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खुजराहा

खुजराहा, खजुराहो मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले का एक ऐतिहासिक स्थान जो छतरपुर नगर से 25 मील दूर स्थित है (स्थिति: 240 51’ उ. अ. तथा 790 56’ पू. दे.)। इसका शुद्ध नाम खजुराहा है, किंतु बुंदेलखंडी भाषा की ध्वनि की दीर्घता के कारण यह सुनने में खजुराहो सदृश लगता है। परिणामस्वरूप लोग इसे खजुराहो ही कहने लगे हैं और साहित्य में लोग इसी रूप में लिखते हैं। किंतु यह अशुद्ध है। (प. ला. गु.)

यह चंदेलों की प्रारंभिक धार्मिक राजधानी थी। चंदेलों का शासन काल 9वीं सदी के प्रारंभ से किसी न किसी रूप में 13वीं सदी के अंत तक रहा। प्रारंभ में ये प्रतीहारों के सामंत थे, किंतु 10वीं सदी के पूर्वाध में हर्ष और यशोवर्मन्‌ के शासनकाल में चंदेलों ने पर्याप्त शक्ति अर्जित की और व्यावहारिक रूप से स्वतंत्र हो गए। धंग (950-1002), विद्याधर (1017-29), कीर्तिवर्मन्‌ (1070-98) और मदनवर्मन्‌ (1129-63) इस वंश के दूसरे प्रतापी शासक थे। अल्बरूनी (11वीं सदी) और इब्नबतूता (14वीं सदी) ने क्रमश: ‘कजुराहा’ और ‘काजुर’ या ‘कजर्रा’ नाम से इसका उल्लेख किया है। अभिलेखों से ज्ञात इसका प्राचीन नाम ‘खजूरवाहक’ था। खजुराहा के चारों ओर खेतों में फैली हुई गिट्टियों एवं छोटे छोटे टीलों से उसका प्राचीन समय में विशाल नगर होना स्पष्ट है, किंतु उसके प्राचीन वैभव के स्मारक वहाँ के चंदेलयुगीन विश्वविख्यात कलापूर्ण मंदिर हैं, जिन्हें देखने देश ओर विदेश के सहस्रों लोग आते हैं।

स्थानीय परंपरा के अनुसार यहाँ लगभग 85 मंदिर थे, किंतु आज उनमें केवल 25 विभिन्न दशाओं में सुरक्षित हैं। इनमें चौसठ योगिनी शाक्त, चित्रगुप्त सौर, ब्रह्मा, वराह, देवी, लक्ष्मण, देवी जगदंबा, जवारी, वामन, खाखरामठ और चतुर्भुज मंदिर वैष्णव; ललगवाँ महादेव, विश्वनाथ, कंडरिया महादेव, दूलादेव, मतंगेश्वर, पार्वती तथा महादेव मंदिर शैव है। घंटई, पार्श्वनाथ, आदिनाथ तथा इन्हीं के समीप के दो अन्य छोटे छोटे मंदिरों का संबंध जैन धर्म से है। इन मंदिरों के समय के संबंध में अब तक यह मान्यता रही है कि 950 ई. और 1050 ई. के बीच लगभग 100 वर्षों में इनका निर्माण हुआ, किंतु हाल के शोधों से इनका समय 9वीं सदी के मध्य से 12वीं सदी के मध्य तक ठहरता है, जो सत्य के अधिक समीप है।

स्थापत्य के विकास की दृष्टि से मोटे तौर से इन मंदिरों के दो वर्ग हो सकते हैं---चौसठ योगिनी, ललगवाँ महादेव, ब्रह्मा, मतंगेश्वर एवं वराह का पहला तथा शेष मंदिरों का दूसरा। शिखर की शैली की दृष्टि से पुन: इनके दो वर्ग हो सकते हैं। पहले वर्ग के, चैत्यगवाक्ष से अलंकृत, स्वरूप में सादे हैं, दूसरे वर्ग के वे हैं जो अनेक अंगशिखरों से युक्त होने के कारण अधिक सुंदर हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार सादे शिखरवाले मंदिर अंगशिखर वालों से पूर्व के हैं, किंतु वास्तव में इनके बीच समय की ऐसी रेखा खींचना समीचीन नहीं है। साधारण शिखरवाले सभी और अंगशिखरों से अलंकृत कुछ मंदिर निरंधार (बिना प्रदक्षिणापथवाले) और शेष पार्श्वनाथ, लक्ष्मण, विश्वनाथ और कंडरिया महादेव सांधार (प्रदक्षिणापथवाले) हैं। मूलत: सभी सांधार मंदिर पंचायतन थे, किंतु केवल लक्ष्मण के चारों ओर विश्वनाथ मंदिर के दो सहायक मंदिर सुरक्षित हैं। विकसित मदिरों में लक्ष्मण मंदिर ही सर्वाधिक सुरक्षित है यद्यपि स्थापत्य का चरम परिष्कार कंडरिया महादेव में उपलब्ध है।

