खतरे में वन

भारतीय वन सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, देश में वन पूरे क्षेत्रफल का 19.27 प्रतिशत हैं। अलग-अलग आँकड़े इस बात की ओर इशारा करते हैं कि देश में वन सिकुड़ते जा रहे हैं। इसके पीछे मुख्य कारण वनों का तेजी से सफाया होना है।मानव सभ्यता के विकास में जंगल का अहम योगदान रहा है। मिट्टी, पानी और हवा की शुद्धता के लिए तो यह फायदेमन्द है ही आर्थिक रूप से भी यह मनुष्य के लिए हितकर साबित हुआ है। इसके कारण ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने में मदद मिलती है। आज भी देश की कई आदिम जनजातियाँ जंगलों की पूजा करती हैं। लेकिन बढ़ती जनसंख्या और विकास के नाम पर हो रहे औद्योगीकरण ने इसे काफी नुकसान पहुँचाया है। तेजी से बढ़ती आबादी के कारण लोगों को रहने के लिए जमीन कम पड़ती जा रही है, जिसकी पूर्ति लोग जंगलों को काट कर करने लगे हैं। यह स्थिति विश्व के तकरीबन सभी हिस्सों में देखने को मिल जाएँगी।

खतरे में वनभारत का भौगोलिक क्षेत्रफल लगभग 32 लाख 87 हजार 263 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इसमें 7 लाख 69 हजार 512 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है, जो पूरे क्षेत्रफल का करीब 23 फीसदी है। हालाँकि इस सम्बन्ध में कई समितियों ने अपनी अलग-अलग राय दी हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, देश में वन पूरे क्षेत्रफल का 19.27 प्रतिशत हैं। अलग-अलग आँकड़े इस बात की ओर इशारा करते हैं कि देश में वन सिकुड़ते जा रहे हैं। इसके पीछे मुख्य कारण वनों का तेजी से सफाया होना है। उपग्रहों के ताजे चित्र और आकलन बताते हैं कि देश में हर साल 13 लाख हेक्टेयर वन नष्ट हो रहे हैं, जो वन विभाग की ओर से किए जा रहे दावों से आठ गुना अधिक है। माना जा रहा है कि जंगलों पर गैर-कानूनी कब्जा और जंगल माफिया इसके सबसे बड़े जिम्मेदार हैं।

कश्मीर को धरती का स्वर्ग कहा जाता है। सिर्फ इसलिए नहीं कि यहाँ बर्फ की चादर से ढके खूबसूरत पहाड़ हैं और मन मोहने वाले रमणीक स्थल हैं, बल्कि यहाँ के जंगल भी इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं। पूरे जम्मू-कश्मीर में 20,230 वर्ग किलोमीटर में वन फैला हुआ है जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 19.95 प्रतिशत है। भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार राज्य के वन क्षेत्र को तीन हिस्सों— लद्दाख, जम्मू और कश्मीर में विभाजित किया जाता है। इसमें से कश्मीर घाटी में करीब 51 प्रतिशत क्षेत्र में जंगल है। परन्तु पेड़ों की अवैध कटाई और जंगल की जमीनों पर कब्जा यहाँ की प्रमुख समस्या बनती जा रही है। जिस पर वन विभाग अंकुश लगाने में नाकाम साबित हो रहा है। कश्मीर में जंगलों की कितनी जमीनों पर कब्जा हो चुका है या जमीनों पर ये गैर-कानूनी कब्जे किस हद तक हैं, इसका आकलन लगाने के लिए यहाँ के वन विभाग के पास कोई ठोस आँकड़ा नहीं है। परन्तु विभाग ने पिछले दशकों के दौरान जो आँकड़े एकत्र किए और जिसे 2009 के दौरान डायजेस्ट ऑफ फॉरेस्ट में प्रकाशित किया गया है, वह काफी चौंकाने वाले हैं।

