खनन

खदानों का कोई भी इलाका देख लीजिए, यहां से वहां तक एक ही रंग दिखाई देता है। कोयले की खान हो तो सब जगह काला की काला दिखेगा, कच्चे लोहे की बस्तियां लाल ही लाल नजर आएंगी, गेरू और रामरज की खान हो तो सब तरफ एक सफेद चादर बिछी मिलेगी। इन क्षेत्रों में हर जगह उन चीजों के बारीक कणों की परत-सी जम जाती है।

इस धूल में हर जगह छा जाने को जो ‘गुण’ है, उससे ही तय हो जाता है कि खान खुदाई के काम में किसी की खैर नहीं। योजना बनाने में और उस पर अमल करने में पूरी सावधानी नहीं बरती जाए तो हर एक खान के पास की जमीन को बंजर बना सकती है, पानी को जहरीला कर सकती है, जंगलों का सफाया कर सकती है, हवा को गंदा कर सकती है और इसके आसपास रहने वाले और उसमें काम करने वाले लोगों का जीवन दूभर और नरक बना सकती है।

आधुनिक तकनीक ने मनुष्य को खनिज द्रव्यों को खोद कर निकालने की प्रचंड शक्ति दी है और साथ ही जीवन के लिए खतरा भी बढ़ा दिया है।

आजादी के बाद देश के खनिज उत्पादन में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। 1950 में 70 करोड़ रुपये का उत्पादन होता था। 1981 में यह 3400 करोड़ रुपये का हो गया। देश का सबसे खनिज द्रव्य भूमिगत ईंधन है। दूसरे सभी प्रकार के ईंधनों से और खनिजों से कोयले का उत्पादन सबसे ज्यादा है। धातुओं में कच्चे लोहे का और गैर-धातुओं में चूने का नंबर पहला है।

यों हमारी खनिज संपदा बहुत कम है। कच्चे लोहे और बॉक्साइट को छोड़कर बाकी सभी खनिजों का उत्पादन दुनिया के कुल उत्पादन का केवल एक प्रतिशत या उससे भी कम है। छठी पंचवर्षीय योजना के मसविदे के अनुसार, इसी रफ्तार से खनन जारी रहा तो कोयला, कच्चा लोहा, चूना पत्थर और बॉक्साइट के सिवा बाकी सभी प्रमुख खनिजों और ईंधनों का भंडार अगली शताब्दी के पूर्वार्ध तक खाली हो जाएगा।

देश के भीतर खनिज ईंधन और धातुओं के भंडार की मात्रा सब जगह समान नहीं है, प्रकृति का यह वितरण ‘बड़ा विषम’ है। केवल अ-धातु श्रेणी कच्चे माल का ही भौगोलिक वितरण लगभग सब जगह काफी कुछ बराबर है। पूरे देश के कुल खनिज उत्पादन का आधे से ज्यादा हिस्सा मध्य और पूर्व के एक साथ लगे 40 जिलों में पैदा होता है। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण खनिज भंडार इन्हीं जिलों में है। अगर अभी से भू-संक्षरण और भू-सुधार की ओर पूरा ध्यान न दिया गया तो उत्पादन के साथ-साथ जो जिले बंजर बनते जाएंगे।

खुदाई का असर पर्यावरण पर किस प्रकार का पड़ता है, यह खनिज द्रव्यों को निकालने के तरीके पर निर्भर है। खुदाई के दो तरीके हैं-खुली खुदाई और भूमिगत खुदाई।

ऊपरी मिट्टी, पत्थर, वन और दूसरा जो कुछ भी होता है। वह सब फालतू का बोझ माना जाता है। खनिज वस्तु की परत तक पहुंचने के लिए इन सबको हटा दिया जाता है। खनिज की परत तक छेद करके बारूद से उस परत को तोड़ते हैं।

ढीला पड़ने के बाद उसे चट्टानों और ढेलों के रूप में टुकड़े करते हैं। पिर उन ढेलों को निकाल लेते हैं और खान का मुंह खुला रहने देते हैं ताकि दुबारा छेद किया जा सके और बारूद दागा जा सके। उस कच्चे काल को सफाई, वर्गीकरण और पक्के माल को अलग निथारने के लिए कहीं दूर ले जाते हैं। कभी-कभी सफाई की प्रारंभिक क्रियाओं के लिए खान के पास ही व्यवस्था कर ली जाती है। इस खुली खुदाई से कच्चा माल 80-90 प्रतिशत तक प्राप्त किया जाता है।

