क्या कोई समाधान है

27 Apr 2017
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सरकार अत्यंत पेचीदा तथा महँगी तकनीकियाँ अपना रही है, जबकि हमारे पास इसके सस्ते व कारगर विकल्प उपलब्ध हैं

(क) कार्य-स्थल परीक्षण उपकरण
1. संखिया प्रदूषण की जाँच के लिये अन्तरराष्ट्रीय अनुदान एजेंसियाँ किस प्रकार से परीक्षण उपकरणों का इस्तेमाल करती रही है?



सन 1997 में विश्व बैंक, यूनिसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन व अन्य अन्तरराष्ट्रीय अनुदान एजेंसियों ने एक संयुक्त निर्णय लिया कि वे हैण्डपम्प तथा ट्यूबवेल के पानी की जाँच के लिये कलरीमीट्रिक फील्ड उपकरणों का इस्तमाल करेंगे। ये जाँच उपकरण, जो विभिन्न संस्थाओं द्वारा विकसित किए गए हैं, मरक्यूरिक ब्रोमाइड स्टेन पद्धति पर आधारित हैं। गुड़जाइट पद्धति भी कहलाने वाली यह पद्धति अजैविक संखिया को आरसाइन गैस में बदलती है, जो फिर एक परीक्षण पट्टी को सफेद से पीला या भूरा करती है (जो गैस की सघनता पर निर्भर करता है)। इस परीक्षण पट्टी (या टेस्ट स्ट्रिप) के रंग की किट के साथ प्रदान किया गये एक रंग बिरंगे पैमान से तुलना की जाती है, जिससे उस नमूने में संखिया की मात्रा का पता लगता है।

आज तक इस उपकरण द्वारा 10 लाख से अधिक कुओं की जाँच की जा चुकी है। जिन कुओं में पेयजल असुरक्षित पाया गया, यानि कि जिनमें संखिया की मात्रा 50 पीपीबी से अधिक थी, उन्हें लाल रंग से पोत दिया गया और इस स्तर से नीचे वाले कुओं को हरे रंग से ताकि पता चल सके कि उनका पानी पीने के लिये सुरक्षित है। कुओं की जाँच में करोड़ों डॉलर खर्च हो चुके हैं और भविष्य में भी करोड़ों लगने वाले हैं।

2. ये किट या उपकरण कितने कारगर सिद्ध हुए हैं?


कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरणीय विभाग के अध्यक्ष दीपांकर चक्रवर्ती के अनुसार कुओं की जाँच का यह सारा पैसा तो पानी में बह गया है। और, लोगों की स्थिति बद से बदतर हो गई है। चक्रवर्ती के हाल ही में किए गए अध्ययन ने कार्यस्थल पर प्रयुक्त किये गये इन उपकरणों की विश्वसनीयता पर कुछ सवालिया निशान उठाए हैं। तथ्यों की सत्यता का पता लगाने के लिये कोलकाता के केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, ढाका सामुदायिक अस्पताल तथा पेयजल आपूर्ति व स्वच्छता मंच नामक एक ढाका स्थित स्वयंसेवी संगठन के प्रतिनिधियों ने एक संयुक्त सर्वेक्षण किया।

 

कई प्रकार के परीक्षण उपकरण मौजूद हैं…

मगर वे कितने विश्वसनीय हैं?

निर्माता

किट की कीमत

जाँच का दायरा (पीपीबी)

मर्क, अमेरिका

रु 30,000; 100 परीक्षण

0-500

हाक, जर्मनी

रु 7,678; 100 परीक्षण

0-500

नेशनल केमिकल लैबोरेटरी, पुणे

रु 4,800; 100 परीक्षण

5-100

डवलपमेंट आल्टर्नेटिव्स, नई दिल्ली

रु 2,500; 50 परीक्षण

10-400

नेशनल एनवायरन्मेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागपुर

रु 3,000; 100 परीक्षण

10-100

ऑल इण्डिया इंसटीट्यूट ऑफ हाईजीन एण्ड पब्लिक हेल्थ, कोलकाता

रु 2,500; 100 परीक्षण

10-50

 

यह सर्वेक्षण या जाँच बांग्लादेश के दो जिलों के दायरे में केन्द्रित थी, जहाँ ऐसे कई हैण्डपम्पों या नलकूपों का पता चला जिन पर गलत निशान लगाये गए थे - यानी कि ‘लाल की जगह हरा’, इत्यादि। फिर इस जाँच-समिति ने तय किया कि कुओं की जाँच के किट के परिणाम प्रयोगशाला की तकनीकों की तुलना में कितने सही हैं इसकी परख की जाए। प्रयोगशाला में जाँच हेतु अपनाई तकनीकों में फ्लो इंजेक्शन हाइड्राइड जनरेशन या एटॉमिक एडसॉर्प्शन स्पेक्ट्रोमीट्री जैसी आधुनिक तकनीकें प्रयुक्त होती हैं। चूँकि यह एक यांत्रिकी पद्धति है, अतः इसके द्वारा जाँच या परीक्षण के परिणामों में गलती होने की सम्भावना बहुत कम है।