राज्य के वन विभाग ने कश्मीर के वन क्षेत्र को 6 हिस्सों— श्रीनगर, बड़गाम, अनन्तनाग, पुलवामा, बारामुला और कुपवाड़ा में बाँटा है। डायजेस्ट के अनुसार सिर्फ श्रीनगर सर्किल ‘ए’ में 119 से 138 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में गैर-कानूनी कब्जा है। ऐसे में इन आँकड़ों के माध्यम से अन्य सर्किलों में होने वाले गैर-कानूनी कब्जों का अन्दाजा लगाना कोई कठिन काम नहीं है। फॉरेस्ट डायजेस्ट के आँकड़ों में एक दिलचस्प बात यह है कि जंगल की जमीनों पर गैर-कानूनी कब्जा लगातार नहीं रहा है बल्कि पिछले कई वर्षों में इसमें कमी और वृद्धि होती रही है। उदाहरणस्वरूप 2001-02 के दौरान सिर्फ पीर पंजाल में ही 8.9 वर्ग किलोमीटर जंगल पर गैर-कानूनी कब्जा किया गया जबकि 2002-04 के दौरान इसमें कमी आई और यह 4.5 वर्ग किलोमीटर रह गया। 2004-05 में यह फिर बढ़कर 8.92 वर्ग किलोमीटर हो गया और फिर 2006-07 में यह घटकर 5.16 वर्ग किलोमीटर रह गया। 2007-08 में इसमें एक बार फिर वृद्धि दर्ज की गई जबकि 2008-09 में इसमें एक बार फिर कमी आई। डायजेस्ट के अनुसार ऐसे ही हाल कश्मीर के करीब-करीब सभी वन क्षेत्रों में देखने को मिल जाएँगे।

वन विभाग द्वारा जारी यह आँकड़ा स्वयं विभाग को कठघरे में खड़ा कर देता है। प्रश्न उठता है कि जब गैर-कानूनी कब्जा एक साल में कम हो जाता है तो अगले वर्ष वह फिर कैसे और क्यों बढ़ जाता है? विभाग ऐसा कोई ठोस उपाय क्यों नहीं करता कि जंगल को दोबारा अतिक्रमण से बचाया जा सके? इस सम्बन्ध में विभाग के एक पूर्व अधिकारी कहते हैं, गैर-कानूनी कब्जे में उसी वक्त कमी आती है जब उस पर कब्जा करने वाला स्वयं खाली कर देता है। लेकिन उन्हें दोबारा अतिक्रमण से बचाने के प्रति विभाग का रवैया सदैव उदासीन रहा है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जंगलों पर गैर-कानूनी कब्जा और धड़ल्ले से हो रही पेड़ों की अवैध कटाई के सम्बध में वन विभाग को कोई सूचना नहीं हो।

विभाग के एक पूर्व अधिकारी का कहना है कि लकड़ियों की अवैध तस्करी के सम्बन्ध में राज्य वन विभाग या तो पूरी तरह से अनजान है अथवा वह चुपचाप तमाशा देख रहा है। वन विभाग की उदासीनता का फायदा स्थानीय दबंग लोग भी उठाते हैं। उदाहरण के तौर पर कुपवाड़ा से करीब 20 किलोमीटर दूर करालपुरा ब्लॉक के वारसन ऋषिगुण के स्थानीय निवासी सुविधओं के अभाव में अपने दैनिक जीवन की पूर्ति जंगल से ही करते हैं। स्थानीय पंच गुलाम हसन के अनुसार, आर्थिक रूप से कमजोर गाँव के लोग जलावन के लिए जंगल की लकड़ी पर ही निर्भर हैं। परन्तु अन्य क्षेत्रों के स्थानीय दबंग उन्हें लकड़ियाँ काटने से रोकते हैं और वन विभाग इस पूरे मामले में मूकदर्शक बना रहता है।

बहरहाल, वनों को बचाने के लिए केन्द्र ने 1988 में राष्ट्रीय वन नीति बनाई थी जिसका उद्देश्य एक ऐसी नीति तैयार करना है जिससे कि वनों का संरक्षण किया जा सके। इसके काफी उत्साहजनक परिणाम भी आए हैं और गैर-कानूनी कब्जा तथा अवैध कटाई पर काफी हद तक काबू पाया जा सका है। परन्तु शत-प्रतिशत परिणाम उस वक्त तक मुमकिन नहीं हो सकता है जब तक कि हम आमलोगों को इस सम्बन्ध में जागरूक नहीं करते हैं। यह समझना जरूरी है कि मानव सभ्यता और जंगल एक-दूसरे के पूरक हैं। कश्मीर के प्रसिद्ध संत शेख नुरूउद्दीन वली के शब्दों में ‘अन पोशी तेली, येली वान पोश’ अर्थात जब तक जंगल हैं तब तक इंसान को खाने-पीने की चीजें मयस्सर हैं।

(चरखा फीचर्स)

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