लातूर भूकंप

लातूर जिले में जो अधिकांश मकान ध्वस्त हुए वे सब पत्थर से निर्मित थे। लेकिन यहां मकान पर जो पत्थर थोपे गए थे वे बिना गड़े और तरासे हुए नहीं थे। बताया गया कि मराठबाड़ा का यह क्षेत्र जोन एक में आता है। इससे पूर्व में इस प्रकार के भूकंप या आपदा की जानकारी नहीं थी। इस प्रकार के मकानों का निर्माण पीढ़ी दर पीढ़ी हो रहा था। उत्तराखंड या अन्य हिमालयी राज्य जोन चार और पांच के अंतर्गत आते थे। इसलिए परंपरागत भवन निर्माण कला विकसित हुई थी। जिसमें पत्थरों के साथ-साथ लकड़ी का अधिक प्रयोग किया जाता था।

29 सितंबर 1993 की शाम को मेरी श्री प्रवीण सिंह परदेशी से टेलीफोन पर बात हुई थी। वे मुंबई में थे। प्रवीण से नंदादेवी वायोस्फियर रिजर्व के बारे में बात हुई थी। उन्होंने इस बायोस्फियर रिजर्व से जुड़े रेणी और लाता गांवों के कष्टों के बारे में जानकारी दी थी। वे सितंबर के दूसरे पखवाड़े में उत्तराखंड के नंदादेवी राष्ट्रीय पार्क में एक दल में शामिल होकर वापस मुंबई लौट गए थे। उनके साथ पिछले सात-आठ वर्षों से परिचय था। जब वे राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी से दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल के पर्यावरण संवर्द्धन शिविरों में रहे। इसके बाद वे हर दूसरे-तीसरे वर्ष उत्तराखंड की यात्रा पर आते थे और गोपेश्वर मिलने भी आ जाते। इस बार मिलना नहीं हुआ। इसलिए टेलीफोन पर ही बात हुई। 30 सितंबर को समाचार माध्यमों से पता चला कि महाराष्ट्र के लातूर एवं उस्मानाबाद जिलों में आए भूकंप से हजारों लोग मारे गए हैं। इस समाचार से मुझे बहुत सदमा लगा। लातूर जिले से मैं परिचित था। वहां पर प्रवीण परदेशी जी पिछले वर्ष से जिला अधिकारी थे। प्रवीन जी की सक्रियता से मैं परिचित था। मुझे लगा कि इस संकट के समय में वे वहां पर नहीं हैं। वे 2 अक्टूबर तक अवकाश पर हैं। मुंबई में संपर्क करने पर पता चला कि वे 30 तारीख की रात ही लातूर में भूकंप का समाचार प्राप्त होते ही मुख्यमंत्री शरद पवार के साथ लातूर पहुंच गए थे।

दो दिन बाद बड़ी मुश्किल से लातूर में संपर्क हुआ तो उन्होंने मुझे सलाह दी कि तत्काल न आएं। हालात अच्छे नहीं हैं, इसलिए मैंने फिलहाल लातूर जाने का कार्यक्रम स्थगित रखा। आगे मैं 15 अक्टूबर की शाम लातूर जाने के लिए पूना पहुंचा। उस दिन पूना में जगदीश गोडबोले तथा गुलाब सप्कार जी सहित कई व्यक्तियों से मिलना हुआ। इसमें से कई लोग लातूर जाकर लौट चुके थे। उनसे वहां के समाचार मिले। 16 अक्टूबर की सुबह जगदीश गोडबोले मुझे बस अड्डे पहुंचाने आए। वहां से लातूर जाने वाली बस में बिठा दिया। उनके कुछ परिचित भी उसी बस में बैठे थे। जो राहत कार्य हेतु लातूर जा रहे थे। उनसे मेरा भी परिचय करवाया गया। इस प्रकार 9 बजे सुबह पूना से हमारी बस ने प्रस्थान किया। बस में बैठे हुए हर यात्री के मुंह से लातूर की बात हो रही थी। आपस में लोग इस संबंध में एक से एक कहानियां सुना रहे थे। जिसमें चमत्कारिक रूप से बचने वालों के किस्से ज्यादा प्रमुखता से सुनाए जा रहे थे।