एक अध्ययन में पाया गया है परीक्षण उपकरण द्वारा गलत लेबल लगाने के उदाहरणइन दोनों पद्धतियों द्वारा बांग्लादेश के पहले से लाल या हरे निशान लगे कुओं के पानी के 2,866 नमूनों की जाँच की गई। पाया गया कि हरे निशान लगे कुओं में से 7.5 प्रतिशत लाल या असुरक्षित निकले। उसी प्रकार, 1,723 लाल निशान वाले कुओं में से 862 कुएँ सुरक्षित निकले। कुल मिलाकर कुओं के परीक्षण-किट ने 33.4 प्रतिशत कुओं पर गलत निशान लगाने वाले परिणाम दिए। दूसरे शब्दों में, लोग सुरक्षित पेयजल समझकर असुरक्षित कुएँ का पानी पी रहे थे। और पानी के अकाल के संकटपूर्ण समय में बेचारे लोग असुरक्षित निशान लगाये गए कुओं का सुरक्षित पेयजल पीने से वंचित रह गए। इससे जल संकट और भी बढ़ गया।

“इस जाँच-पद्धति के वैज्ञानिक सत्यापन के बिना ही जाँच-उपकरण या ‘किट’ को प्रयोग में लाया जाने लगा,” ऐसा शोध-दल के प्रमुख चक्रवती का मत था। “एक नाजुक मात्रात्मक माप को जानने के लिये एक गुणात्मक तकनीक का प्रयोग किया गया”, चक्रवर्ती ने इंगित किया।

 

कारगर मगर महँगी : जाँच की एक तकनीकी

संखिया की मात्रा की सही जाँच के लिये जल का एक नमूना प्रयोगशाला में ले जाकर उसे ‘एटॉमिक एडसॉर्पसन स्पेक्ट्रोमेट्री’ या एटॉमिक फ्लोरेसेन्स स्पेक्ट्रोस्कोपी हाइड्राइड जनरेटर से जोड़कर विश्लेषण करना सबसे विश्वसनीय उपाय है। हाइड्राइड जनरेटर घुलनशील संखिया को आर्साइन गैस में परिवर्तित कर देता है। आर्साइन गैस की मात्रा का पता लगाने के लिये आर्साइन को एक सैल में गर्म करते हैं और उससे विशिष्ट ऊर्जा की वेवलेन्थ दिखाई देती है, जिनसे उत्सर्जित प्रकाश के उत्सर्जन या अधिशोषण की मात्रा नापकर आर्साइन की सही मात्रा का पता चलता है। सैल में आर्साइन को तब तक गर्म करते हैं जब तक उसका उपघटन नहीं हो जाता। उपरोक्त दोनों उपकरण (एएएस और एएफएस) काफी महँगी मशीनें हैं जिनकी कीमत 10,000 से 20,000 डॉलर है। और ये मशीनें जल में संखिया की मात्रा 100 कण प्रति दस खरब जल कण जितने छोटे स्तर पर भी जाँच सकती हैं। ये मशीनें हर घंटे में 20 नमूने जाँच सकती हैं और दिनभर में करीब 200 नमूनों का परीक्षण कर सकती हैं। यदि एक ऐसी मशीन से एक करोड़ कुओं का पानी जाँचना हो तो उसमें 10,000 हफ्ते - यानी कि 192 साल लगेंगे। दूसरे शब्दों में, 192 मशीनें सालभर में एक करोड़ नमूने जाँच सकती हैं। मतलब यह कि ये मशीनें बेहद महँगी हैं।

 

जल की सुरक्षा-सम्बन्धी आधी अधूरी जानकारी का असर कुआँ बदलने या नया जल-स्रोत अपनाने जैसे अभिनव कार्यक्रमों पर भी पड़ता है। न्यूयॉर्क की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी, ढाका विश्वविद्यालय तथा बांग्लादेश के नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड प्रिवेन्टिव मेडिसिन ने संयुक्त रूप से सुझाव दिया है कि एक सुरक्षित नये कुएँ का पानी पीना एक समस्या का एक सरल व कारगर समाधान है। उनके कार्य ने दर्शाया कि सुरक्षित नया कुआँ चुनने के कारण बांग्लादेश के अरईहजर जिले की करीब-करीब पूरी आबादी को सुरक्षित पेयजल मिलने लगा, चूँकि 88 फीसदी आबादी एक सुरक्षित जलस्रोत के 100 मीटर के दायरे में रहती थी और 95 फीसदी आबादी 200 मीटर के दायरे में।

“हम सम्बन्ध अधिकारियों को पिछले पाँच साल से कुओं पर गलत निशान लगाने की शिकायत कर रहे हैं, परन्तु वे हमारी गुहार पर कान ही नहीं देते,” ऐसी ढाका समुदाय अस्पताल के समन्वयक महमूदनगर रहमान की शिकायत है। उनका कहना है कि यह लापरवाही ही संखिया की विषाक्तता से पीड़ित लोगों की बढ़ती संख्या के लिये जिम्मेदार है। चक्रवर्ती के अनुसार, विडम्बना यह है कि कुएँ पर निशान लगाने की इस बेतुकी कवायद के लिये खर्च की गई रकम बांग्लादेश सरकार को एक कर्ज के रूप में मिली थी, जिसे वापस करना होगा। अमेरिका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के जोसेफ मेलमैन स्कूल के विशेषज्ञ टॉम के हेई का मत है कि इस तरह की दोषपूर्ण पद्धति या उपाय को अपनाने से विश्व स्वास्थ्य संगठन व यूनीसेफ की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाता है।

