कृषि को देनी होगी प्राथमिकता

कृषि के विकास और उत्पदकता बढ़ाने के मकसद से तीन-चार संगोष्ठियां तो लगभग हर रोज होती हैं, पर क्या उनमें निकलकर आई बातों पर ईमानदारी से अमल भी होता है? देखा जाए तो अभी भी खेती करने योग्य जमीनें खाली पड़ी हैं। दूसरे जहां खेती हो भी रही है, वहां तीन फसलों के बजाय हम एक या दो फसलें ही उगा पा रहे हैं। जल का संचय और बेहतर उपयोग न कर पाना भी एक बड़ी नाकामयाबी है। असल में कृषि उत्पादन वृद्धि के लिए प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण महत्वपूर्ण है। इसमें सूचना तंत्र का भी बड़ा योगदान है।

वैश्विक उदारीकरण ने हमारे अपने देश में कृषि को उपेक्षित किया है, जबकि विकसित देशों ने अपने यहां संतुलन बनाए रखा है। विकसित देशों ने किसानों को बड़ी सब्सिडी की नीति जारी रखी है। यों तो भारत में विकास की बड़ी संभावनाएं हैं, लेकिन उदासीनता और गड़बड़ियों के चलते कृषि का आकर्षण समाप्त होता जा रहा है।

खेतीबारी में लागत अधिक है, जबकि मुनाफा कम होता जा रहा है, यहां तक कि कुछ क्षेत्रों में कृषि घाटे का सौदा बन चुकी है। ऐसे में हमें हर हालत में कृषि को लाभप्रद बनाने का प्रयास करना होगा। इसके लिए पशुधन और कृषि आधारित लघु-कुटीर उोगों को बढ़ावा देना होगा।

अपने देश में इतनी उन्नति के बावजूद खेती करने वालों से पूछा नहीं जाता है। आज भी ग्रामीण अभिभावकों की पहली प्राथमिकता अपने बच्चों को लेकर यही होती है कि उसे पढ़ा-लिखाकर इंजीनियर, डॉक्टर या किसी नौकरी के लायक बनाएंगे। शायद ही कोई अब यह कहने वाला मिले कि अपने बच्चे को अच्छा विकासमान कृषक बनाएंगे। दरअसल, यह कृषि क्षेत्र की उपेक्षा के कारण ही है।

मंत्रालय से लेकर विभाग तक में विभिन्न स्तरों पर कृषि से अनभिज्ञ लोग बिठाए जाते हैं, जिन्हें खेती-किसानी की वास्तविकताओं का कोई अनुभव जन्य ज्ञान नहीं होता। ऐसे लोग कागजों पर डाईग्राम तो अच्छा बनाते हैं, पर उन्होंने कृषि की गहराई को कभी जाना नहीं है। इसका फर्क कृषि में बहुत पड़ता है। इसमें सुधार नितांत आवश्यक है।

समस्याओं का तो खैर पूछना ही क्या। खाद-बीज के दाम दिन-प्रतिदिन बढ़ ही रहे हैं। इससे छोटे किसानों को दिक्कतें पैदा होती हैं और खेतीबारी से उनका मन उचटता जा रहा है। यह एक बड़ी समस्या है। खेतों की उर्वरता बनाए रखने के लिए पशुधन उपयोगी हो सकता है। पशुओं से दूध तो मिलता ही है, साथ में खाद भी प्राप्त होती है। लेकिन खेती के साथ-साथ पशुपालन की परंपरा बड़े पैमाने पर छिन्न-भिन्न हो चुकी है।

आज गांवों में बैलों की जोड़ी इक्का-दुक्का किसानों के पास ही मिलेगी। कृषकों को अब ट्रैक्टर से खेती कराना आसान लगता है। इसके चलते पशुधन की कमी तो हुई ही, साथ ही रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता और उनके अत्यधिक इस्तेमाल के चलते शुद्ध अनाज की उत्पादकता भी घटी है। दूसरे, बड़े-बड़े बिल्डरों द्वारा उपजाऊ जमीनें छोटे किसानों से लेकर उसमें बिल्डिंग और फार्म हाऊस बना लिए गए हैं।

