरण की पैरवी करने वालों के लिए कोचाबांबा एक गहरे सदमे से कम नहीं था। करीब डेढ़ दशक से निजीकरण और भूमंडलीकरण की हवाएं सारी दुनिया में बह रही हैं। विश्व भर में अब तक साझी और सार्वजनिक मिल्कियत में रहे आए क्षेत्र निजी हाथों में दिए जा रहे हैं। इनमें बिजली, परिवहन, रेलवे, बीमा और ...पानी शामिल हैं। ढाँचागत समायोजन कार्यक्रमों ने एक के बाद एक तमाम देशों को उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण का रास्ता अपनाने के लिए मजबूर किया है। बोलीविया में समुद्र तल से 2,558 मीटर ऊंची एक उपजाऊ घाटी में बसा हुआ है सुंदर शहर कोचाबांबा। यह तुनारी पर्वत, अलालै लैगून और सैन सेवेस्टियन पर्वत से घिरा हुआ है। 1999 के पहले तक शायद ही ज्यादा लोगों ने कोचाबांबा के बारे में सुना हो। तब तक इस शहर की कभी चर्चा भी थी तो यीशू मसीह की एक विशाल मूर्ति ‘एलक्रिस्टो डे ला कन्कोर्डिया’ की वजह से, जो ब्राजील के रियो डि जेनेरो में खड़ी ‘क्रिस्टो डेल कोरकोवाडो’ से भी ऊंची है।

लेकिन 1999 में शुरू हुई एक ऐसी कहानी, जिसने कोचाबांबा को एक अलग ही तरह का यश (या अपयश) दिलाया। इस साल शहर का समूचा पानी आपूर्ति तंत्र एगुअस डेल तुनारी नामक निजी कंपनियों के एक संघ के हवाले कर दिया गया, जिसकी अगुवाई अमेरिकी कंपनी बेक्टेल कर रही थी। तब शहर का जल प्रदाय तंत्र अव्यवस्था का शिकार था। पानी की ज़बरदस्त किल्लत थी और गरीब मोहल्लों में पानी के नल नहीं थे। ऐसी कई समस्याओं के समाधान के लिए पानी आपूर्ति के निजीकरण को अलादीन के चिराग की तरह पेश किया गया। शहर में जल आपूर्ति सुधारने के इरादे से बुलाई गई एगुअस डेल तुनारी को असाधारण रियायतें दी गई, ताकि वह शहर में पैसा लगाने में रुचि दिखाए।

12,500 करोड़ रुपए की रियायत अनुबंध (concession agreement) चालीस सालों के लिए थी। साथ ही कंपनी को पूंजी निवेश पर 15% लाभ की गारंटी दी गई और इसे अमेरिका के उपभोक्ता कीमत सूचकांक से जोड़ा गया। अनुबंध के तहत कंपनी को जिले के सभी तरह के जल स्रोतों पर पूरा अधिकार भी दिया गया। तत्काल नतीजा यह हुआ कि पानी के दाम दुगने और फिर तिगुने हो गए। कोई 5 साल पहले शहर के बाहरी हिस्सों के कुछ मोहल्लों ने अपने खुद के सहकारी पानी आपूर्ती तंत्र, यानी साझे ट्यूबवैल और नलके, खड़े कर लिए थे। एगुअस डेल तुनारी को न सिर्फ इन साझे जल स्रोतों पर मीटर लगाने का बल्कि मीटर लगाने का खर्च लोगों से वसूलने का अधिकार दे दिया गया।

तेज बढ़ती दरों का नतीजा यह हुआ कि औसतन एक मजदूर के वेतन का 25 फीसदी हिस्सा पानी के मासिक बिलों की भेंट चढ़ने लगा। जैसे-जैसे दरें बढ़ी कंपनी ने बिना किसी झिझक या खेद के एलान कर दिया कि जो भी पानी का पैसा नहीं चुकाएगा, उसका कनेक्शन काट दिया जाएगा।

इस सबसे गुस्सा भड़का और लोग सड़कों पर निकल आए। जनसमूह ने शहर के केंद्रीय बाजार पर कब्जा कर लिया। जनता और कंपनी के बीच सुलह कराने की बजाए सरकार ने लोगों को कुचलने के लिए सेना बुला ली। आंदोलन के बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए। आंदोलन और तेज हो गया। इसे ‘पानी युद्ध’ के नाम से पुकारा जाने लगा। अप्रैल 2000 में एक दिन जब सेना लोगों को रोक रही थी, सादी पोशाक पहने एक व्यक्ति ने सेना की टुकड़ी के पीछे ले लोगों पर गोली चलाई। सत्रह साल का एक किशोर विक्टर हूगो डाजा मारा गया। यह जन संघर्ष में एक प्रमुख मोड़ साबित हुआ। इसके बाद पीछे मुड़कर देखने का सवाल ही नहीं था और आखिरकार कंपनी को देश छोड़कर जाना पड़ा।