प्रारंभिक मंदिरों के निर्माण में ग्रेनाइट और बलुए पत्थर का मिश्रित रूप से और परवर्ती विकसित मंदिरों में पन्ना के समीप की खदानों से प्राप्त अच्छी कोटि के केवल बलुए पत्थर का प्रयोग हुआ है। विकसित मंदिरों के मुख्य अंग गर्भगृह, अंतराल, महामंडप, मंडप तथा अर्धमंडप हैं जिनका निर्माण अलग अलग न होकर सुसंबद्ध इकाई के रूप में किया गया है। बड़े मंदिरों में गर्भगृह के चारों ओर आच्छादित प्रदक्षिणापथ है। वायु और प्रकाश के लिये प्रदक्षिणापथ में तीन तथा महामंडप के पार्श्वों में दो बालकनीदार स्तंभयुक्त वातायन (कक्षासन) है। मंडप और अर्धमंडप, दोनों के पार्श्वों में एक छोर से दूसरे छोर तक इसी प्रकार के कक्षासन बने हैं। विशाल महामंडप की छत को सँभालने के लिए बीच में एक साधारण चत्वर पर चार अलंकृत स्तंभों की व्यवस्था है। मंदिर विस्तृत एवं उच्च जगती पर खड़े प्रतीत होते हैं जिनका निर्माण वास्तव में उनके चारों ओर बाद में किया गया है। पंचायतन मंदिरों का मुख्य मंदिर जगती के बीच में तथा चार सहायक मंदिर चारों कोनों पर निर्मित हैं। केवल लक्ष्मण मंदिर की जगती अपने मूल रूप में सुरक्षित है। जिससे ज्ञात होता है कि जगती पर गोले, गलतों (मोल्डिंग्स) तथा अभियान, मृगया आदि के सजीव एवं गतिमान्‌ दृश्यों से उत्कीर्ण पट्टियों का अलंकरण होता था। सभी मंदिर नीचे से ऊपर तक प्रचुर रूप से अलंकृत हैं। अधिष्ठान (बेसमेंट) पर गोलों, गलतों एवं पट्टियों की सजावट है। अधिष्ठान के ऊपर महामंडप और गर्भगृह की भित्तियों पर एक के ऊपर एक, दो या तीन तीन पंक्तियों में नियोजित मूर्तियों का मनोज्ञ अलंकरण है। कोर्निस (वरंडिका) के ऊपर प्रत्येक भाग पर स्वतंत्र शिखर हैं जो आगे अर्धमंडप से लेकर पीछे गर्भगृह के मुख्य शिखर तक क्रमश: ऊँचे होते गए है। मूल शिखर की ऊर्ध्वगामिनी रेखाएँ अटूट प्रवहमान हैं किंतु अन्य भागों के ऊपर के शिखर संवरणा प्रकार के हैं जो क्रमश: ऊपर की ओर पीछे खिसकते गए शिलापट्टों से बने हैं। प्रत्येक शिखर की समाप्ति आमलक, कलश, बीजपूरक में होती है। मंदिरों का भीतरी भाग भी अलंकृत है जिसमें महामंडप के स्तंभों के शीर्षभाग की अप्सरा मूर्तियाँ तथा सुघड़ कटाईवाले वितान (सीलिंग) नितांत कमनीय हैं। सांधार मंदिरों में प्रदक्षिणापथ तथा गर्भगृह दोनों की दीवालों पर मूर्तियों का अलंकरण है। तीन मंदिरों के अतिरिक्त सभी पूर्वाभिमुख हैं। इनके प्रवेशद्वार मकरतोरण से सुसज्जित है।