सायं को 5.15 मिनट पर मैं लातूर पहुचा। सीधे कलेक्टर के दफ्तर में गया। वहां पर भारी भीड़ थी। पीड़ित लोग तो थे ही, इनके अलावा देशी विदेशी, दातव्य संस्थाओं के प्रतिनिधि एवं स्थानीय नेता आदि थे। भीड़ के बावजूद मुझे जिला मजिस्ट्रेट प्रवीण सिंह परदेसी के ऑफिस में प्रवेश करने में दिक्कत नहीं हुई। ऐसा लगा था कि उनके आदेश पर हर किसी को मिलने की छूट दी गई थी। ऑफिस में मैंने देखा कि प्रवीण परदेशी के टेबल पर लातूर का बड़ा सा नक्शा फैला हुआ है। उसमें कुछ गांवों को लाल, कुछ को पीले एवं नीले रंग से घेरा गया था। उनके दो-तीन सहयोगी भी पास ही खड़े थे। परदेशी एक ओर पीड़ितों की समस्या सुनते और सहयोगियों को उस पर कार्यवाही करने का निर्देश देते। दातव्य संस्थाओं के प्रतिनिधियों को गांवों की सूची देते तथा गांव देखने के बाद स्वयं राहत के लिए गांव का नाम भी सुझाते। परदेशी के कमरे में मुझे प्रसिद्ध वास्तुकार लौरी बेकर भी मिले। वे पूर्व में पिथौरागढ़ (उत्तराखंड) में वर्षों तक रहे। इस समय वे केरल में रहते थे। परदेशी जी की लौरी बेकर से बात होती है। उनके साथ राज्य के पुनर्वास का कार्य देख रहे अधिकारी भी थे। बेकर जी परंपरागत शैली के सुधरे हुए मकानों के डिजायन पर जोर दे रहे थे।

10 बजे रात प्रवीण जी ऑफीस का काम निपटाकर घर को चले आए। मैं भी उनके साथ था। वहां उन्होंने बताया कि नंदादेवी की कृपा से मैं नंदादेवी नेशनल पार्क की यात्रा के बाद ठीक समय पर मुंबई पहुंच गया था। जिस कारण 30 तारीख को ही लातूर पहुंच गया। इनके घर पर भी लगातार फोन आ रहे थे। वे अपने सहयोगियों से लगातार समाचार प्राप्त कर रहे थे तथा निर्देश भी दे रहे थे। हल्के-फुल्के भोजन के बाद वे तैयार हो गए और रात 10.45 मिनट पर उनके आवास के बाहर दो कारें खड़ी थीं। उन कारों पर संदेश देने और प्राप्त करने के यंत्र भी लगे थे। मैं भी उनके साथ था। रास्ते में जहां भी बस्ती थी वे रुकते तथा उनका हालचाल पूछते और इंचार्ज से पानी, बिजली और खाने के सामान के बारे में जानकारी लेते, फिर कितने दिन का सामान है? तत्काल किन-किन वस्तुओं की आवश्यकता है? यह सब हाल जान करके फिर जहां अस्थायी टिन की कॉलोनी बनी है वहां जाते। अस्थायी कॉलोनी छावनी की तरह दिखती थी। एक छोर से दूसरे छोर तक बिजली के बल्ब जल रहे थे। कहीं अंधेरा है तो स्ष्टीकरण मांगते। गंदगी है तो उसके लिए जबाव पूछते। कहीं-कहीं अस्थायी शौचालयों को भी देखने जाते। पानी की लाइन एवं टैकरों के बारे में जानकारी लेकर आगे बढ़ते। अलग-अलग गांव के लिए जोनल ऑफिसर नियुक्त किए गए थे। उनसे संपर्क एवं आवश्यक चर्चा करके फिर अगले गांव के ओर बढ़ते। इस प्रकार आधा दर्जन प्रभावित गांवों में जाकर रात के तीन बजे हम वापस लातूर पहुंचे। उस रात को चाहने पर भी मैं न प्रभावित परिवारों से, न ही किसी व्यक्ति से मिल सका। न ही उन गांवों को प्रत्यक्ष देख सका, जहां भूकंप से विनाश हुआ था। उस रात को मैंने राहत के बारे में सरकारी प्रयासों की ऊपरी झलक मात्र देखी।

अगले दिन मैं सुबह-सुबह बैंकटेश्वर होटल गया, जहां पर प्रदेश एवं देश के दर्जनों स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्यकर्ताओं का पड़ाव था। वहां पर कार्यकर्ताओं के साथ बैठक हुई। विचारों का आदान-प्रदान हुआ। उत्तरकाशी भूकंप एवं उत्तराखंड के अन्य आपदाओं में हुए कार्य तथा अफरा-तफरी की जानकारी दी। वहां से मैं एक ग्रुप के साथ प्रभावित गांवों में गया। किलारी, किलारी वान्डी, तलाणी एवं लिम्बाला आदि गांवों को देखा। किलारी गांव, जिसकी आबादी 13 हजार से ज्यादा थी, 30 सितंबर की रात को एक झटके में खंडहर में बदल गया था। जिनको भी हम मिले, उन्होंने अपने परिजनों को खोया था। उनकी आंखों से आंसू निकलने के बजाए वे पथरा गई थीं। हर किसी के पास उस रात की वेदना भरी दास्तान थी। हो क्यों नहीं? किलारी में दो हजार के लगभग लोगों की मृत्यु हो गई थी। पशु अलग से मर गए थे। तीन हजार के करीब लोग घायल हुए, जिनमें से पता चला कि एक हजार से अधिक लोग अस्पतालों में भर्ती थे। कई ऐसे भी थे जो हाथ पांव एवं सिर पर पट्टी बांधे अस्थायी पड़ाव में अपने परिवार वालों के साथ ही दिखे।

