खेती के तरीकों ने धरती की छाती फाड़ सोख लिया पानी

गन्ने की फसल से बेंगलुरु ग्रामीण इलाके में भूजल गिरा तो शुरू हुई नाशक यूक्लिप्टस की खेती भूजल स्तर दोबारा पाने का एकमात्र रास्ता है कि सरकार किसानों को मुआवजा देकर खेती रोक दें… अतुल कुमार सिंह की विशेष रिपोर्ट...

एट्री का सुझाव है कि अगर भू-जल स्तर को पुन: प्राप्त करना है तो सरकार को ऐसी फसलों को प्रोत्साहित करना चाहिए, जिसमें किसानों को कम सिंचाई से अधिक और लाभकारी उपज प्राप्त हो सके। किसानों को सरकार की ओर से अतिरिक्त सब्सिडी और मुआवजा देने की भी व्यवस्था करनी चाहिए ताकि उनकी जीविका का पूरा प्रबंध हो जाए। लेकिन सरकार की ओर से इस तरह की कोई पहल अब तक नहीं हुई है। फिलहाल बेंगलुरु ग्रामीण जिले में कई जगहों पर भू-जल का स्तर काफी नीचे चला गया है। अब भी अगर भू-जल संरक्षण पर वैज्ञानिक तरीके से और गंभीरतापूर्वक नहीं संभला गया तो पूरे इलाके को बंजर होने से नहीं बचाया जा सकेगा।

मार्च की पहली तारीख... हम चार लोग बेंगलुरु ग्रामीण जिले के दोड्डबलापुर तालुका के ए. काशीपुरा गांव में थे। यह गांव बेंगलुरु शहर से करीब 50 किलोमीटर उत्तर में है और शहर से ऊंचाई पर अवस्थित है। साथ में निर्देशन के लिए अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड एनवायरमेँट (एतरी) की वीणा श्रीनिवासन और उनके सहयोगी थे।

यहां हम सुबह-सुबह पहुंचे थे इलाके में जलस्तर और खेती की स्थिति के बारे में जानने-समझने। जो मंजर देखा, वह कल्पनातीत। भयावह। बेंगलुरु की प्रमुख नदी अर्कावती की एक सहायक नदी इधर से गुजरती है। लेकिन यह नामभर की नदी रह गई है। उसमें एक बूंद पानी नहीं। सूखी नदी के पाट में वीणा के साथ कुछ दूर अंदर तक गया। आगे चैक डैम जरूर दिखा। वीणा बताती हैं कि ऐसे डैम हर एक-दो किलोमीटर पर बने हैं। लेकिन क्यों? यह मनरेगा के पैसे का सदुपयोग? है। बिना जाने-समझे केवल रोजगार सृजन के नाम पर चैक डैम बना दिया गया है। लेकिन पिछले बीसेक साल से यहां कभी पानी आया ही नहीं। थोड़ा-बहुत पानी बरसात में आता भी तो प्यासी धरती तुरंत पी जाती है। गांव और आस-पास के खेतों में कई बोरवेल लगे हैं, लेकिन सब सूखे के सूखे।

कहानी और भी भयावह है। वीणा बताती हैं कि 20-30 साल पहले यहां इस सहायक नदी से सिंचाई होती थी। बाद में गन्ना की खेती के कारण पानी का स्तर हर साल नीचे होता गया। गन्ना ऐसी फसल है जिसमें बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत पड़ती है। गन्ने की खेती से इलाके का जलस्तर नीचे होता गया और खेती करना मुश्किल हो गया।

यहां कई गांवों के खेतों में एक साथ तीन-चार बोरवेल दिखाई देते हैं। लेकिन सब बेकार सूखे हुए हैं। इसका कारण है कि विभिन्न समयांतरालों में बोरवेल गहरे होते गए। 70 के दशक तक 100- 150 फीट नीचे ही पानी मिल जाता था। लेकिन 90 के दशक और उसके बाद यह 1000 फीट नीचे तक चला गया। छोटे किसानों ने तो 500 फीट नीचे पानी जाते ही खेती छोड़ दी। लेकिन कुछ संपन्न किसानों ने 1000 फीट तक पीछा किया। लेकिन कुछ सालों के बाद वह भी बेकार साबित हुआ।

अब इलाके की स्थिति यह है कि बेंगलुरु शहर नजदीक होने से गांव के लोग शहर जाकर मजदूरी करने को विवश हैं। हालांकि वहां प्रतिदिन की मजदूरी 400 से 500 रुपये होने और काम आसानी से मिल जाने के कारण लोगों में कोई असंतोष का भाव नहीं पनपा है। लेकिन दूरदराज के इलाके में मजदूरी का विकल्प नहीं है। इस गांव और आस-पास में गन्ने की खेती पूरी तरह खत्म हो चुकी है। पानी टैंकर से लाकर या ड्रीप एरिगेशन के माध्यम से कम पानी से कुछ सब्जियोें की खेती होती है, पर वह नाममात्र की ही है।

ऐसे में पूरे इलाके के किसानों ने खेती का जो तरीका अपनाया है, वह और खतरनाक है। लोगों ने यूक्लिप्टस लगाना शुरू कर दिया है। यह यूक्लिप्टस पानी सोखने के मामले में और भी बदनाम है। यह सर्वविदित है कि एक यूक्लिप्टस का पेड़ अपने आस-पास के करीब 40 मीटर तक का पानी पी जाता है। इस इलाके में 800 मिलीमीटर तक सालाना बारिश होती है लेकिन यूक्लिप्टस के सामने सब बेकार। लेकिन किसानों के पास और चारा नहीं है। वे इस पौधे को लगाते हैं ताकि चार साल तक निश्चिंत हो जाएं। चार साल बाद एक पेड़ काटकर पेपर मिल या अन्य उद्योगों को बेच दिया जाता है और खेत पर यूक्लिप्टस के नए पेड़ आ जाते हैं। इस तरह जल संरक्षण की बजाए जल का और नाश ही हो रहा है। उल्टे सरकारी योजना में जो कुछ नलकूप लगाए गए हैं, उनके पानी का भी शोषण हो रहा है। सरकारी नलकूपों से कुछ समय के लिए पानी काम भर के लिए दिया जाता है, जिसे किसान अवैध तरीके से कृत्रिम तालाब बनाकर जमा कर लेते हैं और उससे सब्जियां उगाते हैं।

एट्री का सुझाव है कि अगर भू-जल स्तर को पुन: प्राप्त करना है तो सरकार को ऐसी फसलों को प्रोत्साहित करना चाहिए, जिसमें किसानों को कम सिंचाई से अधिक और लाभकारी उपज प्राप्त हो सके। किसानों को सरकार की ओर से अतिरिक्त सब्सिडी और मुआवजा देने की भी व्यवस्था करनी चाहिए ताकि उनकी जीविका का पूरा प्रबंध हो जाए। लेकिन सरकार की ओर से इस तरह की कोई पहल अब तक नहीं हुई है। फिलहाल बेंगलुरु ग्रामीण जिले में कई जगहों पर भू-जल का स्तर काफी नीचे चला गया है। अब भी अगर भू-जल संरक्षण पर वैज्ञानिक तरीके से और गंभीरतापूर्वक नहीं संभला गया तो पूरे इलाके को बंजर होने से नहीं बचाया जा सकेगा।

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