कोपनहेगन का कड़वा सच

10 Dec 2009
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कोपेनहेगन सम्मेलन
कोपेनहेगन सम्मेलन

कोपेनहेगन सम्मेलन में विकासशील और विकसित देशों का अपनी-अपनी मांगों को लेकर अड़ियल रवैया अपनाना ही है। उनके इसी रवैए के कारण नवंबर में प्रस्तावित बार्सिलोना सम्मेलन खटाई में पड़ गया है। इस सम्मेलन के खटाई में पड़ने का एक प्रमुख कारण दक्षिण अफ्रीकी देशों की पर्यावरण को लेकर विकसित देशों से तोल-मोल करने की रणनीति भी है।

वे विकसित देशों से पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन स्तर को 40 प्रतिशत तक कम करने की मांग कर रहे थे जो विकसित देशों को नामंजूर है। पहली दुनिया के देशों का तर्क है कि इससे उनकी विकास की गति धीमी पड़ जाएगी। चूंकि धनी देश विश्व-अर्थव्यवस्था के ईंजन हैं, इसलिए विकासशील देशों का यह सुझाव वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए सही नहीं है। बात यहीं तक नहीं रुकती, क्योंकि विकसित देशों के नेता या यूं कहें कि विश्व के दारोगा अमेरिका में भी स्थिति कोई संतोषजनक नहीं है। कोपनहेगन सम्मेलन के पहले अमेरिकी सीनेट में पर्यावरण संबंधित एक महत्वपूर्ण विधेयक नवंबर माह में पारित होना था, जिसे सदन में उपस्थित सदस्यों के बहिष्कार का सामना करना पड़ा। अब वह विधेयक अधर में लटका पड़ा है।

उपरोक्त घटनाएं हमें यही इशारा कर रही हैं कि डेनमार्क में प्रस्तावित कोपनहेगन सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच पर्यावरण संरक्षण से संबंधित कोई सर्वसम्मति बन पाने की संभावना नहीं के बराबर है। क्योंकि सम्मेलन में भाग लेने वाले सभी देश पर्यावरण की आड़ में अपने-अपने आर्थिक हित साधने में लगे हैं। विकासशील देश जहां विकसित देशों को सन् 1990 के कार्बन उत्सर्जन स्तर में ज्यादा से ज्यादा कमी लाने पर जोर दे रहे हैं, वहीं खुद के लिए अधिक से अधिक आर्थिक मुआवजा देने की बात करने से भी वे नहीं चूक रहे। जबकि विकसित देश अपने यहां कार्बन उत्सर्जन स्तर को 15 से 20 प्रतिशत तक नीचे लाने पर ही अड़े हैं। उनका यह भी तर्क है कि यह स्तर वे 2020 तक ही ला पाएंगे। उसके पहले नहीं, वरना उनके आर्थिक विकास पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। मगर विकसित देशों के इस समूह में हम यूरोपीय देशों के समूह को नहीं रख सकते। इसने पर्यावरण को लेकर अपनी प्रतिबद्धता को कुछ हद तक दोहराया है। और विकासशील देशों को सन् 2020 से प्रतिवर्ष 100 बिलियन डॉलर आर्थिक मुआवजा देने की बात भी स्वीकार की है। लेकिन यह मुआवजा क्योटो सम्मेलन में पारित विकसित देशों के सकल घरेलू उत्पाद के 0.7 प्रतिशत का लगभग आधा है। जबकि विकासशील देश मुआवजे के रूप में विकसित देशों को अपने-अपने सकल घरेलू उत्पाद का एक प्रतिशत देने की मांग कर रहे हैं। इसलिए यूरोपीय समूह की यह सकारात्मक पहल भी सम्मेलन में कुछ खास असर दिखाएगी इसमें संदेह ही है।

इसके अतिरिक्त पर्यावरण को होने वाली क्षति के लिए विकसित और विकासशील देशों का अलग-अलग तरीके से मानकों का निर्धारण भी एक नई समस्या को जन्म दे रहा है। विकसित देश प्रत्येक देश के द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैस की मात्रा को आधार बनाकर विकासशील देशों को अपने यहां ग्रीन हाउस उत्सर्जन कम करने पर जोर देते रहा है। ऐसा करने से चीन और भारत कटघरे में आ जाते हैं, जो ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के मामले में विश्व में क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। यही हाल तीसरी दुनिया के छोटे देशों का भी है, जहां जनसंख्या ज्यादा होने के कारण ग्रीन हाउस गैस का ज्यादा उत्सर्जन होता है। परिणामस्वरूप भारत ने धनी राष्ट्रों के द्वारा अपनाई गई इस पद्धति पर कड़ा ऐतराज जताते हुए प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को आधार बनाने की वकालत की है, जिसका चीन सहित सभी विकासशील देशों ने स्वागत किया है। यहां यह भी याद रखने की जरूरत है कि भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2.6 प्रतिशत पर्यावरण संरक्षण पर खर्च करता है। जबकि कई विकसित देश अपने सकल घरेलू उत्पाद का एक प्रतिशत भी पर्यावरण संरक्षण पर खर्च नहीं करते। मगर बात फिर वहीं अटक जाती है और विश्व `ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन´ के लिए अपनाए जाने वाले मानक को लेकर दो हिस्सों में बंटा हुआ दिखता है।