दु:खद सत्य तो यह है कि ये दोषपूर्ण ‘किट’ आज भी बांग्लादेश व पश्चिम बंगाल में पेयजल की जाँच हेतु प्रयुक्त हो रहे हैं। वास्तव में, यूनिसेफ के कुछ अधिकारी भी इस तथ्य से सहमत हैं कि इन ‘फील्ड किट्स’ या जाँच उपकरणों की भी अपनी सीमाएँ हैं। पश्चिम बंगाल में यूनिसेफ के परियोजना अधिकारी चन्दन सेनगुप्त का दावा है कि, “यूनीसेफ व राज्य सरकार ने अब प्रयोगशाल में पेयजल का परीक्षण करने का निर्णय लिया है, क्योंकि ये ‘फील्ड किट्स’ जल में उपस्थित संखिया की मात्रा ठीक से नहीं बतला पा रहे हैं।” यह एक देखने लायक बात है कि सेनगुप्त के विचार इस मामले में यूनीसेफ के दृष्टिकोण से एकदम विपरीत है।

3. मगर इन फील्ड किटों के प्रस्तावक इन्हें सम्पूर्ण रूप से विफल नहीं मानते।


संखिया के फैलते जहर की समस्या को देखते हुए, बांग्लादेश के अधिकारी तथा इस कार्यक्रम को लागू करने वाले स्थानीय प्रतिनिधि भी फील्ड किटों की सफलता का बखान कर रहे हैं। यूनीसेफ बांग्लादेश के जल, पर्यावरण व स्वच्छता विभाग के प्रमुख कॉलिन डेविस का दावा है कि, “ये किट 90 प्रतिशत से भी अधिक सही हैं, क्योंकि इनके कुछ परिणाम लगातार प्रयोगशालाओं में सत्यापित होते रहते हैं।”

इंग्लैण्ड के आर्काडिस गेराहटी वे मिलर इंटरनेशनल इंक के प्रमुख जल-भूवैज्ञानिक पीटर रैवन्सक्रॉफट का कहना है कि एक आदर्श जाँच-उपकरण (या जाँच-पद्धति) के न उपलब्ध होने से जाँच को टालना कोई स्वीकृत विकल्प नहीं माना जा सकता। उनकी दलील है कि ये किट उन इलाकों की पहचान करते हैं, जिनमें सार्वजनिक स्वास्थ्य अंतक्षेप की आवश्यकता है। संखिया के स्तर का 49 से 51 पीपीबी बढ़ जाने से पेयजल सुरक्षित से असुरक्षित नहीं हो जाता और कोई भी उपाय जो पानी में संखिया की उच्च सघनता को कम करता है, वह संखिया के मानव-स्वास्थ्य पर पड़ने वाले कुप्रभाव को कम करता है, ऐसा रैवन्सक्रॉफ्ट का दावा है। “ये किट बीमारी के लक्षणों को संखिया के प्रभावन से जोड़ने में मदद करते हैं। ये परीक्षण चूँकि केवल प्रभावन की पुष्टि करते हैं, इसीलिये उनका एकदम सही होना कोई जरूरी नहीं है,” ऐसा अमेरिका में बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया के सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग के जानपदिक-रोगविज्ञान के प्रोफेसर एलन एच स्मिथ का मत है।

 

और अब, आर्सेनेटर!

क्या विश्व का एकमात्र डिजिटल संखिया परीक्षण उपकरण विकासशील देशों हेतु कारगर सिद्ध होगा?


इंग्लैण्ड की एक कम्पनी - वागटैक - ने हाल ही में विश्व का पहला ‘पोर्टेबल’ (सुवाह्य) संखिया परीक्षण उपकरण भारत में उतारा है। इस उपकरण का नाम है आर्सेनेटर, जोकि एक डिजिटल फोटोमीटर है जो जल में संखिया की मात्रा का 2 से 100 माइक्रोग्राम प्रतिलीटर (पीपीबी) के दायरे में पता लगाता है। इससे संखिया की सघनता का पता लगाना बेहद हो जाता है। पानी में उपस्थित संखिया को रासायनिक द्रव्य आर्सीन गैस में बदल देते हैं, जो एक फिल्टर पट्टी में लगे मरक्यूरिक ब्रोमाइड से प्रतिक्रिया करके इस सफेद पट्टी को पीला या भूरा कर देती है, जिसका गहरापन संखिया की सघनता पर निर्भर करती है। इस फिल्टर-पट्टी को फिर आर्सेनेटर में घुसाया जाता है, जो संखिया का एकदम सही स्तर आँकता है। इस सम्पूर्ण परीक्षण में मात्र 20 मिनट लगते हैं।


वागटेक कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर नाइल डुरहम के अनुसार, इस उपकरण के कई फायदे हैं, जैसे कि तुरन्त परिणाम बताना। नाइल का दावा है कि, “यह उपकरण लाखों लोगों की जान बचाने में मददगार साबित होगा।” यह कम्पनी इस उत्पाद को निजी क्षेत्र के सहयोग से बेचना चाहती है। एक आर्सेनेटर किट की कीमत है 1,184 अमेरिकी डॉलर।


