कृषि विकास हेतु गाँवों में बुनियादी सुविधाएँ

16 Jan 2017
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कृषि क्षेत्र अनिश्चित आय वाला क्षेत्र है, इसीलिये इसे मौसम का जुआ भी कहते हैं। फसल बरस गई तो परिवार के चेहरे पर खुशी छा जाती है और फसल बर्बाद हो गई तो मायूसी। फिर भी किसान हार नहीं मानता और अपने कर्म में लेशमात्र भी कमी नहीं करता। यदि खेतीबाड़ी के इर्द-गिर्द ऐसी सुविधाएँ और सहायक काम-धन्धे खड़े कर दिये जाएँ जिससे ग्रामीण लोगों की आर्थिक सेहत सुधर जाये और उन्हें रात को सुकून की नींद आ जाये तो यकीन मानिए अब भी ग्रामीण जीवन की रौनक शहरों को मात दे देगी। अक्सर यह बात कही जाती है कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, भारत ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रधान देश है, भारत कृषि प्रधान देश है, भारत की सरकार गाँवों से चलती है, जय जवान-जय किसान, उत्तम खेती-मध्यम बान, आदि-आदि। ये कहावतें यूँ ही नहीं बनीं। कभी ऐसा ही हुआ करता था। लेकिन आजादी के इन 69 सालों के सफर में हम मायावी विकास की चकाचौंध में बहुत आगे निकल गए और अपने गाँव-देहात, खेत-खलिहान व खेती-किसानी की विरासत को बिसरा बैठे। यह बात तब समझ में आई जब तीन-चार साल पहले पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था घुटनों के बल बैठ गई और भारत अपने पैरों के बल खड़ा रहा, क्योंकि इसकी जड़ें तब भी उसी ग्रामीण अर्थव्यवस्था से खुराक ले रही थीं। वरना लगभग डेढ़ अरब की आबादी वाला यह देश भुखमरी का शिकार हो गया होता। बल्कि इसके उलट आज पूरी दुनिया यह मान चुकी है कि भारत सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार है। यहाँ अनन्त सम्भावनाएँ छिपी हैं। जाहिर-सी बात है कि वे सम्भावनाएँ शहरी छद्म परिवेश में नहीं बल्कि ग्रामीण सरल-सहज जीवन में ही हैं। आज भी देश की 65 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में रहती है और उसकी रोजी-रोटी का साधन खेतीबाड़ी है।

वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक हमारे देश की कुल जनसंख्या 121.02 करोड़ थी। इसमें 68.84 प्रतिशत लोग गाँवों में निवास करते थे और 31.16 प्रतिशत शहरों में। जबकि 1951 में हुई प्रथम जनगणना में 83 प्रतिशत आबादी गाँवों में रहती थी और मात्र 17 प्रतिशत शहरों में। आजादी के बाद इन 69 सालों में करीब 14.16 प्रतिशत लोगों ने गाँव छोड़कर शहरों में पलायन कर लिया। इनमें अधिकांश वे लोग थे जिन्होंने मजबूरी में गाँव छोड़ा और वे शहरों में दो वक्त की रोटी के लिये विनिर्माण क्षेत्र में दिहाड़ी मजदूर, फैक्टरी श्रमिक, रिक्शा चलाने वाले या घरेलू नौकर बनकर रह गए। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2005 से 2012 के बीच करीब 3.7 करोड़ लोगों ने खेतीबाड़ी छोड़ दी। दुखद बात यह है कि बेहतर जिन्दगी की तलाश में शहरों में आने वाले इन लोगों को और ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। बल्कि अब तो रिवर्स गियर की स्थिति आ गई है क्योंकि विनिर्माण क्षेत्र लगभग ध्वस्त हो चुका है। लोग शहरों में वापस गाँवों की ओर लौटने लगे हैं।