इन स्थितियों में सुधार की बहुत ज्यादा आवश्यकता है। सिर्फ कोरे कागज और मोटी किताबों से खेती का मसला हल होने वाला नहीं है। अत्यधिक दोहन के कारण भूजल स्तर दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है। इससे भी किसान बेहद परेशान हैं।

कृषि के विकास और उत्पदकता बढ़ाने के मकसद से तीन-चार संगोष्ठियां तो लगभग हर रोज होती हैं, पर क्या उनमें निकलकर आई बातों पर ईमानदारी से अमल भी होता है? देखा जाए तो अभी भी खेती करने योग्य जमीनें खाली पड़ी हैं। दूसरे जहां खेती हो भी रही है, वहां तीन फसलों के बजाय हम एक या दो फसलें ही उगा पा रहे हैं।

जल का संचय और बेहतर उपयोग न कर पाना भी एक बड़ी नाकामयाबी है। असल में कृषि उत्पादन वृद्धि के लिए प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण महत्वपूर्ण है। इसमें सूचना तंत्र का भी बड़ा योगदान है।

इससे प्राप्त जानकारियों से कृषि कार्य आसानी से किए जा सकते हैं। इसने कृषि कार्य को किसी हद तक आसान भी बनाया है, लेकिन जिन किसानों के पास पूंजी नहीं है, वे इससे वंचित हैं।

इनका प्रयोग मॉडरेट किसान ही कर पा रहे हैं। छोटी पूंजी वाले किसानों को तो कालसेंटर का नंबर तक पता नहीं रहता। टीवी चैनलों पर बड़ी-बड़ी कृषि पाठशालाएं लगाई जाती हैं, पर क्या इसका लाभ बड़े पैमाने पर किसानों को मिल पा रहा है?

कम्प्यूटर द्वारा निराई-गुड़ाई की मशीनें चल रही हैं। पर हर किसान के लिए ऐसा संभव नहीं है। इसके लिए हर ब्लॉक पर इस प्रकार के सार्वजनिक केंद्र खोले जाने चाहिए, जहां किसान दक्षता का प्रशिक्षण ले सकें। खेती में आजकल लागत बहुत बढ़ गई है। डीजल के दाम बढ़ने से सरकार अनेक वस्तुओं के दाम बढ़ा देती है।

किराया बढ़ जाता है, लेकिन कृषि की उपज को डीजल दामों की वृद्धि से नहीं जोड़ा जाता। खेती को लाभप्रद बनाने के लिए दरअसल बहुआयामी प्रयास करने होंगे। कृषि के क्षेत्र में अनेक लघु, कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिया जा सकता है। अनेक जगहों पर सब्जी या फलों का उत्पादन होता है, लेकिन उनके संरक्षण की व्यवस्था नहीं है। फूड प्रोसेसिंग के कार्य को कृषि से जोड़ा जा सकता है। टमाटर, आलू आदि से विभिन्न उत्पाद बनाए जा सकते हैं।

सूचना के छोटे-छोटे केंद्र गांवों में भी खोले जाने चाहिए, जिससे कृषकों को भरपूर जानकारी मिल सके। इसी तरह कृषि की उत्पादकता बढ़ाने के लिए पशुधन अनिवार्य किया जाना चाहिए।

हर वर्ष किसान सम्मान समारोह आयोजित किए-कराए जाने चाहिए, ताकि किसानों में आपसी प्रतिस्पर्धा बढ़े और वे उन्नत खेती के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित हों। सिर्फ गोष्ठियां और कृषि मेलों की फर्ज अदायगी न हो, उनमें निकलकर आई बातों पर अमल भी किया जाना चाहिए। पशुधन को संरक्षित करने के लिए सरकार द्वारा भी उचित कदम उठाए जाने चाहिए।

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