कुंभ कथा
20 February 2013
इलाहाबाद के संगम तट पर हर 12 साल बाद महाकुंभ का आयोजन होता है। इसके अलावा हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में भी बारी-बारी से कुंभ आयोजित होता है। ये आयोजन हमें याद दिलाते हैं उस पौराणिक कथा की, जिसका रिश्ता समुद्र मंथन से है। प्रयाग में सूर्यरश्मि गंगा और सूर्यतनया यमुना के इस महामिलन को प्रणाम करते हुए हर 12 वर्ष पर महाकुंभ, सनातन धर्म का प्रतीक आयोजन है। तीर्थराज प्रयाग अकेला वो स्थान है जहां दो पवित्र नदियों के संगम पर कुंभ का आयोजन होता है। प्रयाग यानी यज्ञों की भूमि, जिसे पुराण पृथ्वी की जंघा बताते हैं। जहां प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना के लिए यज्ञ किया। पुराणकारों ने समस्त ब्रह्मांड की कल्पना एक कुंभ यानी घड़े के रूप में की है जिसमें समस्त ज्ञान, सारे महाद्वीप और महासागर विद्यमान हैं। इस तरह कुंभ का आयोजन ब्रह्मांड पर विमर्श का अवसर भी है। भक्ति काव्य में मानव शरीर की कल्पना भी कुंभ के रूप में की गई है। कबीरदास जी कहते हैं
जल में कुंभ,कुंभ में जल है, बाहर-भीतर पानी,
फूटा कुंभ जल जलहिं समाना, यह तत्व कहैं गियानी।


लेकिन आम श्रद्धालुओं के लिए कुंभ का रिश्ता उन पौराणिक कथाओं से है जिनका रिश्ता अमृत की खोज से है। इनमें सबसे प्रसिद्ध है समुद्र मंथन की कथा। कहते हैं कि देवता और असुर एक दूसरे को परास्त करने के लिए लगातार लड़ते थे। देवासुर संग्राम खत्म ही नहीं होता था। ऐसे में तय हुआ कि समुद्र मंथन करके अमृत निकाला जाये ताकि मृत्यु का भय न रहे। क्षीरसागर में मदरांचल पर्वत को मथानी और वासुकि नाग को नेति बनाकर मंथन शुरू हुआ। विष्णु ने कच्छप का रूप धरकर मदरांचल को आधार दिया। इस मंथन में लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, पारिजात वृक्ष, सुरा, धन्वंतरि, चंद्रमा, कालकूट विष, पुष्पक विमान, ऐरावत हाथी, पांचजन्य शंख, अप्सरा रंभा, कामधेनु गाय, उच्चैश्रवा अश्व और अंत में अमृत कुंभ निकला। लेकिन अमृत निकलते ही देवताओं ने असुरों को इससे वंचित करने का षड़यंत्र शुरू कर दिया। पुराणों में सुरों और असुरों को सौतेले भाई ही बताया गया है जिनके पिता एक ही थे, यानी प्रजापति। इतिहासकार मानते हैं कि सुर कृषिक्षेत्र को बढ़ाते हुए जंगलों का नाश कर रहे थे और असुर जंगलों पर ही आश्रित थे। यही संघर्ष का मूल था। जो भी हो, समुद्र मंथन की ये दिलचस्प कथा हजारों साल से सुनी और सुनाई जा रही है। लेकिन जहां तक कुंभपर्व के आयोजन की बात है तो इसका सिलसिला बारहवीं सदी के पहले से नहीं जुड़ता। आदि शंकराचार्य ने नवीं शताब्दी में संन्यासियों को दशनामी अखाड़ों में संगठित किया था जिनके मिलने-जुलने के आयोजनों ने आगे चलकर कुंभ का रूप ले लिया। इसके पूर्व माघ मेलों का जिक्र मिलता है। चीनी यात्री ह्वेन सांग ने ईस्वी सन 644 में आयोजित ऐसे ही एक मेले का आंखों देखा हाल लिखा है, जब वो कन्नौज के शासक हर्षवर्धन के साथ प्रयाग आया था।

मृत्यु एक शाश्वत भय है और अमरता एक शाश्वत लालसा। फिर चाहे मसला देवों का हो या मनुष्यों का। इसीलिए यक्षप्रश्न के जवाब में युधिष्ठिर ने कहा था कि हम बार-बार प्रियजनों की मृत्यु देखते हैं, पर सोचते हैं कि हम नहीं मरेंगे। कुंभ दरअसल, अमर होने की इसी लालसा का उत्सव है। वैसे इक्कीसवीं सदी में ये लालसा मनुष्य जाति के लिए लक्ष्य भी बन चुकी है जिसका रिश्ता इस संगम से ही नहीं, दुनिया भर की उन प्रयोगशालाओं से भी है जहां तमाम विज्ञानी इस लक्ष्य को भेदने में जुटे हैं।

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