उत्पाद की ऊँची कीमत को देखते हुए, भारतीय विशेषज्ञों को ऐसा नहीं लगता कि यह उत्पाद उतना कारगर सिद्ध होगा जितना कि कम्पनी का दावा है। “संखिया-प्रभावित लोगों के गढ़ - बांग्लादेश व पश्चिम बंगाल - दोनों इलाकों में वास करने वाले अधिकांश लोग गरीब हैं। यहाँ तक कि इन क्षेत्रों में कार्यरत स्वयंसेवी संगठन भी आर्सेनेटर जैसा महँगा उपकरण नहीं खरीद सकते,” ऐसा कहना है नई दिल्ली की इंटरनेशनल डवलपमेंट एन्टरप्राइजेस के जे एन राय का। उनके अनुसार, 700 डॉलर की कम कीमत वाला ‘मर्क किट’ एक अधिक कारगर विकल्प सिद्ध होगा।


अमेरिका-स्थित मर्क कम्पनी ने इस किट को मार्केट में उतारा है, जो अब तक बांग्लादेश के करीब 10 लाख कुओं के पानी की जाँच में प्रयुक्त हो चुका है। आर्सेनेटर पद्धति की ही तरह, यह तकनीक भी ‘मरक्यूरिक ब्रोमाइड स्टेन’ सिद्धांत पर आधारित है। परन्तु इसमें संखिया के स्तर की जाँच अपने हाथों से की जाती है, ना कि किसी मशीन द्वारा। इस विधि में फिल्टर-पट्टी के रंग की तुलना किट के साथ दिये गये विभिन्न रंगों वाले चार्ट के रंगों से की जाती है। पहली पीढ़ी वाले मर्क किट की न्यूनतम जाँच-सीमा 100 पीपीबी थी। परन्तु, सन 2000 की शुरुआत में इसके सुधरे स्वरूप वाले नये मॉडल की न्यूनतम जाँच-सीमा 10 पीपीबी है। इस सुधार के बावजूद, कई विशेषज्ञ इस उपकरण की जाँच के इतने बड़े दायरे (10 से 100 पीपीबी) से नाखुश हैं। “इस फिल्टर-पट्टी के रंग का विभिन्न लोग भिन्न-भिन्न अर्थ निकाल सकते हैं, खासकर जब इसका प्रयोग करने वाले लोग अनुभवहीन हों तो। इसलिये इसके परिणामों में भारी गलतियाँ देखी गई हैं,” ऐसा इन विशेषज्ञों का दावा है।


आर्सेनेटर के परिणामों में भी गलतियों की दर 5-10 प्रतिशत पाई गई है। “संखिया की एकदम सही मात्रा जाँचना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह लाखों करोड़ों की जिंदगी का सवाल है। आज भी अनेकों लोग संखिया से प्रदूषित जल ग्रहण कर रहे हैं क्योंकि इन्हीं अधकचरा किटों द्वारा गलत जाँच के कारण इन लोगों के ट्यूबवेल सुरक्षित घोषित किये गये थे। यदि इन्हीं दोषपूर्ण उपकरणों का अंधाधुंध प्रयोग होता रहा तो संखिया संकट भयानक रूप धारण कर लेगा,” ऐसा नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला के भारतीय संदर्भ स्रोत विभाग के प्रमुख ए के अग्रवाल का मत है।


दिल्ली आईआईटी के सहायक प्रोफेसर, भुवनेश गुप्ता के अनुसार ऐसे उत्पादों का बड़ी ईमानदारी से विश्लेषण करना बेहद जरूरी है। उनका सुझाव है कि इन किट्स के स्थान पर प्रयोगशाला विश्लेषण हेतु सम्पूर्ण भारत के कुओं के नमूने एकत्रित करने की राष्ट्रव्यापी व्यवस्था कायम करनी होगी। “यह व्यवस्था सस्ती होने के अलावा सही परिणाम भी दिखलाएगी,” ऐसा भुनवेश का मानना है

 

इन फील्ड किट के चाहे जितने फायदे गिनाए जाएँ, इनके साथ कई समस्याएँ जुड़ी हुई हैं। ये सारे उपकरण रंगों के चार्ट पर निर्भर हैं, इसका मतलब यह हुआ कि सम्पूर्ण परिणाम क्षेत्र में जाँच करने वाले कार्यकर्ताओं के अवलोकन पर निर्भर करता है। चूँकि इस कार्य के लिये आमतौर पर अप्रशिक्षित लोगों को भर्ती किया जाता है, अतः उनके द्वारा निकाले गए परिणामों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। क्षेत्र में जाकर परीक्षण करने के लिये मरक्यूरिक ब्रोमाइड स्टेन पद्धति को प्रयोग में लाया जाता है। इस विधि के प्रयोग से जहरीली आर्साइन गैस निकलती है जो क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। फील्ड किट भी कई विषाक्त अवशेष छोड़ जाते हैं, जिनका पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

4. क्या संखिया की मात्रा जाँचने के लिये प्रयोगशाला-पद्धति एक कारगर विकल्प है?


