क्षेत्रीय नियोजन और जल-सम्भर विकास : कृषि जल वायु के परिप्रेक्ष्य में


चूँकि हमारी कृषि प्रमुखतया वर्षा पर निर्भर होती है, इसलिये शुष्क भूमि में अधिकाधिक फसल उगाने और इसकी उर्वराशक्ति को भूमि में बढ़ाने का महत्त्व बढ़ गया है। इस सम्बन्ध में अन्य कार्यक्रमों की अपेक्षा-जल सम्भर सम्बन्धी विकास कार्यक्रमों की उपयोगिता कहीं अधिक है। लेखक का मत है कि इस कार्यक्रम की सफलता के लिये लोगों की सक्रिय भागीदारी पहली आवश्यकता है। कृषि जलवायु सम्बन्धी कारकों पर आधारित कृषि सम्बन्धी विकास के लिये नियोजन की नीति को मजबूत बनाना, निस्सन्देह देश के विभिन्न क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों की क्षमताओं और सीमाओं को उजागर करने का एक प्रयास है। योजना आयोग ने कृषि विकास के लिये जो उद्देश्य निर्धारित किये हैं उनमें कृषि जलवायु सम्बन्धी विकास पर बल देना सर्वप्रमुख है। योजना आयोग का यह उद्देश्य इस प्रकार है: ‘‘सिंचित व असिंचित क्षेत्रों में देश के विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में प्रणालीबद्ध तरीके से विभिन्न फसलों की पैदावार बढ़ाकर कृषि विकास की दर में तेजी लाना’’।

कार्यविधि और उद्देश्य


अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये योजना आयोग ने देश को 15 कृषि जलवायु क्षेत्रों में विभाजित किया है। योजना आयोग ने कई नीतियों का उल्लेख किया तथा अपने कार्यक्रमों को लागू करने के लिये प्रमुख नीति, क्षेत्र विशेष के कृषि जलवायु क्षेत्रीय नियोजन को संस्थागत स्वरूप देने की रही है। विभिन्न क्षेत्रों की कृषि विकास सम्बन्धी समस्याओं का निदान करने तथा विकासीय मुद्दों, कार्य नीतियों और कार्य योजनाओं के विवरण वाली रिपोर्टें देने के लिये अनेक क्षेत्रीय नियोजन दल बनाए गए।

इन दलों ने अपनी रिपोर्टें दे दी हैं तथा उप-क्षेत्रीय स्तर पर फसल के स्वरूप, भू एवं जलोपयोग प्रबन्ध, दुग्धोत्पादन, मत्स्य, वन-वर्धन, वानिकी और अन्य कृषि जन्य सम्बद्ध उपक्रमों के बारे में सुझाव दिये हैं। इन सिफारिशों के आधार पर आयोग ने फैसला किया कि आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कृषि जलवायु सम्बन्धी क्षेत्रीय नियोजन को इस प्रकार मजबूत व संस्थागत बनाया जाएगा कि यह तत्काल ही स्थानीय नियोजन के लिये विशेष मार्गदर्शन प्रदान कर सकें और एक ऐसा ढाँचा उपलब्ध कराएँ, जिसमें विभिन्न संस्थाओं तथा विभिन्न क्षेत्रों में परस्पर सम्बन्धित गतिविधियों को समन्वित किया जा सके।

 

आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कृषि जलवायु सम्बन्धी क्षेत्रीय नियोजन को इस प्रकार मजबूत व संस्थागत बनाया जाएगा कि यह तत्काल ही स्थानीय नियोजन के लिये विशेष मार्गदर्शन प्रदान कर सकें और एक ऐसा ढाँचा उपलब्ध कराएँ, जिसमें विभिन्न संस्थाओं तथा विभिन्न क्षेत्रों में परस्पर सम्बन्धित गतिविधियों को समन्वित किया जा सके।

 


 

