खुदकुशी का साक्षी बनने का अक्षम्य अपराध

25 Apr 2015
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दिल्ली में कुछ ही समय पूर्व प्रचण्ड बहुमत से सत्तारूढ़ हुई आम आदमी पार्टी के पास इस सवाल का कोई जवाब है कि जब देश के किसानों के प्रति हमदर्दी जताने के उद्देश्य से आयोजित उसकी किसान रैली में एक किसान ने आत्महत्या की दुखद घटना को अंजाम दिया, तब उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं ने रैली रोककर उस अभागे किसान की जिन्दगी बचाने के लिए आगे आने की आवश्यकता महसूस क्यों नहीं की? दिल्ली में कुछ ही समय पूर्व प्रचण्ड बहुमत से सत्तारूढ़ हुई आम आदमी पार्टी के पास इस सवाल का कोई जवाब है कि जब देश के किसानों के प्रति हमदर्दी जताने के उद्देश्य से आयोजित उसकी किसान रैली में एक किसान ने आत्महत्या की दुखद घटना को अंजाम दिया, तब उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं ने रैली रोककर उस अभागे किसान की जिन्दगी बचाने के लिए आगे आने की आवश्यकता महसूस क्यों नहीं की? किसी भी पार्टी के आह्वान पर रैली में सम्मिलित होने पहुँचे हर व्यक्ति की सुरक्षा की सबसे पहली जिम्मेदारी रैली के आयोजकों की ही होती है। निसन्देह ऐसी भीड़भाड़ की जगहों पर व्यवस्था बनाने के लिए पुलिस भी तैनात की जाती है, परन्तु आम आदमी पार्टी के नेता उक्त दुखद घटना के लिए यह सफाई देकर अपनी जिम्मेदारी से कैसे मुँह मोड़ सकते हैं कि दिल्ली पुलिस से वे उक्त किसान की जान बचाने के लिए की गई अपील को पुलिस ने अनसुना कर दिया। केवल इस सफाई से आम आदमी पार्टी के नेताओं को माफ नहीं किया जा सकता। आम आदमी पार्टी के नेताओं और रैली के आयोजकों को इस सवाल का जवाब भी देना होगा कि वे रैली स्थल पर मौजूद अपने कार्यकर्ताओं से उन्होंने यह अपील क्यों नहीं की कि वे सबसे पहले उस किसान की जान बचाने के लिए दौड़ें।

दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल तो सड़क पर रात गुजारने का साहस दिखा चुके हैं, उन्होंने भी रैली को बीच में ही स्थगित कर पेड़ तक पहुँचने की जहमत क्यों नहीं उठाई। दरअसल रैली में उक्त दुखद घटना के साक्षी बने हर व्यक्ति का यह कर्तव्य था कि वह गजेन्द्र सिंह नामक किसान को अपनी खुदकुशी करने से रोके। दिल्ली के विशेष पुलिस आयुक्त की यह टिप्पणी भी स्वीकार्य कैसे मानी जा सकती है कि पुलिस का काम लोगों को पेड़ से उतारना नहीं है।

आमतौर पर रैलियों और सभाओं में लोग पेड़ों पर चढ़ जाते हैं, यह बात तो मानी जा सकती है कि लोगों को पेड़ों से उतारना पुलिस का काम नहीं है, परन्तु जब पेड़ पर चढ़े किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने से रोकना क्या पुलिस की जिम्मेदारी नहीं है। मेरा तो स्पष्ट मत है कि जो मीडियाकर्मी आत्महत्या के दुखद घटनाक्रम को कैमरे में कैद करना अपनी सबसे पहली व्यावसायिक जिम्मेदारी मान रहे थे, उनका भी सर्वोपरि कर्तव्य तो उक्त किसान की प्राण रक्षा की कोशिशों में जुट जाना था। यह कैसे माना जा सकता है कि रैली में मौजूद जितने भी लोग घटना के साक्षी बने, उनमें से किसी को भी पेड़ पर चढ़ना नहीं आता था।

