खतरे में वादी की झीलें

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अपनी खूबसूरती के लिए दुनिया भर में मशहूर डल झील के वजूद पर हर रोज खतरा बढ़ता जा रहा है। प्रदूषण और बेहतर रखरखाव न होने की वजह से डल की सूरत बिगड़ रही है। सरकार के साथ-साथ स्थानीय लोगों की उदासीनता इसकी बड़ी वजह है। डल झील के हालात का जायजा ले रहे हैं - पंकज चतुर्वेदी।

धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले श्रीनगर की फिजा में बारूद की गंध फैली है और शहर का ‘अस्तित्व’ कहे जाने वाली डल झील मर रही है। यह झील इंसानों के साथ-साथ जलचरों, परिंदों का घरौंदा हुआ करती थी। झील से हजारों हाथों को काम और लाखों को रोटी मिलती थी। अपने जीवन की थकान, मायूसी और एकाकीपन को दूर करने, देश-विदेश के लोग इसे देखने आते थे। अब यह बदबूदार नाले और शहर के लिए बीमारी फैलाने का जरिया बन गई है। सरकार का दावा है कि वह डल को बचाने के लिए कृतसंकल्प है, लेकिन साल-दर-साल सिकुड़ती झील इन दावों पर सवाल खड़ा करती है।

डल महज एक पानी का सोता नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों की जीवन-रेखा है, मगर विडंबना है कि स्थानीय लोग डल झील को लेकर बहुत उदासीन हैं। श्रीनगर निगम के अफसरान तो साफ कहते हैं कि शहर की अधिकतर आबादी संपत्ति कर तक नहीं चुकाती। ये ही लोग साफ-सफाई, रोशनी के लिए सरकार को कोसते रहते हैं। सरकार और समाज का रवैया ही डल की बर्बादी की वजह बन गया है। इन दिनों श्रीनगर में डल मुद्दा बन गया है-इसके संरक्षण के लिए नहीं, बल्कि हाईकोर्ट के आदेश पर हाउसबोटों को हटाने की मुहिम को लेकर। पुलिस और प्रशासन हाउसबोटों को हटाने जा रहा है और इसके जरिए पेट पाल रहे हजारों परिवार मरने-मारने पर उतारू हैं। हकीकत है कि डल के जीवन के लिए केवल हाउसबोट खतरा नहीं हैं, इसके अलावा भी कई वजहें हैं जो उसके लिए खतरनाक हैं।

समुद्र तल से पंद्रह सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित डल एक प्राकृतिक झील है और कोई पचास हजार साल पुरानी है। श्रीनगर शहर के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी दिशा में स्थित यह जल-निधि पहाड़ों के बीच इस तरह विकसित हुई भी कि बर्फ के गलने या बारिश के पानी की एक-एक बूंद इसमें संचित होती थी। इसका जलग्रहण क्षेत्र और अतिरिक्त पानी की निकासी का मार्ग बगीचों और घने जंगलों से आच्छादित हुआ करता था। सरकारी रेकार्ड गवाह है कि 1200 में इस झील का फैलाव पचहत्तर वर्ग किलोमीटर में था। 1847 यानी आजादी से ठीक सौ साल पहले इसका क्षेत्रफल अड़तालीस वर्ग किमी आंका गया। 1983 में हुए माप-जोख में यह महज साढ़े दस वर्ग किमी रह गई। अब इसमें जल का फैलाव बामुश्किल आठ वर्ग किमी रह गया है।

झील गाद से पटी हुई है। पानी का रंग लाल-गंदला है और इसमें काई की परतें जमी हैं। इसका पानी इंसान के इस्तेमाल के लिए खतरनाक घोषित किया जा चुका है। इसमें प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि इलाके के भूजल को भी दूषित कर रहा है। यहां यह भी जानना जरूरी है कि श्रीनगर की कुल आय का सोलह फीसद भाग इसी झील से आता है और यहां के छियालीस फीसद लोगों के घर का चूल्हा इसी झील के जरिए हुई कमाई से जलता है।