समूची प्रक्रिया में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात, देश में विभिन्न फसलों की पैदावार और उत्पादकता पर इसका अपेक्षित प्रभाव है। इसलिये संसाधनों के भण्डारों के स्थानिक अन्तरों पर आधारित क्षेत्रीय कृषि नियोजन के तरीके से ऐसी कार्यनीतियाँ व कार्यक्रम तैयार करने में मदद मिलेगी जिनमें स्थानीय आवश्यकताओं, प्राकृतिक भण्डारों, योजनाबद्ध प्रौद्योगिक आधार एवं विपणन, मूल्य निर्धारण और खाद्य प्रसंस्करण को ध्यान में रखा जा सकेगा।

आठवीं योजना में जिला स्तर से नीचे, नियोजन और क्रियान्वयन को चयनात्मक आधार पर शुरू किया जाएगा, जिसमें स्थानीय जनता और ग्राम पंचायतों को सक्रिय रूप से शामिल किया जाएगा।

इस दिशा में पहले कदम के रूप में योजना आयोग ने देश को 15 कृषि जलवायु क्षेत्रों में विभाजित किया। यह विभाजन, प्रख्यात विद्वानों द्वारा पूर्ण रूप में किये गए अध्ययनों के आधार पर किया गया है। क्षेत्रीयकरण के लिये मृदा, जलवायु और जल को प्रमुख आधार बनाया गया।

क्षेत्रों के विकास की समस्याओं के निदान और इनके विकास की कार्य योजनाएँ तैयार करने के लिये आयोग ने 1988 में 15 क्षेत्रीय नियोजन दल गठित किये। इन दलों में कृषि विश्वविद्यालयों व भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के विशेषज्ञों, राज्य सरकारों, भारत सरकार और योजना आयोग के अधिकारियों तथा वित्तीय संस्थानों व अन्य स्वयंसेवी संगठनों के प्रतिनिधि शामिल किये गए।

रूपरेखा


क्षेत्रीय नियोजन दलों का काम प्रत्येक क्षेत्र की रूपरेखा तैयार करने के साथ आरम्भ हुआ। क्षेत्रीय रूपरेखाओं में मृदा, जल और जलवायु को प्रभावकारी तत्व मानकर कृषि व सम्बद्ध गतिविधियों की स्थिति का खाका खींचा गया। क्षेत्रों की इन रूपरेखाओं और आँकड़ों की सहायता से विशिष्ट समस्याओं से निपटना सम्भव हो सका और फिर इनसे क्षेत्रों के अन्तरों को समझने में आसानी हुई, जिससे उप-क्षेत्र बनाने में मदद मिली।

1988 से अब तक इन दलों का काम काफी अच्छा रहा है। व्यापक आँकड़ों की जानकारी के आधार पर की गई 15 क्षेत्रों और 73 उप-क्षेत्रों की रूपरेखाओं से विकास की समस्याओं को पहचानने तथा इनके समाधान के लिये उपयुक्त कार्यनीतियाँ तैयार करने में मदद मिली।

बाद में इन दलों और राज्य प्रशासन द्वारा मिलकर क्षेत्रीय और उपक्षेत्रीय कार्यकलापों को समन्वित करके राज्य स्तरीय प्राथमिकताएँ तय करना सुगम हो गया। फिर जिला स्तरीय नियोजन तंत्र की स्थिति और विकेन्द्रित नियोजन प्रणाली के अन्तर्गत कृषि विकास कार्यक्रम शुरू करने के लिये इसकी तैयारी का जायजा लेने के लिये कुछ विशिष्ट परियोजनाएँ तैयार की गईं।