दो बाल्टी उपचार इकाईअनेकों शोधकर्ता इस पद्धति का समर्थन करते हैं। यदि नमूने का आकार बड़ा हो ता इस विधि से कम खर्च में ही एकदम सही परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। साथ ही, एक नमूना जाँचने में मात्र 30 सेकेण्ड का समय लगता है। परन्तु बांग्लादेश के अधिकारी इस बात से सहमत नहीं हैं। “हमारे देश में अनेकों कुएँ हैं और प्रत्येक नमूने की प्रयोगशाला में जाँच कराने में करीब 20 साल लग जाएँगे,” ऐसा जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के अधिवासी अभियंता एस एम एहतेशामुल हक का मानना है। “करीब 50 लाख नमूनों को सालाना तौर पर जाँच के लिये प्रयोगशालाओं में हस्तान्तरित करना, उनका समुचित विश्लेषण करना तथा परिणामों को कार्यक्रम संचालक को रिपोर्ट करना - यह सारी प्रक्रिया अत्यंत पेचीदा है,” ऐसा बांग्लादेश के यूनीसेफ के संखिया परियोजना अधिकारी जैन विलेम रोजेनबूम अभिव्यक्त करते हैं। रौवन्सक्रॉफट के अनुसार, वैज्ञानिकों को क्षेत्रीय परीक्षण व प्रयोगशाला पद्धतियों, दोनों का सही सम्मिश्रण चुनना चाहिए, ना कि इसमें से कोई एक पद्धति, ताकि संखिया की उपस्थिति की सही जाँच हो सके।

(ख) अल्पीकरण तकनीकें


दो-बाल्टी उपचार इकाई
उपलब्धता:
पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश
कीमत: करीब रुपए 300

इस दो बाल्टी वाली उपचार इकाई का विकास एक पश्चिम बंगाल जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी-डेनिडा परियोजना के अंतर्गत हुआ था। संखिया निर्मूलन की यह प्रौद्योगिकी एक अत्यंत लोकप्रिय घर-परिवार में प्रचलित तकनीकी है। इस इकाई में दो 20 लीटर की प्लास्टिक की बाल्टियाँ एक के ऊपर एक रखी जाती है और एक प्लास्टिक की नली से जुड़ी होती हैं। यह संखिया को ‘को-प्रेसिपिटेशन’ की पद्धति से हटाती हैं। इस पद्धति में ऐलम (फिटकरी), जो एक ‘जामन’ का कार्य करता है तथा पोटैशियम परमैंग्नेट (जो एक ऑक्सीकारक है) की संयुक्त कार्यवाही से प्रदूषित जल में से संखिया को अलग किया जाता है और संखिया के कुच्छे बन जाते हैं जो निचली बाल्टी में बिछी रेत की परत से छनकर बाहर निकल जाते हैं।

इस उपचार विधि पर काफी छींटाकशी हुई है। जाँच करने पर ज्ञात हुआ है कि इस तरह की 75 प्रतिशत इकाइयाँ (सघन या उच्च मात्रा में उपस्थित) संखिया के निर्मूलन में असफल सिद्ध हुई हैं। अन्य सर्वेक्षणों से पता चलता है कि प्रयोगकर्ताओं को पेयजल में रसायन डालना पसंद नहीं आता। और यदि गलत मात्रा में रसायन मिला दिया और उसे कम घोला तो बहुत कम संखिया ही छंट पाएगा। साथ ही, रसायनों के अत्यधिक प्रयोग से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का खतरा बना रहता है- खासकर इस बात का कि कहीं अधिक ऐलम या फिटकरी डालने से उपचारित जल में एल्युमिनियम की मात्रा खतरनाक ढंग से बढ़ न जाए।

इस उपचार-विधि की कारगरता एक विवाद का विषय हो सकता है, परन्तु इसका प्रयोग करने वाले कार्यक्रमों में परिणाम सुझाते हैं कि इन इकाइयों को विशाल पैमाने पर द्रुतगति से फैलाया जा सकता है।

स्टीवन्स इंस्टीट्यूट टेक्नोलॉजी फिल्टर


उपलब्धता: पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश
कीमत: करीब रुपए 350

इस तकनीक में दो बाल्टियाँ होती हैं: एक में रसायन (आयरन सल्फेट व कैल्शियम हाइड्रोक्साइड) घोला जाता है; दूसरी बाल्टी में संखिया के गुच्छों को अवसादन (सेडीमेन्टेशन) तथा छनन (फिल्ट्रेशन) प्रक्रियाओं द्वारा अलग करके बाहर फेंक दिया जाता है। दूसरी बाल्टी के अन्दर भी एक बाल्टी होती है जिसके कोने कटे होते हैं, ताकि अवसादन (या सेडीमेन्टेशन) में आसानी हो और रेत की छलनी (बिस्तर) भी अपनी जगह जमी रहे। संखिया के बड़े-बड़े गुच्छे बनाने के लिये बाल्टी में रखे रसायन-द्रव्यों को एक बड़े डंडे से अच्छी तरह घोला जाता है।

 

सामुदायिक स्तर पर संखिया-निर्मूलन


तकनीकों और तरीकों की एक झलक

पद्धति

लाभ

हानि

को-प्रेसीपिटेशन


इस पद्धति में, रसायन मिलाये जाते हैं ताकि कच्चे पानी में संखिया को अलग निकाल दिया जाए और नीचे बैठ जाने पर फेंक दिया जाए। निम्नलिखित रसायनों का प्रयोग इस प्रक्रिया में किया जा सकता है