मगर पर्यावरण संरक्षण का यक्ष प्रश्न यहीं खत्म नहीं हो जाता। यहां यह याद रखने की जरूरत है कि कोपनहेगन में प्रस्तावित सम्मेलन का उद्देश्य यह है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को काबू करते हुए संसार के सभी देशों के सतत् सामाजिक और आर्थिक विकास को कैसे सुनिश्चित किया जाए? कोपनहेगन में इसी प्रश्न के आसपास आम सहमति बनाने के प्रयास किए जाने की संभावना है, जिसके लिए यह उत्तर-दक्षिण संवाद मीडिया में कई दिनों से केंद्रबिंदु बना हुआ है। यहां सवाल यह उठता है कि यदि कोपनहेगन सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच कोई आम सहमति बन भी जाती है तो क्या पर्यावरण संबंधित हमारी सभी समस्याओं का निदान निकल आएगा? क्या ग्लोबल वाÉमग की समस्या सदा के लिए समाप्त हो जाएगी? क्या हिमालय पर स्थित बर्फ का पिघलना बंद हो जाएगा और मालदीव, इंडोनेशिया या अन्य टापू वाले देशों को डूबने से बचाना संभव हो जाएगा? क्या पर्यावरणीय असंतुलन के कारण होने वाली सभी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं सदा के लिए समाप्त हो जाएंगी? संभवत: नहीं! क्योंकि कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाने भर से इन सभी पर्यावरणीय समस्याओं का हल निकालने की बात करना भी बेमानी होगी।

कोपनहेगन सम्मेलन की सफलता के बावजूद पर्यावरणीय समस्याओं का हल निकल पाना इसलिए भी तर्कसंगत नहीं दिखता है, क्योंकि अलग-अलग देशों में पर्यावरण समस्या के लिए जिम्मेदार कारण अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए भारत और चीन में इस समस्या का कारण विकास के पश्चिमी मॉडल का अंधा अनुकरण है, जो औद्योगीकरण को विकास का ईंजन मानता है। इससे इन देशों की आबोहवा में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि हो रही है। जबकि ब्राजील या इंडोनेशिया में पर्यावरणीय संकट का कारण वहां हो रहे वनों की कटाई है। यहां यह ध्यान रखने की जरूरत है कि वनों की कटाई से विश्वस्तर पर जो पर्यावरणीय संकट उत्पन्न हो रहा है वह कुल संकट का एक-चौथाई भी नहीं है। इसलिए पर्यावरण की समस्या के लिए एक नियम बनाना और यह सोच लेना कि इससे सभी देशों की पर्यावरण संबंधित समस्या हल हो जाएगी, पर्यावरण संकट की विकराल समस्या को हल्के में लेना है। पर्यावरण संरक्षण के लिए कोई एक नियम बनाकर उसे सभी देशों पर एक समान रूप से लागू नहीं किया जा सकता।

इससे भी महत्वपूर्ण बात जिसपर अभी तक किसी ने ध्यान देना जरूरी नहीं समझा वह यह कि कोपनहेगन में बनने वाली आम सहमति पर कायम रहने के लिए वहां भाग लेने वाले सभी देश नैतिक रूप से ही जिम्मेदार होंगे। क्योंकि वहां पारित कोई भी अधिनियम अंतरराष्ट्रीय कानून नहीं बनने जा रहा। इन सहमतियों पर किसी भी देश का कायम रहना उनकी मर्जी पर निर्भर होगा। इन्हें कड़ाई से लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था नहीं है जो पर्यावरण संबंधित अंतरराष्ट्रीय सहमति से पीछे हटने वाले देश पर प्रतिबंध लगाने या किसी और तरीके से उसे दंडित करने की शक्ति रखती हो। इस तरह की संभावनाएं कोपनहेगन की सफलता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं, जिनपर विश्व समुदाय को गौर करने की जरूरत है, अगर वे पर्यावरण को लेकर सचमुच जागरूक हैं।

उदाहरण के तौर पर हम चावल की खेती को ले सकते हैं। चावल एक अनिवार्य खाद्यान्न है जिसकी आवश्यकता विश्व के सभी देशों में मोटे तौर पर बराबर ही है। मगर ध्यान रहे कि चावल के खेतों से बड़ी मात्रा में मिथेन गैस उत्सर्जित होता है जो वातावरण में ग्रीन हाउस गैस की मात्रा को बढ़ाता है। आने वाले दिनों में जब विश्व की जनसंख्या में वृद्धि होने के आसार हैं तो खाद्यान्नों की मांग में वृद्धि होने से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में अगर किसी देश को बाध्य किया जाए कि वह अपने यहां चावल की खेती पर अंकुश लगाए, क्योंकि इससे पर्यावरण में असंतुलन बढ़ रहा है तो जाहिर है वह देश इस मांग को नहीं मानेगा। उसका ध्यान सबसे पहले अपने यहां की खाद्य समस्या को सुलझाना होगा। इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए। ऐसे समय में विश्व समुदाय के पास पर्यावरण संरक्षण के लिए बनाए गए अपने ही नियमों की खिल्ली उड़ता देखने के अलावा क्या विकल्प रह जाएगा? इसलिए पर्यावरण से संबंधित नियमों के निर्माण से पहले हमें इन्हें कड़ाई से लागू करने वाली एक अंतरराष्ट्रीय वैधानिक संस्था के गठन की आवश्यकता है, जिसपर दूर-दूर तक कोई सुगबुगाहट नहीं है।
 

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