योजना आयोग द्वारा जिस कृषि जलवायु सम्बन्धी क्षेत्रीय नियोजन की प्रभावोत्पादकता की (जो मूलतः क्षेत्रवार योजना है) काफी सिफारिश की गई है, उस पर कुछ हल्कों में चर्चा की जा रही है। विभिन्न क्षेत्रीय नियोजन दलों ने कई प्रयोग किये हैं जिनसे क्षेत्र व उप-क्षेत्र स्तरों पर समस्याओं व सम्भावनाओं को समझने में निश्चित ही मदद मिली है। इस मसले को अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिये यह जरूरी होगा कि क्षेत्रवार पहचानी गई समस्याओं और की गई सिफारिशों का विवरण प्रस्तुत किया जाये।

अन्तर क्षेत्र समस्याएँ व कार्यनीतियाँ


क्षेत्रीय नियोजन दलों द्वारा तैयार की गई रिपोर्टों का अप्पा राव ने (1990) बड़ी बारीकी से अध्ययन किया जिससे कई समस्याओं का पता चला। इनमें से दो भूमि और जल प्रमुख संसाधन हैं तथा कई क्षेत्रों के कृषि विकास में इनकी मुख्य भूमिका रहती है। भूमि और जल से सम्बन्धित विभिन्न समस्याओं से होने वाले नुकसान का स्वरूप अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग है।

तालिका-1


विभिन्न क्षेत्रों की जल एवं भूमि सम्बन्धी समस्याएँ


 

क्रं.

क्षेत्र

जल एवं भूमि सम्बन्धी समस्याएँ

अनुशासित कार्यनीति

1.

पश्चिमी हिमालय

भूक्षरण और वर्षा के जल का बहाव

जल सम्भर योजना

2.

पूर्वी हिमालय

भूक्षरण और भूस्तर का गिरना, बदलाव कृषि, बाढ़ों की पुनरावृत्ति और जल निकास।

भू-संरक्षण के लिये व्यापक योजना भू-प्रयोग परियोजना, बाढ़ व अपवहन।

3.

गंगा का निचला मैदान

अधिक वर्षा परन्तु कुछ ही महीनों तक सीमित, बाढ़ व जल का निकास, भूजल का अपर्याप्त उपयोग

भण्डारण तालाबों का निर्माण, जल सम्भर कार्यक्रम, भूजल का भरसक उपयोग।

4.

गंगा का मध्यवर्ती मैदान

समस्याग्रस्त मृदा वाला 10 लाख हेक्टेयर क्षेत्र, बाढ़ की सम्भावना वाले क्षेत्र से जल निकासी, भूजल क्षमताओं का अपर्याप्त उपयोग

समस्याग्रस्त मृदाओं वाली भूमि का सुधार, बाढ़ नियंत्रण, भूजल का भरसक उपयोग।

5.

गंगा का ऊपरी मैदान

समस्याग्रस्त मृदा वाला दस लाख हेक्टेयर क्षेत्र, बाढ़ तथा जलाक्रान्ति, भूजल का अपर्याप्त उपयोग

भूमि सुधार, बाढ़ नियंत्रण, जल निकासी, भूजल का भरसक उपयोग

6.

गंगा पार मैदान

जल निकासी व बाढ़ जल की क्षारीयता तथा समस्याग्रस्त मृदाएँ

जल प्रबन्ध, भूमि सुधार।

7.

पूर्वी पठार और पहाड़ियाँ

वर्षाजल का बह जाना, अम्लीय मृदाएँ, निम्नस्तरीय तालाब।

जल सम्भर प्रबन्ध, भूमि सुधार, तालाबों का पुनरुद्धार।

8.

मध्यवर्ती पठार और पहाड़ियाँ

अधिकांश शुष्क भूमि कृषि, ऊबड़-खाबड़ भूमि तथा भूसंरक्षण

जल सम्भर विकास।

9.

पश्चिमी पठार और पहाड़ियाँ

सोडा-क्षार, लवणीय और क्षारीय मृदाएँ, जलाक्रान्ति

भूमि सुधार, जल निकासी

10.