1. ऐलम (फिटकरी)

2. लौह-लवण

3. प्राकृतिक रूप से प्राप्त लौह-तत्व

1. रसायनों की सहज उपलब्धता

2. कम पूँजी की लागत

3. अन्य प्रदूषकों के निर्मूलन में कारगर

1. जहरीली गाद के निष्कासन की समस्या

2. कार्यक्रम लागू करने के लिये प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता

3. जहरीले ट्रायवेलेन्ट संखिया का आधा-अधूरा निर्मूलन

एडसॉर्पशन (अधिशोषण)

इस पद्धति में, रसायनों का प्रयोग संखिया के अधिशोषण में किया जाता है, जिसमें संखिया ठोस सतह के बाहर जमा हो जाता है, जिसे हटाकर अलग कर लिया जाता है। इसमें निम्नलिखित रसायन प्रयुक्त होते हैं:


1. एक्टिवेटेड एल्युमिना

2. दानेदार फेरिक हाइड्रोक्साइड, लौह धातु, लौह खनिज

3. कृत्रिम संयुक्त रूप से सक्रिय सामग्री

1. निर्मूलन क्षमता अच्छी है

2. दूसरे प्रदूषक भी हटा सकती है

3. रसायन सहज रूप से उपलब्ध है

1. प्रशिक्षित विशेषज्ञों की रोकथाम

2. गाद-निष्कासन की समस्या

झिल्ली तकनीकी

इस पद्धति में, कच्चे पानी को एक झिल्ली से गुजारते हैं, जो संखिया को ध्यान देती है। यह दो तरीकों से हो सकता है


1. रिवर्स ऑस्मोसिस

2. इलेक्टोडायलिसिस

1. संखिया निर्मूलन की उच्च क्षमता

2. कम जगह घेरता है

1. आरम्भ में महँगी लागत

2. इसे जारी रखने और रख-रखाव की कीमत बहुत ज्यादा है

3. पानी को आक्सीकरण जैसी प्रक्रियाओं से पूर्व-उपचारित करना पड़ता है

4. प्रशिक्षित व्यवसायिकों की आवश्यकता

स्रोत: भूजल में संखिया का संदूषण व इसकी रोकथाम, सेंट्रल पॉल्यूशन कन्ट्रोल बोर्ड, 2002, दिल्ली, पृष्ठ 19

 

इस विधि द्वारा परीक्षण के लिये एकत्रित जल के नमूनों में से 90-95 फीसदी में से 50 पीपीबी या उससे कम की सघनता वाले संखिया का कारगर रूप से निर्मूलन किया जा सकता है। इसके लिये, रेत के बिस्तर या रेत-छलनी की सप्ताह में दो बार धुलाई करना जरूरी है, क्योंकि इसमें ढेर सारे संखिया के गुच्छे बार-बार आकर अटकते रहते हैं।

स्टीविन्स इंस्टिट्यूट टैक्नोलृजी फिल्टर

घरेलू फिल्टर


उपलब्धता: पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश
कीमत: करीब रुपए 250 से 300

कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरणीय अध्ययन विभाग ने एक घरेलू फिल्टर विकसित किया है। इस प्रणाली में है एक फिल्टर, गोलियाँ तथा दो मिट्टी या प्लास्टिक के जार। इस फिल्टर में फ्लाइ-ऐश, काठ-कोयला या चिकनी मिट्टी का जार होता है। इन गोलियों में लौह लवण, ऑक्सीकरण एजेन्ट व सक्रिय काठकोयला होता है। एक गोली 1,000 पीपीबी की अधिकतम सीमा वाले संखिया-युक्त प्रदूषित जल की 20 लीटर तक की मात्रा को संखिया-मुक्त करने की क्षमता रखती है।

इस फिल्टर की विधि अत्यंत सरल है: एक मिट्टी या प्लास्टिक के बर्तन में 20 लीटर जल भर दिया जाता है। उसके बाद उसमें एक काली गोली डाली जाती है। यह गोली या टिकिया तुरन्त ही पानी में घुल जाती है और उसे काला कर देती है। इस बर्तन को एक घण्टे के लिये उठाकर रख दिया जाता है। फिर, फिल्टर के ऊपर वाले जार या बर्तन में पानी उड़ेला जाता है। साफ पानी तुरन्त छनकर बूँद-बूँद करके निचले बर्तन (जार) में जमा हो जाता है। यदि छानने के बाद भी साफ पानी में कोयले के टुकड़े तैरते हुए मिलें तो इसका मतलब हुआ कि पानी कहीं से चू रहा है। छाना हुआ साफ पानी एक सुरक्षित पेयजल है।

टैबलेट युक्त प्लास्टिक स्ट्रिपइस विधि द्वारा प्रयोगशाला में जो संखिया हटाया वह 95 से 100 प्रतिशत था। और ये गोलियाँ या काली टिक्कियाँ 15 महीने तक चलती हैं। परन्तु प्रारम्भिक प्रयोग दर्शाते हैं कि क्षेत्रीय या कार्य-स्थल के स्तर पर संखिया-निर्मूलन की दर अक्सर कम देखी गई है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि गाँव वालों के पास इन टिकियों को सम्भाल कर रखने की भण्डारण व्यवस्था पर्याप्त नहीं होगी।