सरकार और अर्थशास्त्री देश की तरक्की का हिसाब-किताब विकास दर के आधार पर तय करते हैं। इसलिये आजादी के बाद पूरा जोर औद्योगीकरण पर दिया गया ताकि अधिक-से-अधिक रोजगार और विकास दर हासिल की जाये। इस मशक्कत में कृषि क्षेत्र उपेक्षित रह गया। यह जानते हुए कि हमारी विशाल आबादी के बड़े हिस्से को उद्योग क्षेत्र काम नहीं दे सकता, तब भी सरकारें गम्भीर नहीं हुईं। आज भी हमारी खेतीबाड़ी में बड़ी-बड़ी मशीनों का काम नहीं के बराबर है और अधिकांश काम मानव-श्रम पर निर्भर करता है। इसका सीधा-सा मतलब है कि अधिकांश लोगों को कृषि क्षेत्र में रोजगार मिला है। कृषि क्षेत्र की कमी यह है कि यह अनिश्चित आय वाला क्षेत्र है, इसीलिये इसे ‘मौसम का जुआ’ भी कहते हैं। फसल बरस गई तो परिवार के चेहरे पर खुशी छा जाती है और फसल बर्बाद हो गई तो मायूसी। फिर भी किसान हार नहीं मानता और अपने कर्म में लेशमात्र भी कमी नहीं करता। यदि खेतीबाड़ी के इर्द-गिर्द ऐसी सुविधाएँ और सहायक कामधंधे खड़े कर दिए जाएँ जिससे ग्रामीण लोगों की आर्थिक सेहत सुधर जाये और उन्हें रात को सुकून की नींद आ जाये तो यकीन मानिए ग्रामीण जीवन की रौनक शहरों को मात दे देगी।

चूँकि आज भी हमारे गाँव ही दिल्ली का भाग्य तय करते हैं। ग्रामीणों के वोट के बल पर ही सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। इस बात को हमारे राजनेता बखूबी जानते और मानते हैं। फिर भी दुर्भाग्य यह है कि जो जनता सरकार में ज्यादा भागीदारी रखती है, वही आधुनिक विकास के मॉडल पर हाशिए पर चली जाती है। उसे उसका वाजिब हक नहीं दिया जाता। बजट में पैसे के बँटवारे में उसे यह कहकर उपेक्षित कर दिया जाता रहा है कि जीडीपी (सकल घरेलू उत्पादन) में इसका योगदान नहीं के बराबर है। जबकि 12-13 प्रतिशत जीडीपी वाला यही क्षेत्र देश की 60-65 प्रतिशत जनता को काम-धंधा और रोजी-रोटी दे रहा है। आखिर ऐसा विकास भी किस काम का जो अमीरी-गरीबी की खाई को और चौड़ा कर दे, शहरों और गाँवों का फासला और बढ़ा दे। जब शहरों के विकास की बात की जाती है तो यह नहीं भूलना चाहिए कि एक शहर के विकास में जितना पैसा खर्च होता है उससे 100 गाँवों की फिजा बदल सकती है। यदि गाँव ही शहर बन जाएँ और वहाँ स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, बिजली, पानी, रोजगार जैसी मूलभूत जरूरतें उपलब्ध हो जाएँ तो कोई भी अपना बसा-बसाया घर-बार नहीं छोड़ना चाहेगा।

यह सुखद बात है कि मौजूदा केन्द्र सरकार इस दिशा में गम्भीर और प्रयत्नशील दिखाई पड़ती है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने चुनावी सभाओं में देश के अन्नदाताओं को भरोसा दिलाते हुए कहा था कि मेरी सरकार किसानों के रडार पर होगी। वे इस दिशा में प्राथमिकता के आधार पर काम करते दिखाई पड़ते हैं। सरकार ने यह मान लिया है कि जब तक देश की अधिसंख्यक जनता का कल्याण नहीं होगा तब तक देश सही मायने में तरक्की नहीं कर सकता है। शायद इसीलिये प्रधानमंत्री ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है। उनका स्पष्ट मानना है कि विकास को वास्तविक गति यहीं से मिल सकती है। इसलिये कृषि और ग्रामीण विकास की वे तमाम योजनाएँ जो पहले से चली आ रही थीं, उनके क्रियान्वयन में गति दिखाई पड़ती है। इसके साथ ही सरकार ने कुछ नई योजनाएँ भी शुरू की हैं जिनकी ग्रामीण विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। यहाँ उन योजनाओं का उल्लेख करना आवश्यक है जो कृषि क्षेत्र के लिये मील का पत्थर साबित हो सकती है।