दक्षिणी पठार और पहाड़ियाँ

वर्षाजल प्रबन्ध और भूसंरक्षण, मृदा की लवणत।

जल सम्भर योजनाएँ, भूमि सुधार।

11.

पश्चिमी तटवर्ती मैदान व पहाड़ियाँ

बाढ़ व पानी का जमाव, अम्लीयता, लवणता और क्षारीयता, निम्नस्तरीय तालाब

जल निकासी उपाय, भूमि सुधार, आधुनिकीकरण व तालाब प्रबन्ध भू-संरक्षण।

12.

पश्चिमी मैदान और घाट

भू-संरक्षण, वर्षाजल का बहाव, समस्या-ग्रस्त मृदाएँ

भूमि-संरक्षण जलोपयोगी उपाय, भूमि सुधार।

13.

गुजरात के मैदान और पहाड़ियाँ

लवणीय मृदाएँ, भूजल का अपर्याप्त उपयोग, जल का बहाव।

भूमि सुधार, भूजल, वर्षा का भरसक उपयोग, जल सम्भर विकास कार्यक्र।

14.

पश्चिमी शुष्क

कम वर्षा वाला क्षेत्र

भू एवं जल संरक्षण तथा भू उपयोग नियोजन।

15.

द्वीप समूह

वर्षाजल का बहाव और भूजल का अपर्याप्त उपयोग

वर्षाजल प्रबन्ध और उपयोग तथा भूजल का उपयोग।

 

अखिल भारतीय स्तर पर इन आँकड़ों से एक अत्यावश्यकता का पता चलता है, जिसके साथ वर्षा सिंचित दोनों ही प्रकार के क्षेत्रों की समस्याओं पर ध्यान देना होगा। इन भूमियों से सम्बन्धित सिफारिशों से पता चलता है कि भूमि विकास, प्रौद्योगिकी और सबसे महत्त्वपूर्ण विस्तार के क्षेत्र में हस्तक्षेप जरूरी है। ये सभी क्षेत्र परस्पर जुड़े हुए हैं और इन्हें ऊपर दिये गए क्रम में ही संचालित करना जरूरी है। परन्तु वर्षा सिंचित कृषि के अन्तर्गत आने वाले क्षेत्र का, जोते जाने वाले कुल क्षेत्र का दो-तिहाई होने का अनुमान लगाया गया है, इसलिये इस पर विशेष ध्यान देना जरूरी है।

वर्षा सिंचित क्षेत्रों में फसल की सम्भावनाओं को बेहतर बनाने के लिये साठ के दशक के अन्त से ही जल-सम्भर विकास एक महत्त्वपूर्ण कार्यनीति के रूप में स्वीकार किया गया है। भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद ने 1968 में हैदराबाद के निकट शुष्क भूमि की एक अखिल भारतीय समन्वित परियोजना शुरू की।

साथ-साथ अन्तरराष्ट्रीय अर्द्ध उष्ण कटिबन्ध फसल अनुसन्धान संस्थान (इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सेमी एरिड ट्रॉपिक्स) ने आन्ध्र प्रदेश में पाटन चेरू से काम करना शुरू कर दिया। इस दिशा में एक और महत्त्वपूर्ण काम हुआ जल एवं भूमि प्रबन्ध प्रौद्योगिकियों के प्रति समर्पित एक संस्थान ‘वाल्मी’ की स्थापना। इस तरह से वैज्ञानिकों के प्रयासों से सरकार को मालूम हुआ कि शुष्क क्षेत्रों में नई प्रौद्योगिकियाँ शुरू करने की दिशा में वर्षा सिंचित क्षेत्रों में जल प्रबन्ध एक महत्त्वपूर्ण नीति होगी।