जगह-जगह बच्चों को रुदन, उनके साथ उनकी माताओं एवं परिजनों की सिसकियां भी सुनाई दे रही थी। स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्यकर्ता सांत्वना देते यत्र-तत्र दिखाई दे जाते। किसी को अस्थायी चिकित्सालय में ले जाते हुए तो कई जगह भंडारा में काम करते हुए दिखाई दिए। जो गांव या कस्बा खंडर में बदल गए थे, वहां बाहर से आए हुए दर्शकों का मेला जैसा लगा था। कोई तो इस विनाश को देखकर हरे राम कहते हुए देखे गए। कुछ मन चले साइन बोर्डों एवं अन्य सामान को उल्चा सीधा देखकर खिल-खिलाकर हंसते हुए भी देखे गए। बिजली के टूटे हुए खंबे, पानी की टोटियां मानो किसी ने मरोड़ दी हों। जगह-जगह सड़ांध भी आ रही थी। फिर भी देखने वालों की भीड़ कम नहीं थी। इनमें राजनेता, अधिकारी थोड़ी-थोड़ी सहायता देते हुए छोटे-छोटे ग्रुप भी दिख जाते थे। टूटे हुए मकान तथा ध्वस्त मंदिर भी दिखाई दे रहे थे।

एकाएक किलारी के चौराहे पर, जो कभी व्यापार का मुख्य केंद्र रहा होगा तथा जहां दिन-भर खूब चहल-पहल रहती होगी, भीड़ बढ़ जाती है। कुछ लोग उस तरफ दौड़ लगाते हैं। इस भीड़ में प्रभावित गांव के लोग भी थे। कुछ देर बाद पता चला कि यह दौड़ पूर्व प्रधान मंत्री चंद्रशेखर जी के काफिले को देखने के लिए है। कुछ ही मिनट बाद चंद्रशेखर जी पहुंचते हैं। हाथ जोड़ते हुए वे लोगों को सांत्वना देते थे। इस प्रकार वे भी ध्वस्त किलारी के खंडहरों को देखते हुए आगे बढ़ते हैं। मुझे लगा कि वहां पर उन्हें घेरे हुए लोग कम ही थे। धक्का-मुक्की में उन तक पहुंच ही नहीं पा रहे थे। प्रवीण परदेशी भी मुझे आग ले गए। चंद्रशेखर जी से परिचय करवाया। उन्होंने कहा कि आप इतने दूर से आए हैं अच्छा किया। फिर हाथ हिलाते हुए आगे बढ़ गए।

लगभग तीन-चार किलोमीटर की दूरी मगरूल है। यह कस्बा नहीं गांव है। बताया गया कि इस गांव की आबादी 2 हजार से अधिक थी। यहां पर 8 सौ से ज्यादा लोग मारे गए हैं। कोई घर और दुकान ऐसी नहीं है जो ध्वस्त न हो गई हो। बचे हुए लोगों की आंखे रो रो कर लाल हो गई थीं। अपनों के खोने पर सांत्वना देने वाला का गला भी भर जाता है। हम वापस लातूर लौट रहे थे। जोरों की बारिश शुरू हो गई थी। प्रकृति उनको और रूला रही है। वापस लातूर लौटा और कल की रात की तरह फिर से 10 बजे रात को प्रवीण परदेशी के साथ कैंपों को देखने के लिए निकल पड़े और रात 1 बजे वापिस लौटा। बताया गया कि प्रवीण परदेशी का यह नियमित कार्यक्रम है। दिन भर ऑफिस में लोगों को मिलना, सांत्वना देना, रात को क्षेत्र का भ्रमण करना तथा उनसे दिनभर की जानकारी करना। प्रवीण के दफ्तर में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार से भी मुलाकात हुई। मैंने उत्तराखंड में भूकंप से सावधानी के लिए प्रचलित परंपरागत पद्धतियों की जानकारी दी। किस प्रकार दरवाजे में बलराज के दिन बच्चों को अखरोट तोड़ने के लिए दिया जाता है कि यह यमराज का सिर है। यदि इसे तोड़ों तो दरवाजे में यमराज (मृत्यु) नहीं आएगा।