प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना


पीएमकेएसवाई मौजूदा सरकार की भारी-भरकम राशि वाली महत्वाकांक्षी परियोजना है। इसमें पाँच सालों (2015-16 से 2019-20) के लिये 50 हजार करोड़ रुपए की राशि का प्रावधान किया गया है। पहले जिस राज्य में अच्छी बारिश होती थी, उसी राज्य में अच्छी फसल हो पाती थी। नई सिंचाई योजना के तहत उन राज्यों को भी अच्छी फसल उगाने का मौका मिल सकेगा, जहाँ बारिश नहीं हुई यानी सिंचाई में निवेश में एकरूपता लाना इसका मुख्य उद्देश्य है। इस योजना का मुख्य नारा है- ‘हर खेत को पानी’। इसके तहत कृषि योग्य क्षेत्र का विस्तार किया जाना है। खेतों में ही जल के इस्तेमाल करने की दक्षता को बढ़ाना है ताकि पानी के अपव्यय को कम किया जा सके। ‘हर बूँद अधिक फसल’ के उद्देश्य से सही सिंचाई और पानी बचाने की तकनीक को अपनाना है। इसके अलावा इसमें सिंचाई में निवेश को आकर्षित करने का भी प्रयास किया जाना है।

इस समय देश में कुल 14.2 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से 65 प्रतिशत में सिंचाई सुविधा नहीं है। इसलिये योजना का उद्देश्य देश के हर खेत तक किसी-न-किसी माध्यम से सिंचाई सुविधा सुनिश्चित कराना है ताकि हर बूँद अधिक फसल ली जा सके। इस योजना के लिये मौजूदा वित्त वर्ष में 1000 करोड़ रुपए का बजटीय आवंटन किया गया है। इसके तहत हर खेत तक सिंचाई जल पहुँचाने के लिये योजनाएँ बनाने व उनके कार्यान्वयन की प्रक्रिया में राज्यों को अधिक स्वायत्तता व धन के इस्तेमाल की लचीली सुविधा दी गई है। इस योजना में केन्द्र 75 प्रतिशत अनुदान देगा और 25 प्रतिशत खर्च राज्यों के जिम्मे होगा। पूर्वोत्तर क्षेत्र और पर्वतीय राज्यों में केन्द्र का अनुदान 90 प्रतिशत तक होगा।

राष्ट्रीय ई-कृषि बाजार योजना


जुलाई 2015 में मंत्रिमण्डल ने 200 करोड़ रुपए के बजट के साथ एक ऑनलाइन राष्ट्रीय कृषि बाजार की स्थापना को मंजूरी दी थी। तब से इस दिशा तेजी से प्रयास चल रहा था और आखिर 14 अप्रैल, 2016 को प्रधानमंत्री ने इसकी घोषणा की। कृषि उत्पादों के विपणन के लिये ई-प्लेटफॉर्म की पेशकश किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिये अधिक विकल्प प्रदान करने के मकसद से की गई है। यह 2022 तक किसानों की आमदनी को दोगुना करने की रूपरेखा का हिस्सा है। तीन वर्षों में पूरी होने वाली इस योजना में मार्च 2018 तक देश भर के 585 थोक बाजारों को राष्ट्रीय ई-कृषि बाजार से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है। पहले चरण में आठ राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, झारखण्ड, गुजरात, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश के किसान 21 थोक बिक्री बाजारों में 25 जिंसों की ऑनलाइन बिक्री कर सकेंगे। इन जिंसों में फिलहाल प्याज, आलू, सेब, गेहूँ, दलहन, मोटे अनाज और कपास के अलावा कई अन्य चीजों को शामिल किया गया है।

मौजूदा समय में किसान मंडियों में ही अपने उत्पादों को बेच सकते हैं जहाँ उन्हें कई किस्म के कर देने पड़ते हैं। ऑनलाइन कृषि बाजार से उम्मीद है कि इससे किसानों को अपने उत्पाद हाजिर मंडियों अथवा ऑनलाइन प्लेटफॉर्म दोनों स्थानों पर बेचने की सुविधा प्राप्त होगी। ऑनलाइन व्यापार तक आसानी से पहुँच के कारण किसानों की आय बढ़ेगी। खास बात यह है कि इससे उत्पादों की कीमतों में भी नरमी रहेगी।