जल-सम्भर विकास


फसलों, चारे, फलों, ईंधन व इमारती लकड़ी का उत्पादन बढ़ाने व स्थायी बनाने के लिये वर्षा सिंचित क्षेत्रों की कृष्य एवं गैर-कृष्य दोनों ही प्रकार की भूमियों के समन्वित विकास के लिये जल-सम्भर विकास को एक प्रमुख कार्यनीति के रूप में स्वीकार किया गया। इसके लिये मृदा आर्द्रता संरक्षण के बेहतर उपाय, बेहतर फसल व उन्नत प्रौद्योगिकी पद्धतियों तथा पुनः वनारोपण के प्रयासों को जरूरी समझा गया।

शुरुआत में, जून 94 में आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र राज्यों में प्रायोगिक परियोजनाएँ आरम्भ की गईं। इस काम के लिये पारम्परिक रूप से वर्षा वाले क्षेत्रों में चार जल-सम्भर बनाना तय किया गया। लाल मिट्टी वाले न्यूनतम वर्षा वाले क्षेत्र के लिये कर्नाटक में कब्बाल नाला जल सम्भर (बंगलौर-मांड्या जिले) और आन्ध्र प्रदेश में महेश्वरम जल-सम्भर (रंगा रेड्डी जिला) का चयन किया गया मध्यम वर्षा वाले काली मिट्टी के इलाकों के लिये महाराष्ट्र के मनोली जल-सम्भर (अकोला जिला) और मध्य प्रदेश के परुआ नाला जल सम्भर (भोपाल-सीहोर जिले) को छाँटा गया।

इन प्रायोगिक जल-सम्भर परियोजनाओं से प्राप्त अनुभव की मदद से अन्य राज्यों में भी जल सम्भर परियोजनाएँ शुरू की गई। वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिये राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास परियोजना के अन्तर्गत आठवीं योजना की अवधि में शामिल किये जाने वाले निर्धारित वित्तीय प्रावधान मामूली रहे हैं। (तालिका-4 और 5)। राज्यों में, कर्नाटक ने जल-सम्भर विकास कार्यक्रमों पर अधिक उत्साह से अमल किया तथा वहाँ के कार्यक्रमों के परिणाम अत्यन्त उत्साहवर्धक हैं।

कर्नाटक में विभिन्न योजनाओं की प्रगति को तालिका-5 में दर्शाया गया है। तालिका-5 में दिये गए आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि कर्नाटक ने जल सम्भर विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में उल्लेखनीय प्रगति की। लेकिन, इन कार्यक्रमों को कार्यान्वित करने वाली संस्थाओं को शीघ्र ही महसूस होने लगा कि इन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में किसानों को शामिल करना बहुत जरूरी है।

सूक्ष्म जल-सम्भर संघों के गठन के लिये एक कार्यक्रम बनाया गया और कई जल-सम्भरों में ये संघ जल-सम्भर विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन का प्रबन्ध कर रहे हैं। परन्तु इन संघों के कामकाज की समीक्षा से एक सीमित सफलता और इन कार्यक्रमों में शामिल होने के लिये किसानों को सही ढंग से प्रेरित करने की आवश्यकता के संकेत मिले।

तालिका-2


भारत में भूमि के निम्नीकरण की समस्याएँ


 

क्रं.

विवरण

करोड़ हेक्टेयर में, क्षेत्र (1984-85)

1.

भौगोलिक क्षेत्र

32.9

2.

भूजल, वायु क्षरण से प्रभावित क्षेत्र

14.443

3.

कुल सूखा प्रवण क्षेत्र

260.0

4.

क्षेत्रीय निम्नीकरण की विशेष समस्याएँ

-

क.

जलाक्रान्ति

8.53

ख.

क्षारीय मृदाएँ

3.58

ग.

लवणीय मृदाएँ

5.50

घ.

ऊबड़-खाबड़ भूमि (बीहड़)

3.97

ङ.

बदलाव कृषि

4.91

च.

बदलाव कृषि से प्रतिवर्ष प्रभावित होने वाला क्षेत्र

1.00

छ.

नदियों के तटवर्ती क्षेत्र और बेगधारा

2.73

ज.