इसके लिए खनिज द्रव्य तक सीधी सुरंग और फिर आड़ी सुरंगें बनाकर पहुंचा जा सकता है। सुरंगों को धंसने से बचाने के लिए छत का सहारा देकर थामे रखते हैं। पर बीच-बीच में खनिज युक्त जमीन के बड़े-बड़े हिस्से खंभों की तरह छोड़ने पड़ते हैं, तभी छत सुरक्षित रह पाती है। इस कारण कुल खनिज का 50-60 प्रतिशत ही बाहर निकल पाता है। उसे छेदों द्वारा और बारुद से उड़ाकर ढीला करते हैं, फिर ऊपर लाते हैं और आगे की प्रक्रियाओं के लिए रवाना करते हैं।

हमारे यहां छोटी-छोटी, पूरी तरह लोगों द्वारा ही खोदी जाने वाली पत्थर की खदानों से लेकर बड़ी-बड़ी पाताल गुफाओं से लेकर भरी और भीमकाय यंत्रो के सहारे खोदी जाने वाली अनेक आकार की खदानें मौजूद हैं। यंत्रीकरण के बढ़ने से खुदाई के औजार भी काफी बड़े और शक्तिशाली बने हैं। अब मशीनों से चलने वाले भीमकाय फावड़े, कुदालों, हाइड्रॉलिक यंत्रों और 170 टन तक की क्षमता वाले बड़े ट्रकों और गाड़ियों के कारण एक ही दिन में हजारों टन माल खोदना और ढोना आसान हो गया है। ये भीमकाय मशीनें चली नहीं कि देखते-ही-देखते सारा इलाका बदल जाता है।

पर्यावरण का दुष्प्रभाव


खानों के कारण भूमि, जल, जंगल और हवा चारों ही दूषित होते हैं। फिर इन प्राकृतिक संसाधनों के ह्रास से या दूषित होने से उन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का जीवन भी बरबाद होता है। खनिज-आधारित उद्योग, जैसे कोयले से चलने वाले बिजलीघर, इस्पात के संयंत्र और सीमेंट कारखाने सब ज्यादातर खदानों के पास ही बनते हैं। सिंगरौली कोयला खान के पास आठ सुपर ताप बिजलीघर का झुंड स्थापित किया जा रहा है क्योंकि एक जगह से दूसरी जगह कोयला पहुंचाने की तुलना में बिजली पहुंचाना ज्यादा सस्ता है। सभी बड़े-बड़े इस्पात संयंत्र भिलाई, बोकारो, राउरकेला, जमशेदपुर, दुर्गापुर, बर्नपुर क्षेत्रों में ही हैं। इनके अलावा अल्युमिनियम, तांबा और सीमेंट कारखाने, इंजीनियरिंग इकाइयां, रेल और सड़कें, पटरियां और भंडार घर आदि भी इन खान और उत्पादन क्षेत्रों में जुड़ते जाते हैं, जिनका कुल मिलाकर पर्यावरण पर बेहद घातक प्रभाव पड़ता है।

उपजाऊ जमीन की बरबादी


खदानों के कारण खेती की कितनी जमीन हाथ से निकल गई, आज इसका कोई ठीक अंदाज नहीं है। भारतीय खनन ब्यूरो, नागपुर द्वारा प्रकाशित डाइरेक्टरी ऑफ माइन लीजेज से पता चलता है कि खानों के लिए सीधे कितनी जमीन दी गई है। इस आंकड़े में कुछ लाख हेक्टेयर जोड़ने से कुल जमीन का अंदाज मिल सकता है।

एक खान खोदने का अर्थ है कि खानों के लिए आवश्यक अनेक सुविधाओं के लिए जमीन का उपयोग करना, जैसे-खनिजों की छुलाई के लिए सड़कें, रेलवे लाइन, और रज्जूमार्ग, प्रशासन कार्यों के लिए इमारतें, भंडार और प्रारंभिक प्रक्रियाओं के लिए जगह, खान-मजदूरों और प्रबंधकों की रिहाइश के मकान आदि। इस कारण दरअसल, खान के लिए जितनी जमीन पट्टे पर दी जाती है, उससे कई गुना ज्यादा जमीन इन कामों में लग जाती है।