एक झटका, एक आह्वान


पानी के निजीकरण की पैरवी करने वालों के लिए कोचाबांबा एक गहरे सदमे से कम नहीं था। करीब डेढ़ दशक से निजीकरण और भूमंडलीकरण की हवाएं सारी दुनिया में बह रही हैं। विश्व भर में अब तक साझी और सार्वजनिक मिल्कियत में रहे आए क्षेत्र निजी हाथों में दिए जा रहे हैं। इनमें बिजली, परिवहन, रेलवे, बीमा और ...पानी शामिल हैं। ढाँचागत समायोजन कार्यक्रमों ने एक के बाद एक तमाम देशों को उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण (एल.पी.जी.) का रास्ता अपनाने के लिए मजबूर किया है।

तर्क दिया जाता है कि आर्थिक तरक्की का एकमात्र रास्ता एल.पी.जी. है। कारण यह बताया जाता है कि अब सरकारों के खजानों में इतना पैसा नहीं है कि इन क्षेत्रों के लिए जरूरी निवेश किया जा सके। इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि सरकारें नाकारा और भ्रष्ट साबित हुई हैं और उन्हें ज्यादा कार्य.कुशल निजी क्षेत्र के लिए रास्ता खाली कर देना चाहिए।

चूंकि पानी अर्थव्यवस्था और बुनियादी ढांचे का एक अहम हिस्सा है, इसमें कोई अचरज नहीं कि पानी सेवाओं के निजीकरण के लिए जबर्दस्त दबाव बन रहा है। नतीजे में विश्व के कई हिस्सों में जल क्षेत्र का निजीकरण बड़े पैमाने पर हुआ है। कोचाबांबा की घटनाएँ बार-बार याद दिलाती हैं कि जल सेवाओं के निजीकरण की गुलाबी तस्वीर में कांटे कहीं ज्यादा हैं और कोचाबांबा का मामला अकेला नहीं है। कोचाबांबा की घटनाओं ने इसी तरह के हालांकि कुछ कम नाटकीय, मामलों की तरफ ध्यान खींचा है।

पिछले कुछ सालों से हम देख रहे हैं कि भारत में जल क्षेत्र में निजी कंपनियों को लाने के लिए दबाव बढ़ रहा है। निजीकरण बहुत से सवाल खड़े करता है। इस मामले में व्यापक बहस, चर्चा और गहरी छानबीन जरूरी है, वरना न जाने कितने कोचाबांबा भारत में दोहराए जाएंगे।

भारत में बहुत पहले से मौजूद है पानी का निजीकरण


यह बात समझने की जरूरत है कि भारत में पानी काफी पहले से एक निजी वस्तु के रूप में रहा है। व्यावहारिक तौर पर भूमिगत पानी निजी संपत्ति ही है। जमीन जिसकी होती है, वही उसके नीचे के पानी का मालिक होता है। भूस्वामी को इस पानी को पम्प के जरिए उलीचने का असीमित-सा अधिकार होता है, जबकि हो सकता है कि यह भूमिगत पानी उस व्यक्ति की जमीन की सीमा से बाहर तक फैला हो। इस असीमित अधिकार ने उत्तरी गुजरात जैसे सुविकसित पानी बाजारों को भी जन्म दिया है।

बहुत से उद्योग और बड़ी रिहायशी कालोनियां खुद के भूमिगत जल को निकालते हैं। इसी तरह निजी टैंकरों के जरिए पानी मुहैया कराना अरसे से भारतीय जनजीवन का हिस्सा रहा है। चाहे हाथगाड़ी, बैलगाड़ी में लदे ड्रमों या फिर ट्रक-ट्रक्टर के टैंकरों के जरिए हो, पानी की निजी आपूर्ति आम बात है। ये टैंकर लोगों, बड़ी कालोनियों, होटलों आदि तक पानी पहुँचाते हैं, खास तौर पर पानी की कमी वाले दिनों में।

थोड़े से अलग नजरिए से देखें तो गाँवों में दलितों को कुओं, तालाब आदि जल स्रोतों के इस्तेमाल से रोका जाना भी एक तरह का निजीकरण ही है, इस मामले में मालिकाना हक तथाकथित ऊंची जातियों का होता है।

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