बीहड़ों द्वारा प्रतिवर्ष अतिक्रमित पठारी भूमि

8000 हेक्टेयर

झ.

कुल विशेष समस्याग्रस्त क्षेत्र

29.22

5.

कुल समस्याग्रस्त क्षेत्र

173.65

6.

प्रति हेक्टेयर वार्षिक औसत मृदा-क्षति (भा.कृ. अ. प.)

16 टन

7.

पोधों में पोषक तत्वों की औसत वार्षिक क्षति

5.7 से 8.4 मीटर

 

निष्कर्ष


कृषि जलवायु सम्बन्धी कार्यों से कृषि विकास के लिये स्थानीय संसाधनों पर आधारित उचित नीतियाँ तैयार करने की आवश्यकता स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आई है। चूँकि भारतीय कृषि, मुख्यतया इन्द्रदेव की कृपा पर निर्भर है, इसलिये योजनाकारों ने समय-समय पर शुष्क भूमि से पैदावार और उत्पादकता बढ़ाने पर बल दिया है।

परिणामस्वरूप, शुष्क भूमि कृषि द्वारा झेली जा रही कुछ समस्याओं के समाधान के लिये जल-सम्भर विकास कार्यक्रमों को उचित समझा गया है। चूँकि, जल-सम्भर विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत कृष्य व गैर-कृष्य दोनों ही प्रकार की भूमियों के विकास के लिये समन्वित कार्यक्रम शामिल हैं, जो बेहतर मृदा और शुष्क भूमि में आर्द्रता बनाए रखने को सुनिश्चित तो करते हैं, साथ ही पुनः वनीकरण के अलावा बेहतर फसल तथा उन्नत प्रौद्योगिकी तरीकों को भी सुनिश्चित करते हैं, इसलिये यह कार्यक्रम शुष्क भूमि क्षेत्रों के विकास के अन्य कार्यक्रमों की तुलना में अधिक कारगर है।

कर्नाटक की सफलता से जल-सम्भर विकास कार्यक्रमों के अन्तर्गत शुष्क भूमि कृषि की बेहतर सम्भावनाओं के प्रति निश्चित ही आशा जगती है। फिर भी, जल-सम्भर विकास कार्यक्रम के किसी भी सफल क्रियान्वयन के लिये लोगों की भागीदारी एक अत्यन्त आवश्यक शर्त है तथा उनके सहयोग के बिना ये सारे प्रयास निष्फल ही रहेंगे।

तालिका-3


 

आठवीं योजनावधि में राज्यों द्वारा, वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिये राष्ट्रीय जल-सम्भर विकास परियोजना के अन्तर्गत वर्षा सिंचित तथा लक्षित कृषि क्षेत्र

क्र.

राज्य

वास्तविक वर्षा सिंचित कृषि क्षेत्र ‘000’ सम्पूर्ण भारत के वर्षा सिंचित कृषि योग्य क्षेत्र में वर्षा सिंचित कृषि का प्रतिशत

लक्षित क्षेत्र ‘000’ है। आठवीं योजना (कृषि योग्य और गैर कृषि योग्य क्षेत्र)

1.

2.

3.

4.

1.

आन्ध्र प्रदेश

6964 (7.04)

197.150

2.

अरुणाचल प्रदेश

96 (0.10

2.800

3.

असम

2124 (2.15)

60.2000

4.

बिहार

4848 (4.90)

137.200

5.

गुजरात

7343 (7.43)

208.025

6.

हरियाणा

1427 (1.45)

40.600

7.

हिमाचल प्रदेश

485 (0.50)

14.000

8.

जम्मू एवं कश्मीर

426 (0.43)

12.050

9.

कर्नाटक

856 (8.95)

150.600

10.

केरल

1913 (1.93)

54.025

11.

मध्य प्रदेश

16195 (16.37)

458.375

12.

महाराष्ट्र

16083 (16.25)

455.000

13.