इन दिनों सारी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग का शोर है और लोग बेखबर हैं कि इसकी मार डल पर भी पड़ने वाली है। इसका सिकुड़ना इसी तरह जारी रहा तो इस झील का अस्तित्व बमुश्किल तीन सौ पचास साल रह सकता है। यह बात रुड़की विश्वविद्यालय के वैकल्पिक जल-ऊर्जा केंद्र के डल झील के संरक्षण और प्रबंधन के लिए तैयार एक विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट में कही गई है। डल झील के लिए सबसे बड़ा खतरा उसके जल-क्षेत्र को निगल रही आबादी से है। 1986 में हुए एक सर्वे के मुताबिक झील के कोई तीन सौ हेक्टेयर पर खेती और 677 हेक्टेयर क्षेत्र पर आवास के लिए कब्जा किया हुआ है। इसके चारों ओर डेढ लाख से अधिक लोगों की घनी बस्ती है। झील पर ही दो सौ से अधिक छोटे-बड़े हाउसबोट हैं। इतने लोगों के मल, दैनिक निकासी आदि सभी सीधे झील में गिरती है।

इसके अलावा झील के कुछ हिस्सों का इस्तेमाल शहर का कचरा फेंकने कि लिए सालों तक होता रहा। हालांकि इसके पीछे एक माफिया काम कर रहा था, जो झील को सुखा कर उस पर कब्जा करता था। रुड़की विश्वविद्यालय की रिपोर्ट में बताया गया है कि झील में हर साल इकसठ लाख टन गंदगी गिर रही है, जो सालाना 2.7 मिमी मोटी परत के तौर पर जम रही है। इसी गति से कचरा जमा होता रहा तो यहां जल्द ही सपाट मैदान होगा।

डल के पानी के बड़े हिस्से पर अब हरियाली है। झील में हो रही खेती और तैरते बगीचे इसे जहरीला बना रहे हैं। साग-सब्जियों में अंधाधुंध रासायनिक खाद और दवाएं डाली जा रही है, जिससे एक तो पानी खराब हुआ, साथ ही झील में रहने वाले जलचरों की कई प्रजातियां समूल नष्ट हो गईं। इनमें से कई पानी को साफ रखने का काम करती थीं। कई मछलियों की प्रजातियां अब यहां देखने तक को नहीं मिलती हैं। मेंढक गायब हो गए हैं। शाम होते गी कीट-पतंगे यहां भनभनाने लगते हैं। झील पर खेती की घनी हरियाली से पानी के भीतर सूरज की रोशनी का जाना कम हो गया, इसका सीधा असर पानी के आक्सीकरण पर हुआ और पानी में सड़न पैदा करने वाले जीवाणुओं का कब्जा हो गया।

श्रीनगर आने वाला हर पर्यटक डल झील की सैर के लिए शिकारे पर जरूर सवार होता है और शिकारे वाले पर्यटकों को नेहरू पार्क ले जाना नहीं भूलते। यह खूबसूरत पार्क सरकार ने झील की जमीन पर एक कृत्रिम टापू बना कर विकसित किया था। लेकिन इस बगीचे को देख कर डल दर्द को नहीं जाना जा सकता है। इस मरती हुई झील की हकीकत जानने के लिए ‘माइकल जैक्सन’ और ‘लैला-मजनू’ हाउसबोट के बीच से शिकारे पर निकल जाएं। कुछ मीटर आगे जाते ही सागर की मानिंद लहलहाती विशाल झील अचानक ही किसी शहरी नाले की तरह संकरी और गंदली हो जाती है । बाजार, घर, बीमार और तनावग्रस्त चेहरे और बदबू मारता पानी। लोगों की होड़ मची है पानी को सुखा कर अधिक से अधिक जमीन बनाने और उस पर कब्जा करने की। पुलिस या प्रशासन यहां घुसने का हिम्मत नहीं कर पाता है।

