खाली होती धरती की गागर

14 Aug 2009
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- ग्राउंड वॉटर लेवल में यह कमी हर 3 साल पर एक मीटर या हर साल एक फुट की हो रही है।
- हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली व एनसीआर इलाके में 65 क्यूबिक किलोमीटर से ज्यादा ग्राउंड वॉटर पिछले 6 साल में गायब हो गया।
उत्तर भारत के हरे-भरे खेतों और भीड़ भरे शहरों के नीचे की जमीन से पानी तेजी से गायब हो रहा है। अमेरिका की स्पेस एजंसी नासा ने अपने ग्रैविटी रिकवरी ऐंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (जीआरएसीई) के तहत यह खुलासा किया है। इसमें 2002 से 2008 के बीच उत्तर भारत के ग्राउंड वॉटर के मौजूदा हालात का विश्लेषण किया गया है। डालते हैं, इस रिपोर्ट के अहम बिंदुओं पर एक नजर...

- पिछले 10 साल में नॉर्थ इंडिया में ग्राउंड वॉटर के लेवल में औसतन सालाना 30 सेंटीमीटर की कमी आई है।
- ग्राउंड वॉटर लेवल में यह कमी हर 3 साल पर एक मीटर या हर साल एक फुट की हो रही है।
- हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली व एनसीआर इलाके में 65 क्यूबिक किलोमीटर से ज्यादा ग्राउंड वॉटर पिछले 6 साल में गायब हो गया।
- जमीन के नीचे मौजूद पानी के भंडार का इतनी तेजी से इस्तेमाल हो रहा है कि इस कमी को नेचरल तौर पर पूरा करना नामुमकिन है।
- इस पानी के खत्म होने से इस इलाके की लगभग 11.4 करोड़ आबादी को नुकसान उठाना पड़ेगा।
- हालात इसलिए भी चिंताजनक हैं क्योंकि इस दौरान इस इलाके में होने वाली बारिश सामान्य रही है।
- पानी में इस कमी के लिए सिंचाई जैसी इंसानी गतिविधियां ही मूलरूप से जिम्मेदार हैं।
- पृथ्वी की सतह के नीचे जमा होने वाला जल भंडार हजारों साल में बना है, इसलिए खाली होते ये जल भंडार कुछ महीनों या सालों में फिर से नहीं भर पाएंगे। इसके लिए हो सकता है हमें कई दशक तक इंतजार करना पडे़।

खत्म होता भू-जल


देश के कुछ हिस्सों में भूजल स्तर में लगातार आने वाली गिरावट चिंता का विषय है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने सैटलाइट के जरिए जो अध्ययन किया है, उसके मुताबिक उत्तर-पश्चिमी राज्यों में भूजल स्तर में प्रतिवर्ष चार सेंटीमीटर की कमी आ रही है। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में पिछले छह सालों में 109 क्यूबिक किलोमीटर भूजल कम हुआ है। यह सरकारी अनुमान से काफी ज्यादा है।

'नेचर' पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक इन राज्यों में खेती के लिए लगातार भूजल का दोहन हो रहा है और अगर यही हाल रहा तो निकट भविष्य में यहां भारी जल और खाद्यान्न संकट पैदा हो सकता है। यहां सिंचाई के लिए जितना पानी निकाला जा रहा है, उसकी भरपाई वर्षा के जल से नहीं हो पा रही है। सच तो यह है कि वर्षा में आ रही कमी ने ही किसानों को भूजल पर निर्भर बना दिया है। ये वही क्षेत्र हैं, जहां कभी हरित क्रांति संपन्न हुई। यहां ग्राउंड वॉटर के दोहन का सिलसिला साठ के दशक से ही आरंभ हो गया था, लेकिन हाल के सालों में उसमें काफी तेजी आई है। इस इलाके में भूजल के बूते भरपूर फसल हासिल की गई, पर इसके साथ ही एक संकट को भी न्योता दे दिया गया। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि चावल जैसी फसलों, जिनके लिए ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है, पर ज्यादा जोर देने से भी संकट पैदा हुआ है।

अगर उन इलाकों में ग्राउंड वॉटर मैनेजमेंट पर शुरू से ध्यान दिया गया होता तो यह नौबत ही नहीं आती। सचाई यह है कि देश में इसे कभी गंभीरता से लिया ही नहीं गया। यह मामला राज्य के अधीन आता है, पर अभी भी राज्यों ने इस संबंध में आवश्यक कानून नहीं बनाए हैं। अगर बनाए भी हैं तो उनका कड़ाई से पालन नहीं होता। इस संबंध में केंद्र ने जो पहल की उसका भी सकारात्मक नतीजा नहीं निकला, क्योंकि राज्यों ने अपेक्षित सहयोग नहीं किया।

गौरतलब है कि 1970 और 1992 में कें द की ओर से मॉडल ग्राउंड वॉटर (रेगुलेशन एंड कंट्रोल) बिल लाया गया, लेकिन इनका मकसद पूरा नहीं हो सका। सरकार ने सेंट्रल ग्राउंड वॉटर अथॉरिटी का गठन किया है जिसने भूजल को बचाने के लिए कई अहम सुझाव दिए हैं। लेकिन इन सुझावों का तभी कोई अर्थ है जबकि उन पर अमल भी किया जाए। भूजल के स्वामित्व और उसके इस्तेमाल की मात्रा या तौर-तरीके को लेकर मौजूद इन उलझनों को यथाशीघ्र दूर किया जाना चाहिए।

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