ओड़िशा

4822 (4.87)

136.350

14.

पंजाब

568 (0.57)

15.950

15.

राजस्थान

12011 (12.12)

339.950

16.

तमिलनाडु

3148 (3.18)

89.025

17.

उत्तर प्रदेश

7369 (7.45)

208.600

18.

पश्चिम बंगाल

3361 (3.40)

95.250

19.

अन्य राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेश

897 (0.91)

24.85

 

कुल

98.936

2800.000

 

अथवा

10.00 करोड़

.28 करोड़ हेक्टेयर

 

 


 

तालिका-4


 

आठवीं योजना (1992-93 से 1996-97) के लिये आवंटन राज्यों की वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिये राष्ट्रीय जल-सम्भर विकास परियोजना (एन.डब्ल्यू.पी.आर.ए.) के सन्दर्भ में

क्रं.

राज्य

वित्तीय परिव्यय (करोड़ रु.)

 

 

1990-91 सरकार द्वारा जारी राशि

1991-92 सरकार द्वारा जारी राशि

आठवीं योजना आवंटन

कुल वार्षिक योजनाएँ तथा आठवीं योजना

1.

आन्ध्र प्रदेश

4.41

11.20

76.00

91.61

2.

अरुणाचल प्रदेश

0.08

0,18

1.07

1.33

3.

असम

1.71

3.50

23.22

28.43

4.

बिहार

3.45

7.80

52.80

64.05

5.

गुजरात

5.28

11.80

80.24

97.32

6.

हरियाणा

0.84

2.40

15.60

18.84

7.

हिमाचल प्रदेश

0.26

0.80

5.40

6.46

8.

जम्मू एवं कश्मीर

0.34

0.6

4.65

5.59

9.

कर्नाटक

7.52

14.20

96.65

118.37

10.

केरल

1.54

3.00

20.00

24.54

11.

मध्य प्रदेश

12.37

26.00

176.80

215.17

12.

महाराष्ट्र

9.88

25.90

175.60

211.38

13.

उड़ीसा

3.80

7.75

52.60

64.15

14.

पंजाब

0.43

0.95

6.15

7.53

15.

राजस्थान

8.45

19.40

131.20

149.05

16.

तमिलनाडु

2.09

5.08

34.34

41.51

17.

उत्तर प्रदेश

5.51

11.50

80.50

97.51

18.

पश्चिम बंगाल

2.74

5.40

36.70

44.84

19.

प्रमुख राज्य

70.7

157.46

1069.52

1297.68

20.

अन्य राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेश

0.67

3.06

10.78

14.51

सभी राज्य मुख्यालयों में तथा परियोजना के दौरान आरम्भ की जाने वाले गतिविधियों का योग

71.37

160.52

1080.30

1312.19

-

-

20.00

20.00

कुल जोड़

71.37

160.52

1100.30

1332.19

 


 

तालिका 5


 

विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत 1993-94 में कर्नाटक में जल सम्भर कार्यक्रम

क्रं.

योजना

जल सम्भरों की संख्या

लक्ष्य (हेक्टेयर में)

उपलब्धि (हेक्टेयर में)

व्यय (लाख रु. में)

1.

विश्व बैंक से सहायता प्राप्त जल सम्भर

6

 

 

 

क.

कम्बल नाला

 

30,302

30,302

1020

ख.

मवाथुरकेरे जल सम्भर

 

47,343

38,040

1053

ग.

चार अतिरिक्त जल सम्भर

 

51,426

33,867

1144

2.

जिला जल सम्भर

18

5,69,841

44,21,977

8545

3.

स्विस सहायता प्राप्त जल सम्भर

1

10.111

5,883

541

4.

आठवीं पंचवर्षीय योजना, वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिये राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास परियोजना

85

2,50,600

अनुपलब्ध

118

 

योग

 

9,59,623

 

23.421

 

 


 

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