मूर्ति अलंकरण के प्राचुर्य की दृष्टि से खजुराहा के देवमंदिर बेजोड़ हैं। मंदिर की दीवालों पर उद्गमों (प्रोजेक्शन) एवं अंतरितों (रिसेस) पर सैकड़ों की संख्या में गढ़ी गई मूर्तियाँ, विभिन्न मुद्राओं की कमनीयता, स्वरूप की सजीवता एवं भावपूर्णता की दृष्टि से कला की उत्कृष्ट कृतियाँ हैं। इनमें देवताओं, नायिकाओं, मिथुनो, अप्सराओं एवं नागकन्याओं की मूर्तियाँ उद्गमों तथा विभिन्न काल्पनिक रूपों में शार्दूल मूर्तियाँ अंतरितों में सजाई गई हैं। नाना प्रकार की चेष्टाओं एवं क्रियाओं में रत अप्सरा और मिथुन मूर्तियाँ कला की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट हैं। कला और स्वरूप की दृष्टि से खजुराहों की नारी मूर्तियाँ दो वर्गों में विभाज्य हैं। प्रथम वर्ग की उन्नत नासिका और लंबे मुखवाली मूर्तियाँ गुप्त युग की क्रमिक परंपरा में गढ़ी गई हैं, जिनमें शरीर की ससारता और निष्पाप सौंदर्य गोचर होता है। दूसरे वर्ग की मूर्तियों में कलाकार ने संभवत: अपने चारों ओर सुलभ नारी सौंदर्य को मूर्त रूप दिया है जो अपनी कमनीय देहयष्टि, एवं वासना स्निग्ध लावण्य की दृष्टि से अनोखी हैं। इनमें से अनेक मूर्तियों को अति भंग की दुरूह मुद्राओं में गढ़कर मानों तक्षक ने अपने कौशल की परीक्षा ली है। कुछ मिथुन एवं अन्य मूर्तियां अपने बाह्य स्वरूप में अश्लील आँकी गई हैं, जिनका संबंध कौल, कापालिक जैसे वासना को प्रश्रय देनेवाले संप्रदायों से जोड़ा गया है। किंतु यह विचार भ्रांत है। साहित्यिक, अभिलेख एवं मूर्तिपरक साक्षी इसके विरोधी में बैठती है। मिथुन मूर्तियों का अंकन परंपरागत हैं, किंतु पुरु ष की उदासीनता और नारी की निस्संकोच चेष्टा एवं संतृष्ण याचना खजुराहों की मिथुन मूर्तियों की अपनी विशेषता हैं। देवी जगदंबा मंदिर पर के एक मिथुन में मानों मूर्तिकर ने देव सौंदर्य की कल्पना की हो। शेष मूर्तियों के एक वर्ग में समसामयिक सामाजिक एवं धार्मिक कुरीतियों का यथार्थ चित्रण कर जनचेतना को सजग करने का प्रयास कि या गया है कला की दृष्टि से ये मूर्तियाँ उत्कृष्ट कोटि की हैं, जिनमें मानसिक विकार की विभिन्न अवस्थाओं का सूक्ष्म और सफल अंकन है। ये नितांत गतिपूर्ण और प्राणवान्‌ हैं।

इन सहस्रों मूर्तियों में देवमूर्तियों की भी यथेष्ट संख्या है जो शैव, वैष्णव एवं जैन अर्चाशास्त्र के अध्ययन के लिये महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करती हैं। पार्श्वनाथ जैनमंदिर पर हिंदू देवताओं एवं रामायण तथा भागवत के दृश्यों का अंकन रोचक है। जैसे तीर्थकरों के अतिरिक्त इन मंदिरों में प्राप्त यक्षिणी मूर्तियाँ जैन अर्चाशास्त्र की एक नई परंपरा प्रकाश में लाती है।

प्राय: सभी मंदिरों में कोनों पर नीचे की मूर्तिपंक्ति में अष्ट दिक्‌ पालों की और उनके ऊ पर गोमुख नंदीश्वर की मूर्तियाँ प्राप्त होती है। कुछ सांधार मंदिरों के अधिष्ठान पर बनी रथिकाओं में चामुंडा, ब्राह्मणी आदि सप्तमातृकाओं की मूर्तियाँ गणेश और दुर्गा या गणेश और वीरभद्र की मूर्तियों के साथ बनी हैं। शेष मूतियों को मोटे तौर पर तीन भागों में बाँटा जा सकता है: शैव, वैष्णव और संयुक्त। प्रथम वर्ग में शिव की साधारण एवं कल्याण सुंदर, उमामहेश्वर, अंधकासुरसंहारक, नटराज आदि रूपों में मूर्तियों के साथ गणेश, कार्तिकेय, दुर्गा आदि की विभिन्न मुद्राओं में अंकित मूर्तियाँ हैं। वैष्णव मूर्तियों में विष्णु को आयुधक्रम से विभिन्न मूर्तियों, दशावतारों, लक्ष्मी, गजेंद्रमोक्ष आदि से अंकन सम्मिलित हैं। तीसरे वर्ग में वे मूर्तियाँ हैं जिनमें दो या दो से अधिक देवताओं का संयुक्तरूप से अंकन किया गया है, जैसे हरिहर, अर्धनारीश्वर, सदाशिव, बैकुंठ, अनंत हिरण्यगर्भ आदि। इनमें छह मुखों, चार पैरों और बारह हाथोंवाली, सदाशिव की मूर्ति बड़ी रोचक है जिसमें शिव के साथ ब्रह्मा और विष्णु को संयुक्त रूप से अंकित किया गया है, जैसा त्रिदेवी के नदी, हंस एवं गरु ड़ वाहनों के अंकन से स्पष्ट है। इसके अतिक्ति ब्रह्मा, सूर्य, नवग्रह योगिनी आदि की अन्य रोचक मूर्तियाँ हैं। ये सभी इस दृष्टि से भी खुजराहों के मंदिरों की संपन्नता सिद्ध करती हैं।

किंतु इन सबसे अधिक महत्व का इन देवमंदिरों का स्थापत्य है, जिसमें मंदिरवास्तु का चरम परिष्कार लक्षित होता है। अपने अंगों के संतुलन एवं सुसंबद्धता, अनुरूप कलापूर्ण अलंकरण के प्राचुर्य तथा मुख्य शिखर के निखरे हुए स्वरूप की मनोज्ञता की दृष्टि से वे बेजोड़ हैं, जिन्होंने समसमायिक एवं परवर्ती वास्तु आंदोलनों को पर्याप्त प्रभावित किया है। (लक्ष्मीकांत त्रिपाठी)

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