कलशी फिल्टर इकाई


उपलब्धता: पश्चिम बंगाल व बांग्लादेश
कीमत: रुपए 250-275

पल्शी फिल्टर यूनिटकलशी फिल्टर इकाई भी एक और घरेलू संखिया निर्मूलन इकाई है जिसमें ‘कलशी’ नामक तीन मिट्टी के मटके होते हैं। इस विधि में एक फ्रेम या खाँचे में तीन मटके एक के ऊपर एक रखे होते हैं। इस घरेलू फिल्टर की सबसे ऊपर वाली ‘कलशी’ (या कलश) में एक परत लोहे के छिलपट या छीलन की होती है (यानी कि ‘आयरन फिलिंग’) और एक परत मोटी रेत (या बजरी) की होती है। बीच वाले कलश में एक परत काठ-कोयले की होती है और दूसरी परत बारीक रेत की। सबसे निचली ‘कलशी’ में साफ पीने का पानी जमा होता है। संखिया के उन्मूलन की प्रतिक्रिया यहाँ स्पष्ट नहीं है, परन्तु इसका मूल सिद्धान्त यह है कि इस विधि में ‘आयरन फिलिंग’ की सतह पर आयरन ऑक्साइड द्वारा संखिया जमा हो जाता है और रेत में फँसकर रह जाता है। इस विधि में ऊपर से प्रदूषित जल डाला जाता है और नीचे से शुद्ध पेयजल प्राप्त होता है। इसमें किसी भी रसायन का इस्तेमाल नहीं होता है। इस इकाई की कुल कीमत 5 या 6 अमेरिकी डॉलर है जिसमें आधी कीमत तो स्टैण्ड की है जिसमें मटके फँसे होते हैं।

जाँच से पता चला है कि इस विधि में प्रारम्भ में तो संखिया निर्मूलन भली-भाँति होता है, परन्तु तीन-चार माह बाद तेजी से घट जाता है। दुर्भाग्यवश, ‘आयरन फिलिंग’ या लोहे के टुकड़ों की सफाई करना या ‘कलशी’ से बाहर निकालना आसान नहीं है, क्योंकि ये टुकड़े 10 दिन के प्रयोग के बाद जंग खा जाते हैं और आपस में गुत्थमगुत्था होकर एक ठोस लौंदे का रूप धारण कर लेते हैं। ‘कलशी’ को उसकी सामग्री सहित बदलने की लागत 1.10 अमेरिकी डॉलर है।

यूनिसेफ घरेलू फिल्टर


उपलब्धता: पश्चिम बंगाल व बांग्लादेश
कीमत: रुपए 300

पश्चिम बंगाल सरकार व यूनिसेफ ने भी मिलकर एक घरेलू फिल्टर का इजाद किया है। यह संखिया के अलावा लोहा और फ्लोराइड भी निकाल बाहर करता है। फिल्टर फैरो-सीमेंट का बना होता है, और बाहर से उस पर मोजैक की परत होती है।

इसकी विशेष केंडल लोहा निकालती है। इसके बाद पानी एक थैले से निकाला जाता है, जिसमें एलुमिना होता है। यह एलुमिना की संखिया और फ्लोराइड निकालती है। यह सारा उपकरण दो भागों में विभाजित है, जो एक रबड़ के पट्टे से बंधा होता है। ऊपरी चैम्बर के निचले सतह में एक वाल्व होता है जो पानी को नियंत्रित करता है।

यूनीसेफ का घरेलू पिल्टरयह फिल्टर आसानी से व्यवहार किया जा सकता है और इसके रख-रखाव की लागत भी कम है। एक दिन में यह 60 लीटर पानी का शोधन कर सकता है। लेकिन एलुमिना के थैले को हर 6 महीने में बदला जाना जरूरी है और संखिया-लैस कीचड़ को ध्यानपूर्वक अलग करना पड़ता है।

1. संखिया पर अंकुश लगाने का भारत का क्या अनुभव रहा है, खासकर पश्चिम बंगाल में?


पश्चिम बंगाल की वर्तमान स्थिति दर्शाती है कि संखिया पर अंकुश लगाने वाली तकनीकें तब तक बेमानी रहेंगी जब तक एक दीर्घकालीन आधार पर सरकार की पर्याप्त सहायता न मिले। यह राज्य भारत में संखिया पीड़ितों का गढ़ है। सन 1983 के पश्चात जब संखिया विषाक्तता का पहला मामला दर्ज किया गया था, सभी शोध संस्थान, स्वयंसेवी संगठन व सरकारी एजेंसियाँ इसके समाधान में जुट गईं।

 

कहाँ रहा अंकुश...