खान खुदाई का पहला काम उस जगह के पेड़-पौधों को काटना और ऊपर की मिट्टी हटाना है। चूंकि खदान खोद लेने के बाद उसको फिर से ठीक करने का काम नहीं होता, इसलिए वहां की सारी धरती बंजर हो जाती है।

खदान में से निकली ‘बेकार’ चीजों को फेंकने के लिए उतनी ही जमीन और लगती है जिससे वह सारी जगह भी अनुपजाऊ हो जाती है। योजना आयोग के लिए तैयार की गई गोवा के पर्यावरण विकास संबंधी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘बिक्री योग्य’ एक टन कच्चे लोहे के साथ औसतन 2 टन फालतू चीजें निकाल कर फेंकनी पड़ती हैं। कचरे के उन ढेरों में से बहुत सारा भाग बारिश के पानी के साथ बहकर आसपास के खेतों में और नदियों में फैलता है। खेतों में सूखने पर वह कचरा बहुत कड़ा हो जाता है, जिससे जमीन जोतना कठिन हो जाता है। छोटे किसान तो इसके कारण कंगाल बन जाते हैं। नदियों में इस कचरे से साद की मात्रा बढ़ती है और जिन क्षेत्रों में, जैसे गोवा में, पहले कभी बाढ़ नहीं आती थी अब वहां भी बाढ़ आने लगी है।

भूमिगत खदानों में एक बड़ा खतरा जमीन के धंसने का रहता है भूमिगत खदान की छत को लट्ठों और खंभों के सहारे थाम कर रखा जाता है। जब ऐसी भूमिगत खदानों को बंद करने का वक्त आता है तो उसमें से ज्यादा-से-ज्यादा जितना भी कच्चा माल लिया जा सके, ले लेने की कोशिश की जाती है। ऐसे में जगह घेरने वाले खंभों और लट्ठों को भी हटाया जाने लगता है जब जमीन धंसने लगती है। जान-माल की भी हानि होती है और खान का वह स्थान एक बड़ा गड्ढा बन जाता है।

कोयला खदानों वाले कई जिलों के अनेक हिस्सों में, दूर-दूर तक जमीन के धंसने का खतरा होने के कारण वहां लोगों को बसने या खेती-बाड़ी करने की या पशुओं को चराने तक की मनाही है। ऐसी कई जगहें सरकारी तौर पर परित्यक्त घोषित की जा चुकी हैं। और वे अब हमेशा के लिए बेकार हो चुकी हैं। यहां कुछ भी पैदावर नहीं हो सकेगी। विदूषक कारखाना द्वारा मध्य प्रदेश के शहडोल जिले पर तैयार एक रिपोर्ट में कहा गया है – “अमलाई के पास एक परित्यक्त खदान, झगराहा कोयला खान के आसपास की सैकड़ों एकड़ जमीन धंस गई है इसके चारों ओर लगी तख्तियों पर लिख रखा हैः “खतरनाक क्षेत्र, आगे न बढ़े।” ज्यादातर कोयला खान भूमिगत ही हैं, इसलिए खंभों और लट्ठों के सहारे को हटाने के बारे में पूरी सावधानी नहीं बरती गई तो, पूर्वी क्षेत्र खदानों की कई लाख हेक्टेयर जमीन हमेशा के लिए बरबाद हो जाएगी।

कोयला खदान क्षेत्रों में भंडारघरों को और सुरंगो को आग से कभी भी भारी खतरा पैदा हो सकता है। कोयले में मिथेन गैस होती है। कोयले को तोड़ते और चूरा करते वक्त वह गैस बाहर आती है। किसी भी वक्त उसमें आग भड़क सकती है। एक बार आग लग जाए तो भूमिगत कोयले की परत की आग बुझाना बहुत ही मुश्किल होता है। ऐसी आग बुझाने के लिए अक्सर सुरंग का मुहं बंद कर दिया जाता है ताकि आग को हवा मिलना बंद हो जाए। पर इस प्रक्रिया में कई साल लग जाते हैं। झरिया कोयला खानों में एक बार ऐसी आग 56 साल तक जलती रही। यह 1832 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली थी और बताया जाता है कि उसमें 3 करोड़ 70 लाख टन कोयला भस्म हो गया था।

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