माना जा रहा है कि इस योजना से किसान को तो भरपूर फायदा होगा ही, साथ ही थोक व्यापारियों और उपभोक्ताओं को भी फायदा होगा। यह देश की कृषि व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये सरकार द्वारा की जाने वाली एक बड़ी पहल है। इससे किसानों को काफी राहत मिलेगी। सरकार चाहती है कृषि उत्पादों के विपणन के लिये ई-प्लेटफॉर्म की सुविधा देने से किसान अपने उत्पाद खुद बेच सकें।

साझा इलेक्ट्रॉनिक मंच की खासियत यह है कि अब पूरे राज्य के लिये एक लाइसेंस होगा और एक बिन्दु पर लगने वाला शुल्क होगा। मूल्य का पता लगाने के लिये इलेक्ट्रॉनिक नीलामी होगी। इसका असर यह होगा कि पूरा राज्य एक बाजार बन जाएगा और अलग-अलग बिखरे हुए बाजार खत्म हो जाएँगे। इससे किसानों के बाजार का आकार बढ़ेगा, वह अब अपने बाजार तक ही सीमित नहीं रहेगा और उसका शोषण भी नहीं हो पाएगा। उनके उत्पाद लोगों की नजरों और पहुँच में होंगे। इससे देश में किसानों की स्थिति सुधरने के साथ ही उनकी आमदनी भी दुगुनी हो जाएगी।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना
किसानों के लिये पहले भी समय-समय पर बीमा योजनाएँ बनती रहती थीं, लेकिन फिर भी फसल बीमा का कुल कवरेज मात्र 23 प्रतिशत था। इसलिये पहले से चली आ रही सभी फसल बीमा योजनाओं को समाप्त करते हुए खरीफ 2016 से प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को लागू किया गया। यह योजना अब तक की सभी फसल बीमा योजनाओं में बेहतर और किसान हितैषी मानी गई है। इस बीमा योजना से सरकार ने मौजूदा 23 फीसदी रकबे को बढ़ाकर 50 फीसदी करने का लक्ष्य रखा है। इसकी खूबी यह है कि फसल की बुआई से लेकर कटाई और उपज को खलिहान तक लाने का जोखिम इसमें शामिल किया गया है। यानी उपज जब तक किसान के घर नहीं पहुँच जाती तब तक यदि किसी भी स्थिति में फसल को कोई नुकसान होता है तो किसान को बीमा का पूरा लाभ मिलेगा। इस प्रकार इसमें जोखिम के सभी पहलुओं को ध्यान में रखा गया है। इसमें किसान द्वारा देय प्रीमियम की राशि को बहुत कम किया गया है। यह खरीफ फसल के लिये 2 प्रतिशत, रबी के लिये 1.5 प्रतिशत और वार्षिक वाणिज्यिक और बागवानी फसलों के लिये अधिकतम 5 प्रतिशत तय की गई है। बाकी का प्रीमियम 50-50 प्रतिशत केन्द्र और राज्य सरकारें देंगी। कम-से-कम 25 प्रतिशत क्लेम राशि सीधे किसान के खाते में जाएगी और बाकी की राशि भी 90 दिनों के अन्दर दे दी जाएगी। इस योजना पर साल में 17,600 करोड़ रुपए खर्च आने का अनुमान है। इसमें 8,800 करोड़ रुपए केन्द्र सरकार देगी और इतनी ही राशि राज्य सरकार।

इस योजना में यदि बीमित किसान प्राकृतिक आपदा के कारण बोनी नहीं कर पाता तो यह जोखिम भी शामिल किया गया है। इसमें ओला, जलभराव और लैण्ड स्लाइड जैसी आपदाओं को स्थानीय आपदा माना गया है। पुरानी योजनाओं के अन्तर्गत यदि किसान के खेत में जलभराव होता था तो किसान को मिलने वाली दावा राशि इस बात पर निर्भर करती कि यूनिट ऑफ इंश्योरेंस (गाँव या गाँवों के समूह) में कुल नुकसान कितना है। इस कारण कई बार नदी-नाले के किनारे या निचले स्थल में स्थित खेतों में नुकसान के बावजूद किसानों को दावा राशि प्राप्त नहीं होती थी। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में इसे स्थानीय हानि मानकर केवल प्रभावित किसानों का सर्वे कर उन्हें दावा राशि प्रदान की जाएगी। इस योजना की एक खूबी यह भी है कि इसमें पोस्ट हार्वेस्ट जोखिम भी शामिल है। फसल कटने के बाद 14 दिन तक यदि फसल खेत में है और उस दौरान कोई आपदा आ जाती है तो किसान को दावा राशि प्राप्ति हो सकेगी।

