खनन और पानी

खदानों के मलबे से झरनों और नदियों का पानी दूषित होता है। बारिश के पानी के साथ लोहे के कण और दूसरे जहरीले तत्व पास के जलाशयों में पहुंचते हैं। पानी का गुण बिगड़ता है और वह उपयोग के लायक नहीं रह जाता। खान के पास ही जब खनिजों के शोधन के कारखाने लग जाते हैं तब तो जल प्रदूषण की समस्या और भी गंभीर बन जाती है। अनुपचारित कीचड़ और कूड़ा-करकट सब सीधे पास के जलाशयों में या झरनों में गिरा दिया जाता है। अक्सर आसपास के लोगों के लिए पाने का पानी का वे ही एकमात्र स्रोत होते हैं। यह सारा मलबा जल स्रोतों को उथला भी बना देता है और भारी वर्षा वाले इलाकों में इससे बाढ़ भयंकर रूप धारण कर लेती है।

राष्ट्रीय खनिज विकास निगम बस्तर के बेलाडीला में कच्चे लोहे की खदाने चला रहा है। उनसे रोजाना 15,000 टन का उत्पादन होता है। इसका ज्यादातर हिस्सा जापान को जाता है। खुदाई के काम में हर एक टन के उत्पादन के पीछे एक टन पानी खर्च होता है। यह पानी पास के किरींदल नाले पर बांध बांधकर मुहैया किया जाता है। डिपाजिट नंबर 14 के लोहा शोधन संयंत्र से जो कचरा निकलता है, उसमें 18-20 प्रतिशत लोहे का अंश होता है। यह सब उसी नाले में बहा दिया जाता है। इससे नाले का सारा पानी गाढ़ा लाल हो जाता है। नाले के निचले हिस्से में संयंत्र का गंदा पानी भी आ मिलता है। इससे भी पानी लाल होता है। इसी तरह शंखिनी नदी के प्रदूषण का असर आसपास के 51 गांवों पर पड़ रहा है, जिनकी कुल आबादी लगभग 40,000 से ज्यादा है। ज्यादातर लोग वनवासी हैं। उन्हें आज पीने, नहाने-धोने के लिए साफ पानी नहीं मिलता है। जानवरों को भी परेशानी हो रही है। वहां के लोग कहते हैं, “इस परियोजना से हमें अगर कुछ मिला हो तो यह लाल पानी है” आदिवासियों ने शंखिनी नदी का नया नाम रख दिया है ‘दुखनी’।

राष्ट्रीय खनिज विकास निगम ने डिपॉजिट नं. 14 के संयंत्र से निकलने वाले मलबे के लिए बांध बनवाने का प्रस्ताव रखकर अपने पापों को और भी बढ़ा लिया है। टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने लेख में पत्रकार आयशा कागल ने लिखा है कि “समस्या खड़ी होने के 14 साल बाद अब सरकार और निगम एक दूसरे पर दोष मढ़ रहे हैं।” इस बीच गांव वालों का धीरज टूट चुका है, अधिकारियों पर उनका भरोसा नहीं रहा इसलिए वे गंदे पानी को रोकने वाले बांध को अपने खेतों में बनाने देने को राजी नहीं हो रहे, वह भी इतने कम मुआवजे पर।

भूमिगत खदानों में नीचे से पानी खाली करने का काम भी लगातार चलता रहता है। इसका भी असर जल संसाधनों पर पड़ता है। खान के भीतर सुरंगों को सूखा रखने के लिए इन खानों से सालाना लाखों लाख लिटर पानी पंपों से खाली किया जाता है और वह सारा पानी ऊपर लाकर आसपास छोड़ा जाता है। इस कारण बाढ़ आती है, गाद भरती है, पानी का जमाव होता है और प्रदूषण बढ़ता है। पानी ऊपर खींचने से आसपास के क्षेत्रों का जल स्तर भी नीचा हो जाता है फिर भूमिगत पानी की कमी बढ़ती जाती है और ऐसे क्षेत्रों में रही-सही प्राकृतिक हरियाली भी कायम नहीं रह पाती। शहडोल जिले के बीरसिंहपुर की भूमिगत कोयला खान से प्रति मिनट लगभग 3,000 लीटर पानी पंप करके गंजरा नाले में गिराया जाता है जो हिल्ला नदी में जा मिलता है। यही कारण है कि आसपास पानी का स्तर बहुत नीचा हो गया है और दूर-दूर तक हरियाली घट गई है।

नेयवेली लिग्नाइट खान के पास के गांव वाले बहुत परेशान हैं। उन्हें खान का लाभ तो नहीं, बस नुकसान ही नुकसान मिला है। खान के कारण आसपास के कुओं में पानी का स्तर दिन-ब-दिन नीचे आ रहा है। धान और मूंगफली दोनों की फसलें हाथों से जा रही हैं।

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