कितने दुर्भागय की बात है कि इस दुखद घटना पर राजनीति शुरू होने में कोई देरी नहीं लगी। आम आदमी पार्टी की सरकार ने अपना यह तर्क फिर दोहरा दिया कि दिल्ली की पुलिस केन्द्र सरकार के अधीन होने से व्यवस्था पर उनका नियन्त्रण नहीं है। इसलिए दिल्ली पुलिस को उसके अधीन किया जाए। यूँ तो देश के विभिन्न हिस्सों से आए दिन किसानों की खुदकुशी की खबरें सामने आती रहती हैं, परन्तु दिल्ली में जिस तरह हजारों लोगों की भीड़ की मौजूदगी में एक दुखी किसान ने पेड़ पर चढ़कर मौत को गले लगा लिया, वह सारे देश को झकझोर देने वाली घटना है। सारी मानवता इस दुखद घटना से शर्मसार हो गई है और देश के राजनीतिक दलों को तो इस दुखद घटना पर शोक व्यक्त का अधिकार भी नहीं दिया जा सकता।

सारे देश को झकझोर देने वाली इस गम्भीर घटना पर संसद में चर्चा की माँग का विपक्ष को अधिकार है, परन्तु लोकसभा स्पीकर की यह टिप्पणी भी यहाँ विशेष काबिले गौर है कि यहाँ सब चर्चा चाहते हैं, परन्तु उसे बचाने के लिए कोई नहीं गया।इस घटना पर सारे दलों के नेताओं और सत्ताधीशों ने खेती की दुर्दशा और बेमौसम बरसात व ओलावृष्टि की मार से पीड़ित किसानों के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करते हुए उन्हें यह सान्त्वना देने का प्रयास किया है कि किसानों के दुख में वे उनके साथ हैं, किसान अपने को अकेला न समझे, किसानों को हरसम्भव राहत पहुँचाई जाएगी आदि-आदि। लेकिन अफसोस की बात यह है कि किसानों की हताशा दूर करने के कोई भी उपाय कारगर सिद्ध नहीं हो रहे हैं। किसानों के प्रति हमदर्दी जताने के लिए सारे राजनीतिक दलों की रैलियों का सिलसिला भी अबाध गति से चल रहा है, परन्तु किसानों को यह ढाँढस बँधाने में कोई राजनीतिक दल सफल नहीं हो पा रहा है कि एक दिन उनकी मुश्किलें हल अवश्य होंगी।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि किसानों को अब यह भरोसा भी नहीं रह गया है कि जिस जमीन पर वे खेती करके अपना परिवार चला रहे हैं, वह जमीन भी आगे चलकर उनके पास बनी रहेगी भी कि नहीं। किसानों को इस भय से मुक्ति दिलाना निसन्देह सरकारों की ही जिम्मेदारी है कि औद्योगिक विकास की अधीरता उनकी रोजी-रोटी छीनने का कारण नहीं बनेगी। दरअसल, किसान अब उम्मीद पालने की स्थिति में भी नहीं है कि अगर बड़े उद्योगों की स्थापना के लिए उन्हें अपनी जमीन देने के लिए विवश होना ही पड़े तो उसका पर्याप्त मुआवजा उन्हें मिलेगा।

जब लोकसभा में सभी विपक्षी राजनीतिक दलों ने दिल्ली की रैली में एक किसान द्वारा आत्महत्या कर लिए जाने की दुखद घटना पर चर्चा कराने की माँग करते हुए हंगामे की स्थिति पैदा कर दी थी, तब लोकसभा स्पीकर को सदन की कार्रवाई स्थगित करने के लिए विवश होना पड़ा। यह तो स्वीकार किया जा सकता है कि सारे देश को झकझोर देने वाली इस गम्भीर घटना पर संसद में चर्चा की माँग का विपक्ष को अधिकार है, परन्तु लोकसभा स्पीकर की यह टिप्पणी भी यहाँ विशेष काबिले गौर है कि यहाँ सब चर्चा चाहते हैं, परन्तु उसे बचाने के लिए कोई नहीं गया। लोकसभा स्पीकर की यह टिप्पणी वास्तव में निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के मानस को झकझोर देने के लिए काफी है।

दरअसल, हर राजनीतिक दल से यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि वह किसानों के प्रति अपनी हमदर्दी का प्रदर्शन करके केवल यह साबित करने का प्रयास न करे कि किसानों का वास्तविक हमदर्द केवल वही है। किसानों को हताशा की स्थिति से बाहर निकालने की जिम्मेदारी सत्ताधारी और विपक्षी दलों दोनों की समान रूप से है।

लेखक का ई-मेल : krishanmohanjha@gmail.com

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