जादवपुर युनिवर्सिटी द्वारा मार्च-अप्रैल 2004 में उत्तरी 24-परगना के चार विभिन्न ब्लॉक - हसनाबाद, गायघाटा, बसीरहाट-1 और हाबरा-1 - में लगाए गए संखिया निर्मूलन संयंत्रों पर किए गए एक अध्ययन से पता लगता है कि कुल स्थापित 182 संयंत्रों में से 63 ठप हैं।


इनमें से शेष में 67 संयंत्रों से उत्पादित पानी गाँव वालों ने पूरी तरह अस्वीकार कर दिया क्योंकि इस लाल पीले रंग के बदबूदार पानी को वे पी नहीं सकते थे, या फिर पानी में रेत आ जाने से वह पीने लायक नहीं रहा।


बत्तीस संयंत्र जो जल उत्पादित कर रहे थे उन्हें गाँव वाले कभी-कभी पीने के लिये व्यवहार कर रहे थे क्योंकि उनमें भी ऊपर लिखी समस्याओं जैसी समस्याएँ थीं। हाँ, 20 संयंत्र ऐसे थे जो अच्छी तरह चल रहे थे और गाँव वाले उनका पानी पी रहे थे।


मई 2004 में इन्हीं 20 संयंत्रों पर एक अध्ययन किया गया जिसमें उनके भौतिक व रासायनिक आयाम शामिल थे। इनमें से चार तो अब काम ही नहीं करते बाकी बचे 16 संयंत्रों में से 14 कच्चे पानी के उपचार के बावजूद संखिया के स्तर को 10 पीपीबी की सुरक्षा सीमा से नीचे नहीं ला पाए।

 

राज्य सरकार के संखिया पर अंकुश लगाने के उपायों में जो जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग द्वारा लागू किए गए थे, प्रदूषित कुओं के जल की जाँच तथा जन स्वास्थ्य पर निगरानी रखने जैसी गतिविधियाँ शामिल हैं। परन्तु सरकार के अधिकांश प्रयास वैकल्पिक जलस्रोतों की खोज में लगे हैं- जैसे गहरे ट्यूबवेल तथा पाइपों द्वारा सतही पानी प्रदान करना। इसी के साथ सरकार फिल्टर या संखिया निर्मूलन संयंत्र भी लगा रही है।

सैद्धांतिक तौर पर, राहत प्रदान करने की दृष्टि से ये कदम काफी हैं। परन्तु विशेषज्ञों का कहना है कि इन्हें लागू करना बाधाओं से पटा पड़ा है। फिल्टरों, पानी के पाइपों या संयंत्रों का रख-रखाव यूँ तो गाँव वालों की जिम्मेदारी है, परन्तु उन्हें इस विषय पर कभी प्रशिक्षण ही नहीं दिया गया। अतः ऐसे अधिकांश समाधान अकारगर सिद्ध हुए हैं। “सरकारी अधिकारी हाई-टेक समाधानों की ओर दौड़ते हैं - जैसे संखिया निर्मूलन संयंत्र - क्योंकि इनमें पैसा खाने की बड़ी गुंजाइश है। यह अधिकारी सरल कारगर समाधानों में विश्वास ही नहीं रखते। जैसे कि घरेलू फिल्टरों का इस्तेमाल या अपने तालाबों को स्वच्छ रखने के महत्त्व के सम्बन्ध में स्थानीय समुदायों को जानकारी देने का कार्य। संखिया की यह समस्या भी सरकार की लापरवाही के कारण कई गुना बढ़ गई है। ग्रामवासी आज 20 साल के पहले की स्थिति से भी बदतर हालत में है,” ऐसा दीपांकर चक्रवर्ती का दावा है।

सरकारी सहारे के बिना अल्पीकरण तकनीकों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकतायही नहीं, अंकुश लगाने के उपाय समाज के मात्र 30-40 प्रतिशत तथाकथित प्रभावित लोगों को ही उपलब्ध कराए जा रहे हैं, ऐसा कोलकाता स्थित स्वयंसेवी संगठन ‘सेंटर फॉर स्टडी फॉर मैंन एंड एनवायरन्मेंट’ के अवैतनिक सचिव बी.सी. पोद्दार का मत है। उनके अनुसार इस समस्या का एकमात्र समाधान लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करना है। आम आदमी को प्रशिक्षित करना जरूरी है “सरकार को चाहिए कि वह अंकुश लगाने के इस अभियान की खामियों का सक्रियता से सामना करे। और यह तभी हो सकता है जब पीड़ित समुदायों के साथ नियमित तौर पर बातचीत जारी रखी जाए। इसके समाधान भी क्षेत्र-विशेष के आधार पर होने चाहिए। इसी के साथ सम्पूर्ण राज्य में समूचे प्रभावित इलाकों का एक विस्तृत नक्शा तैयार करना होगा।” ऐसा कोलकाता स्थित स्वयंसेवी संगठन लोककल्याण परिषद (जो संखिया के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है) के निदेशक प्रताप चक्रवर्ती का सुझाव है।

 

भूजल में संखिया के संदूषण पर एक ब्रीफिंग पेपर

अमृत बन गया विष

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)   

1.

आर्सेनिक का कहर

2.

बंगाल की महाविपत्ति

3.

आर्सेनिक: भयावह विस्तार

4.

बांग्लादेशः आर्सेनिक का प्रकोप

5.

सुरक्षित क्या है

6.

समस्या की जड़

7.

क्या कोई समाधान है

8.

सच्चाई को स्वीकारना होगा

9.

आर्सेनिक के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले सवाल और उनके जवाब - Frequently Asked Questions (FAQs) on Arsenic

 

पुस्तक परिचय : ‘अमृत बन गया विष’

 

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