कश्मीर के चश्मों की पहचान बचा रहे रिफत

23 Mar 2020
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कश्मीर के चश्मों की पहचान बचा रहे रिफत
कश्मीर के चश्मों की पहचान बचा रहे रिफत

नवीन नवाज, कश्मीर, दैनिक जागरण, 23 मार्च 2020


वादी -ए-कश्मीर में चश्मे जो कभी पहचान थे आज वे लुप्त होने की कगार पर हैं, लेकिन इन्हें बचाने के लिये नए कश्मीर के नौजवान आग आए हैं। इनमें पर्यावरण संरक्षक रिफत अब्दुल्ला हैं। मदर टेरेसा अवार्ड से सम्मानित रिफत ने घाटी के जल स्रोतों को बचाने के लिये अभियान छेड़ रखा है। इनमें उनके कुछ दोस्त और स्थानीय लोग मदद कर रहे हैं।

बड़गाम के रिफत शुरु से सामाजिक व खेल गतिविधियोंं में रुचि रखते हैं। रिफत कहते हैं कि मैने पहले कुछ पुराने और प्रसिद्ध चश्मों को चुना। इनकी सफाई करते हुए उसके इतिहास, मौजूदा स्थिति और स्थानीय लोगों से उनके रिश्ते के बारे में भी जाना। हम किसी को भी नहीं कहते कि आओ सफाई करो। जिस जगह हम चश्मों की सफाई के लिये जाते वहाँ स्थानीय लोग खुद हिस्सा बन जाते। कईं बार तो हमें लोग फोन कर बताते कि वे अपने मुहल्ले में, गाँव में सूख चुके चश्मे को बहाल करने जा रहे हैं, आप भी आईये। रिफत की माने तो तीन वर्षों में 40 चश्मों का जीर्णोद्धार किया। इनमें से अधिकांश श्रीनगर, जेवन, खिरयू, बड़गाम, पट्टन और पांपोर में हा। अधिकांश चश्मे प्लास्टिक और काँच के कचरे से लबालब थे। लोगों ने घरों के कचरे से उन चश्मों को भर दिया था। आज कईं जगह चश्मों से ही पीएचई विभाग लोगों को पेयजल की सप्लाई कर रही है। अब तो स्कूलों में भी बच्चों को इन चश्मों को बचाने बचाने व इनके संरक्षण के लिये प्रेरित किया जा रहा है। कुछ लोगों ने पहले कहा कि हमें कोई संगठन बनाना चाहिये, लेकिन संगठन में आप बँध जाते हैं। हमने कहा कि संगठन नहीं हमें अपने जलस्रोतों के संरक्षण के लिये लोगों में भावना मजबूत करनी है। इसलिये भावना बनाओ संगठन नहीं। जलस्रोत होंगें तो जलसंरक्षण होगा, जलसंकट खत्म होगा, पारिस्थितिक संतुलन बरकरार होगा। हमने पूरी वादी में हर जिले व कस्बे में तीन- चार वॉलंटियर तैयार किये हैं जो स्थानीय स्तर पर अपने तौर पर काम करते हैं. यही हमारी कामयाबी का राज है। हमारे प्रयासों के कारण राज्य राज्य ग्रामीण विकास विभाग ने गाँवों में जलस्रोतों से प्लास्टिक कचरा हटाने का भी अभियान शुरु किया था।

क्या होते हैं चश्मे

चश्मे अक्सर ऐसे क्षेत्रों में बनते हैं जहां धरती में कईं दरारें और कटाव हों जिनमें बारिश, नदियों और झीलों का पानी प्रवेश कर जाए, फिर यही पानी जमीन के अंदर ही प्राकृतिक नालियों और गुफाओं में सफर करता हुआ किसी और जगह से जमीन से चश्मे के रूप में उभर आता है। कभी कभी जमीन के अंदर पानी किसी बड़े जलाशय में होता है जो दबाव के कारण या पहाड़ी इलाकों में ऊंचाई से नीचे आते हुए जमीन के ऊपर चश्मों में फटकर बाहर आता है। 

चश्मों को नाग कहा जाता है

रिफत कहते हैं कि कश्मीर में हजारों चश्मे हैं। इन चश्मों को स्थानीय भाषा में नाग कहा जाता है। अनंतनाग का नाम भी बहां अनगिनत चश्मों की मौजूदगी के कारण मिला है। कश्मीरी पंडितों का कोई ऐसा धर्मस्थल नहीं है, जहां नाग न हो। जियारतगाहों में भी नाग हैं। इसके अलावा सभी प्रमुख बस्तियों में नाग अथवा चश्में हैं। इनके आसपास फलदार पेड़ या फिर छायादार चिनार होता है। वादी में कईं धर्मस्थल और पर्यटकस्थल इन चश्मों पर ही है। 

हैरान था कि कश्मीर में पानी के लिये प्रदर्शन

रिफत बोले कि मैं जब मीडिया में आया तो लोग अपनी रोजमर्रा की समस्याओं का जिक्र करते थे। एक दिन खबर आती है कि अनंतनाग के एक मुहल्ले में लोगोगं ने पेयजल की किल्लत को लेकर प्रदर्शन किया है। वहां लाठियां भी चली। मैं हैरान भी हुआ कि पानी के लिये लाठियां और वह भी अनंतनाग में। मैने कोई ज्यादा ध्यान नहीं दिया। कुछ दिनों बाद बड़गाम में भी ऐसा सुनने को मिला।

जब लोगों से बातचीत की तो पता चला कि पहले कभी वह चश्मे का पानी पीते थे, बाद में पीएचई की सप्लाई होने लगी और आबादी बढ़ने के कारण पीएचई की आपूर्ति कम पड़ रही है। मैने जब लोगों से कहा कि बह चश्मे का क्यों इस्तेमाल नहीं करते तो पता चला कि चश्मा तो इतिहास हो चुका है और कचरे का ढेर बन चुका है।


 

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