कोप 13 : बाली समझौते पर संकट के बादल

31 Jul 2011
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नुसा डुआ (बाली): ग्लोबल वॉर्मिन्ग से निपटने के मकसद से 2012 में क्योटो प्रोटोकॉल की जगह लेने वाली नई संधि के रोडमैप पर हुआ समझौता अमेरिकी रवैये से संकट में फंस गया है। अमेरिका ने इसके प्रावधानों पर 'गंभीर चिंता' जताते हुए शिकायत की है कि भारत और चीन जैसे देशों को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में बड़ी कटौती करने को बाध्य करने के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए गए हैं। समझौते पर अमेरिका के पलटी मारने से ग्लोबल वॉर्मिन्ग से निपटने के तौरतरीकों को लेकर मतभेद गहराने के आसार हैं।

इंडोनेशिया के बाली में जलवायु परिवर्तन पर चल रहे 190 देशों के सम्मेलन के 13वें दिन शनिवार को नई संधि के लिए 2009 तक मसौदा तैयार करने पर सहमति हुई थी। अपने रुख में नरमी लाते हुए अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने भी इससे रजामंदी जताई थी, जिसका संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून सहित दुनिया के कई देशों ने समर्थन किया। अमेरिका ने कहा था कि वह आखिरकार संधि स्वीकार कर लेगा, लेकिन एक दिन बाद राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश ने कदम पीछे खींच लिए।

रविवार को वाइट हाउस ने कहा कि क्योटो संधि का स्थान लेने वाली किसी भी संधि में एक राष्ट्र की आर्थिक तरक्की और ऊर्जा सुरक्षा के स्वायत्त अधिकार को मान्यता दी जानी चाहिए। वाइट हाउस ने बाली समझौते के कई सकारात्मक पहलुओं को स्वीकार किया, लेकिन साथ ही कहा कि अमेरिका को फैसले के कई अन्य पहलुओं को लेकर गंभीर चिंता है।

दूसरी तरफ, भारत ने कहा है कि बाली में हुई सहमति ग्लोबल वॉर्मिन्ग से निपटने के लिए स्पष्ट और शंकाओं से परे है, हालांकि विकसित और विकासशील देशों का ऐतराज अपनी जगह बना रहेगा। केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा, मुझे लगता है कि विकसित देशों ने अपनी प्रतिबद्धताएं स्वीकार कर ली हैं, जबकि विकासशील जगत ने अपनी जिम्मेदारियों को समझा है। बाली के बाद से रास्ता साफ और संदेह से परे है।

गौरतलब है कि क्योटो संधि को अस्वीकार करने वाला अमेरिका एकमात्र प्रमुख औद्योगिक देश है। उसका तर्क रहा है कि यह संधि पक्षपातपूर्ण है, क्योंकि इसमें भारत और चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए बाध्यकारी प्रावधान नहीं किए गए हैं। अमेरिका के बाद चीन विश्व का दूसरा सबसे बड़ा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जक है और यह भी क्योटो संधि से बाहर है। अमेरिका का कहना है कि जलवायु परिवर्तन पर होने वाली वार्ताओं में इस बात को मान्यता दी जानी चाहिए कि विकसित राष्ट्र अपने आप जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना नहीं कर सकते और इसमें उभरती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए। अमेरिका ने तर्क दिया कि प्रमुख विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के उत्सर्जन पर की गई स्टडीज से साबित हो गया है कि विकसित देशों की उत्सर्जन कटौती पर सैद्घांतिक सहमति ग्लोबल वॉर्मिन्ग से प्रभावी तरीके से निपटने में नाकाफी होगी।

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