सोलहवीं सदी तक इस झील की देखभाल खुद प्रकृति करती थी। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में मुगल बादशाहों की यहां आमद-रफ्त बढ़ी और श्रीनगर एक शहर और पर्यटक स्थल के रूप में विकसित होने लगा। इसी के साथ झील का संकट भी बढ़ा। 1976 में सरकार ने पहली बाल झील के बिगडते मिजाज पर विचार किया। झील और उसके आसपास किसी भी तरह के निर्माण पर रोक का सरकारी आदेश 1978 में जारी हुआ। लेकिन बीते तैंतीस साल में इस पर अमल होता कभी भी कहीं नहीं दिखा है, लिहाजा, डल अब बस्तियों से घिरा एक गंदे तालाब में तब्दील हो चुका है। श्रीनगर शहर की क्षमता के अनुरूप सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट है नहीं, डल के शिकारे साल भर पर्यटकों से भरे रहते हैं और उनकी गंदगी सीधी झील में गिरती है। यहां के होटलों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाना अनिवार्य है, लेकिन लगता है कि श्रीनगर में नियम-कानून को न मानना भी एक अनिवार्य गतिविधि है। हालांकि इसका खामियाजा वहीं के लोग भुगत रहे हैं। झील के करीबी बस्तियों में शायद ही ऐसा कोई घर है, जहां के बाशिंदे गेस्ट्रोइंटाटिस, पेचिस, पीलिया जैसे रोगों से पीड़ित न हों।

1991 में झील की हालत और बिगड़ी। कचरे और गंदगी की वजह से डल की सतह पर लाल रंग की काई ‘यूग्लेना रूब्राडल’ की मोटी परत छा गई थी। इससे इसमें पैदा होने वाली मछलियों की स्थानीय किस्में पूरी तरह खत्म हो गईं। नतीजा यह निकला कि इससे प्रदूषण बढ़ा और झील संकट गहराया। ऐसा माना जाता है कि मछलियां पानी की गंदगी दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लेकिन मछलियों के मरने की वजह से गंदगी और बढ़ती गई। हालांकि 1986 में शहरी विकास मंत्रालय ने बाकायदा ‘डल विकास परियोजना शुरू की, लेकिन इस परियोजना का कोई फायदा डल को नहीं मिला। इसको बचाने की सरकारी नारे-बाजी बीते तीस साल से चल रही है। इस मद में अभी तक खर्च पैसे को जाड़ा जाए तो उससे इतनी बड़ी एक नई झील खोदी जा सकती है। 1978 से 1997 के बीच 71.60 करोड रुपए झील के कल्याण के नाम पर फूंक डाले गए हैं। लेकिन सच तो यह है कि इस दौरान झील के संकट के बारे में किसी ने विचार ही नहीं किया, बजट और योजना तो झील के सौंदर्यीकरण की बनती रहीं। 1997 में केंद्र सरकार ने देश की इक्कीस झीलों के संरक्षण की एक योजना बनाई थी। इसमें 500 करोड़ का ‘सेव डल प्रोजेक्ट’ भी था। सनद रहे कि राष्ट्रीय झील संरक्षण परियोजना में डल को प्राथमिकता सूची में रखा गया था। कई साल तक आरोप-प्रत्यारोप चलते रहे-राज्य सरकार कहती रही कि केंद्र ने पैसा नहीं दिया और केंद्र का कहना है कि राज्य ने विधिवत योजना ही नहीं भेजी। इस प्रोजेक्ट का पैसा कहां गया? उसके परिणाम क्या रहे? ये सवाल न तो कोई सियासी पार्टी उठाती है और न ही समाज।

हालत ही में आ एक रपट के मुताबिक झील के उद्धार के लिए मुहैया पैसे का बड़ा हिस्सा यहां की गाद निकालने के नाम पर खर्च कर दिया गया, जबकि हकीकत में गाद निकाली ही नहीं गई। कई सौ करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार में डल की गाद यथावत जमी रही।

