Source
डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'दुइ पाटन के बीच में'

जिन लोगों ने 1947 में निर्मली सम्मेलन में भाग लिया था या जिन लोगों ने ऐसे लोगों से वहाँ के चर्चे सुन रखे थे वह 1955 में भी यही समझते थे कि बातें बराहक्षेत्रा बांध की ही हो रही हैं। नारायण प्रसाद यादव (65), ग्रा॰ गोबिन्दपुर, पो॰ डरहार, जिला सुपौल आम आदमी की तरफ से कोसी के बांध की समझदारी बताते हुये कहते हैं, ‘‘... अभी हम लोग पूर्वी तटबन्ध के 58वें किलोमीटर पर खड़े हैं। इस तटबन्ध का मूल अलाइनमेन्ट बभना से सुखपुर, बसबिट्टी, नवहट्टा और पंचगछिया होते हुये बनगाँव तक जाता था। लोगों ने इस पूर्वी तटबन्ध को अपनी ताकत भर पश्चिम की ओर ठेला जबकि वह भपटियाही के नीचे सीधे दक्षिण की ओर जाने वाला था।
पूरब में सुपौल और पश्चिम में मधेपुर, यह दोनों कस्बे तटबन्धों के अन्दर पड़ने वाले थे। यह पूर्वी तटबन्ध थरबिट्टी के नीचे भी अगर सीधा दक्षिण की ओर गया होता तब भी उतना नुकसान नहीं होता। ... जैसे ही सरकार की तरफ से घोषणा की गई कि कोसी पर बांध बनेगा तब आम आदमी की समझ यही थी कि नदी उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है इसलिए जो कोई भी बांध बनेगा वह नदी के सामने पूरब-पश्चिम दिशा में बनेगा। किसान अपने खेतों में पानी रोकने या उसकी दिशा मोड़ने के लिए यही करता है, पानी की धारा और दिशा के सामने मिट्टी डालता है। वह कभी प्रवाह की दिशा में मिट्टी नहीं डालता है।
परियोजना के बारे में हम लोगों की समझ यही थी। जब बांध का काम शुरू हुआ तो हम लोगों को लगा कि मिट्टी तो नदी के धारा की दिशा में डाली जा रही है। यह हमारे लिए बड़ी अजीब चीज थी और तब हमें लगा कि हमारे गाँव तो बांध (तटबन्धों) के बीच में फंसने जा रहे हैं। इस घटना ने सबको होशियार किया और सभी ने संघर्ष करना शुरू किया कि किसी भी तरह उनका गाँव तटबन्ध के बाहर कन्ट्रीसाइड में आ जाये। गाँव की स्थिति तो निश्चित थी, उसे तो बदला नहीं जा सकता था मगर बांध (तटबन्ध) को इधर-उधर किया जा सकता था। यहाँ वही हुआ। हर कोई बांध (तटबन्ध) के कन्ट्रीसाइड में जाना चाहता था। जो ताकतवर था वह चला भी गया। उन दिनों कौन ताकतवर था, वह तो आप अच्छी तरह जानते हैं।’