इसी प्रकार उत्तराखंड में जोड़-तोड़ पद्धति से बनने वाले पत्थर के मकानों की जानकारी दी। लातूर जिले में जो अधिकांश मकान ध्वस्त हुए वे सब पत्थर से निर्मित थे। लेकिन यहां मकान पर जो पत्थर थोपे गए थे वे बिना गड़े और तरासे हुए नहीं थे। बताया गया कि मराठबाड़ा का यह क्षेत्र जोन एक में आता है। इससे पूर्व में इस प्रकार के भूकंप या आपदा की जानकारी नहीं थी। इस प्रकार के मकानों का निर्माण पीढ़ी दर पीढ़ी हो रहा था। उत्तराखंड या अन्य हिमालयी राज्य जोन चार और पांच के अंतर्गत आते थे। इसलिए परंपरागत भवन निर्माण कला विकसित हुई थी। जिसमें पत्थरों के साथ-साथ लकड़ी का अधिक प्रयोग किया जाता था। इसी प्रकार उत्तर पूर्वी क्षेत्र में बांस पर आधारित आवासों का निर्माण पहले से ही होता आ रहा है। पता चला कि मुख्यमंत्री जी ने लौरी बेकर से भी इस संबंध में चर्चा की। उनके सुझावों को कितना माना गया यह तो पता नहीं चला, लेकिन प्रवीण परदेशी लौरी बेकर से सहमत दिखे।

मुझे पता चला कि उस्मानाबाद जिले में भी भारी तबाही हुई है। इसलिए मैं अगले दिनों में उस्मानाबाद जिले के सास्तूर, होती, तमसीगाद आदि गांवों में भी गया। यहां कि हालत भी बुरी थी। कई गांव यहां भी खंडहर में तब्दील हो चुके थे। ये दोनों जिले सूरजमुखी और अंगूर के लिए भी प्रसिद्ध हैं। दूरदराज के गांवों में स्थानीय लोग अपने ट्यूबवेल को दिखाने भी ले गए। एक जगह तो ट्यूबवेल का जलस्तर बहुत नीचे चला गया था। उसी के पास में खेतों के बीचों-बीच जमीन 500 मीटर से अधिक धंसी हुई थी। कुछ लोगों का कहना था कि भूमिगत जल का बहुत दोहन हो रहा है इसलिए यह स्थिति पैदा हुई। अपने-अपने ढंग से लोगों ने इस प्रकार की धारणा बना ली थी। सरकारी आंकड़ों के आधार पर लातूर और उस्मानाबाद जिलों के 93 गांवों में 8980 लोग मारे गए। 15500 घायल हुए। 27000 के लगभग मकान ध्वस्त हुए लेकिन लोगों का मानना था कि मृत्यु और नुकसान सरकारी आंकड़ों से कहीं ज्यादा हुआ।

एक अच्छी शुरुआत यह हुई कि भूकंप के तत्काल बाद 30 सितंबर को शरद पवार मुख्यमंत्री वहां पहुंच गए थे और लातूर में उत्साही और युवा जिलाधिकारी प्रवीण सिंह परदेशी भी उसी दिन लातूर पहुंच गए थे। उन्होंने अपनी प्राथमिकताएं तय कर दी थी। स्वयंसेवी संस्थाएं एवं जन संगठन भी तत्काल सक्रिय हुए और एक-एक संगठन को गांव चिंहित कर दिए गए थे। तत्काल राहत में इन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। तत्काल राहत को आवास हेतु टिन सैटों का निर्माण, पानी, बिजली और स्वास्थ्य सुविधाओं से जोड़ दिया था। सरकार ने भी इस पर काफी तत्परता दिखायी। साथ ही पारदर्शिता भी। मैंने देखा कि किस गांव में कौन सी राहत सामग्री दी। चाहे टिन चादर हो या कपड़े, सबका ब्यौरे के साथ कौन संस्था किस गांव में कार्यरत है, यह भी विवरण हर दिन तैयार किया जाता है। तत्काल राहत के बाद पुनर्वास का कार्य भी साथ ही शुरू हो गया था। इसके लिए संस्थाओं एवं दातव्य संस्थाओं को मकान निर्माण हेतु गांव चिंहित कर दिए थे। इस प्रकार छह दिन तक इस इलाके में रहकर बहुत कुछ सीखा और समझ बढ़ाकर मैं वापस उत्तराखंड लौटा।

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