इसी परियोजना के तहत 1999-2000 में झील के करीब बसी आबादी को हटाने का काम शुरू हुआ था। यहां पचास हजार लोगों का बसेरा है, जिनके पास तीन सौ हेक्टेअर खेती की जमीन का मालिकाना हक है। एक कनाल यानी 0.05 हेक्टेयर जमीन के लिए एक लाख और पानी के लिए तीस हजार रुपए मुआवजा तय किया गया। इसके साथ ही सुविधा संपन्न कॉलोनी में हर परिवार को भूखंड देने की योजना शुरू की गई। पहले लोगों के घरेलू झगड़े नहीं निबटे, फिर लोग ज्यादा मुआवजे की मांग करने लगे। उसके बाद अलगाववादी लोगों को भड़काने लगे। बहरहाल, यह पूरी कवायद किसी दूरगामी योजना और बेहतर सर्वे के अभाव में भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई।

आज डल का प्रदूषण उस स्तर तक पहुंच गया है कि कुछ सालों में इसका इलाज ही नहीं बचेगा। शहर को बचाने के लिए झील को सुखाना जरूरी हो जाएगा। इसका गहरीकरण, इसके जल-आवक क्षेत्र में हुए अतिक्रमण को हटाना, झील में किसी भी तरह के नालों या गंदगी को गिरने से रोकने के खिलाफ सख्त कदम उठाना, कुछ मछलियों को इसमें पालना, यहां उग रही वनस्पति में रसायन के इस्तेमाल पर पाबंदी जैसे कदम श्रीनगर को नया जीवन दे सकते हैं। नहीं तो बगैर डल और उस पर शिकारों की अठखेलियों के श्रीनगर की पहचान की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह भी तय है कि आम लोगों को झील के बारे में संवेदनशील और भागीदार बनाए बगैर इसे बचाने की कोई भी योजना सार्थक नहीं हो सकती है।

इसके अलावा कश्मीर में दूसरी भी कई झीलें हैं, कई तो डल के आसपास ही हैं, जिनके अस्तित्व पर संकट के बादल गहरे होते जा रहे हैं। मीठे पानी की एशिया की सबसे बड़ी झील वुल्लर का सिकुड़ना जारी है। इसकी हालत सुधारने के लिए वेटलैंड इंटरनेशनल साउथ एशिया ने तीन सौ करोड़ की लागत से एक परियोजना भी तैयार की थी, लेकिन उस पर काम कागजों से आगो नहीं बढ़ पाया। डल की सहायक नगीन झील की हालत डल से भी बदतर है। डल की ही एक सखी बरारी नंबल का क्षेत्रफल बीते कुछ सालों में सात वर्ग किमी से घट कर एक किमी रह गया है।

कश्मीर की मानसबल झील प्रवासी पक्षियों का मशहूर डेरा रही है। हालांकि यह अब भी प्रदेश की सबसे गहरी झील है, लेकिन इसके नब्बे फीसद इलाके को पाट कर घर बना लिए गए हैं। अब यहां परिंदे नहीं आते।

कश्मीर की अधिकतर झीलें कुछ दशक पहले तक एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं और लोगों का दूर-दूर तक आवागमन नावों से होता था। खुशलसार, नरानबाग, जैनालेक, अंचर, नरकारा, मीरगुंड जैसी कोई सोलह झीलें आधुनिकता की भेंट चढ़ रही हैं।

कश्मीर में तालाबों के हालत सुधारने के लिए ‘लेक्स ऐंड वाटर बॉडीज डेवलपमेंट अथॉरिटी (लावडा) के पास उपलब्ध फंड महकमें के कारिंदों को वेतन देने में ही खर्च हो जाता है वैसे भी महकमे के अफसरान एक तरफ सियासतदानों और दूसरी तरफ दहशतगर्दों के दबाव में कोई कठोर कदम उठाने से बचते रहते हैं।
 

 

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