इस नई फसल बीमा योजना में यह दावा किया जा रहा है कि जोखिम वाली खेती अब पूरी तरह सुरक्षित हो जाएगी। इसका ज्यादा फायदा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बुन्देलखण्ड, विदर्भ, मराठवाड़ा और तटीय क्षेत्रों के किसानों को मिलेगा। भारतीय कृषि बीमा कम्पनी लिमिटेड के साथ निजी बीमा कम्पनियाँ इस योजना का क्रियान्वयन कर रही हैं।

मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना


19 फरवरी, 2015 को प्रधानमंत्री द्वारा शुरू की गई इस योजना का उद्देश्य अगले तीन साल में 14 करोड़ से अधिक किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड उपलब्ध कराना है। यानी हर किसान को एक मृदा स्वास्थ्य कार्ड देना है। इस महत्वाकांक्षी योजना की घोषणा 2014 में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बजट भाषण में की थी। बजट में कार्ड जारी करने के लिये 100 करोड़ रुपए तथा 100 मोबाइल मृदा परीक्षण प्रयोगशालाएँ स्थापित करने के लिये 56 करोड़ रुपए आवंटित किये गए थे। दरअसल इस कार्ड में किसी खेत विशेष की मृदा का ब्यौरा होगा कि उसमें कौन-कौन से पोषक तत्व किस-किस मात्रा में हैं और उसमें बोई गई फसलों को किस मात्रा में कौन-सा उर्वरक दिया जाना चाहिए। इस योजना का ध्येय वाक्य ‘स्वस्थ धरा, खेत हरा’ रखा गया है। इस योजना के तहत मिट्टी का परीक्षण कराना और उसी के अनुसार आवश्यक वैज्ञानिक तौर-तरीके अपनाकर मृदा के पोषण तत्वों की कमियों को दूर किया जाना है। इसका उद्देश्य मिट्टी की कमजोर पड़ती गुणवत्ता को रोकना और कृषि पैदावार को बढ़ाना है। इस योजना के तहत अगले तीन साल में देश के सभी 14.5 करोड़ किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड देने का लक्ष्य रखा गया है।

इसके अलावा जो महत्त्वपूर्ण योजनाएँ कृषि क्षेत्र और पूरे ग्रामीण परिवेश को सशक्त बनाने के लिये बुनियाद का काम कर रही हैं उनमें राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय बागवानी मिशन, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना (डीडीयूजीजेवाई), प्रधानमंत्री उज्जवला योजना, दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्य योजना (डीडीयू-जीकेवाई), सांसद आदर्श ग्राम योजना, श्यामा प्रसाद मुखर्जी रूर्बन मिशन (एनआरयूएम), आदि प्रमुख हैं।

निःसन्देह गाँवों में विकास का बुनियादी ढाँचा खड़ा करने में वर्तमान सरकार की योजनाएँ सराहनीय हैं। सवाल यह है कि उन्हें किस ईमानदारी के साथ धरातल पर उतारा जाता है। जरूरत इस बात की भी है इसके समानान्तर मॉनीटरिंग का एक ढाँचा भी खड़ा किया जाये, जिसका काम यह सुनिश्चित करना हो कि केन्द्र से जो पैसा कृषि विकास के नाम पर खेत तक आ रहा है वह शत-प्रतिशत विकास के काम पर ही खर्च हो रहा है। कभी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी जी ने कहा था कि केन्द्र से जो पैसा गाँवों के विकास के लिये जाता है उसका 15 प्रतिशत भी वास्तव में गाँवों में खर्च नहीं होता। अब वक्त आ गया है कि इस लचर व्यवस्था को दुरुस्त किया जाये और भारत के नव-निर्माण में ठोस पहल की जाये। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश की उन्नति का रास्ता खेत से ही शुरू होता है।

(लेखक ‘कृषि चौपाल’ पत्रिका के सम्पादक हैं।)

ईमेल : krishichaupal.mag@gmail.com

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