लावण्यफला लूनी

5 Mar 2011
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खारची (मारवाड़ जंक्शन) से सिंधु हैदराबाद जाते हुए लूनी नदी का दर्शन अनेक बार किया है। ऊंटों के स्वदेश जोधपुर जाने का रास्ता लूनी जंक्शन से ही है; इसलिए भी इस नदी का नाम स्मृतिपट पर अंकित है। यहां के स्टेशन पर हिरण के अच्छे-अच्छे चमड़े सस्ते मिलते थे। ऐसे मुलायम मृगाजिन यहां से खरीदकर मैंने अपने कई गुरुजनों को और प्रियजनों को ध्यानासन के तौर पर भेंट दिये थे। पता नहीं कि चमड़े के इस उपयोग से हिरणों को उनके ध्यान का कुछ पुण्य मिला या नहीं।

लूनी का नाम सुनते ही हृदय पर विषाद छा जाता है। यों तो सब-की-सब नदियां अपना मीठा जल लेकर खारे समुद्र से मिलती हैं। और इसी तरह अपने पानी को सड़ने से बचाती हैं। लेकिन सागर का संगम होने तक नदी का पानी मीठा रहे यही अच्छा है। बेचारी लूनी का न सागर से संगम होता है, और न आखिर तक उसका पानी मीठा ही रहता है।

अगर यह नदी सांभर सरोवर से निकली होती तो उसका खारापन हम माफ कर देते। लेकिन उसका उद्गम है अजमेर के पास अरवली, आरावली या आड़ावली की पहाड़ियों से। वहां भी उसे सागरमती कहते हैं! वह गोविन्दगढ़ तक पहुंच गयी तो वहां पुष्कर सरोवर का पवित्र जल लाकर सरस्वती नदी उससे मिलती है।

लूनी का असली नाम ता लवणवारि। उसका अपभ्रंश हो गया लोणवारी, और आज लोग उसे कहते हैं लूनी। अजमेर से लेकर आबू तक जो आरावली की पर्वत श्रेणी फैली हुई है, उसका पश्चिम का सारा पानी छोटे-बड़े स्रोतों के द्वारा लूनी को मिलता है। इस पानी की बदौलत जोधपुर राज्य का आधा भाग अपनी द्विदल धान्य की खेती करता है। सिंघाड़े की उपज भी यहां कम नहीं है। जहां-जहां लूनी की बाढ़ पहुंचती है, वहां-वहां किसान उसे आशीर्वाद ही देते हैं।

जब लूनी बालोतरा पहुंचती है तब उसका भाग्य-सौभाग्य नहीं किन्तु दुर्भाग्य, उस पर सवार होता है। जहां जमीन ही खारी है वहां बेचारी नदी क्या करे?

जोधपुर के राजा जसवंत सिंह को सद्बुद्धि सूझी। उसने लूनी नदी का पानी खारा होने के पहले ही, बिलाड़ा के पास एक बड़ा बांध बांध दिया और बाईस वर्ग मील का एक बड़ा विशाल, मनुष्य-कृत सरोवर बना दिया। तेरह हजार वर्गमील का पानी इस सरोवर में इकट्ठा होता है। इसकी गहराई अधिक-से-अधिक चालीस फुट की है। इस सरोवर का नाम ‘जसवंत-सागर’ रखा सो तो ठीक ही है, क्योंकि राजा ने उसे बनाया। अगर किसानों से पूछा जाता तो वे उसे ‘लूनी-प्रसाद’ कहते।

अपनी दो सौ मील की यात्रा के अंत में यह नदी कच्छ के रण में अपने भाग्य को कोसते-कोसते लुप्त हो जाती है। इसके तीनों मुख नमक से इतने भरे हुए रहते हैं कि समुद्र भी इसके पानी का आचमन करने में संकोच करता है।

अब देखना है कि लूनी, सरस्वती, बनास और ऐसी ही दूसरी नदियां जिस श्रद्धा से अपना जल कच्छ के रण में छोड़ देती हैं, उस श्रद्धा का फल उन्हें कब मिलता है और रण का परिवर्तन उपजाऊ भूमि में कब और रण का परिवर्तन उपजाऊ भूमि में कब हो जाता है। आज लूनी नदी करीब-करीब पाकिस्तान की सरहद तक पहुंच जाती है और कच्छ के रण को दिन-ब-दिन अधिक खारा करती जाती है। ऐसी लवण-प्रधान, लवण-समृद्ध नदी को अगर हम ‘लावण्यवती’ कहें तो वैयाकरण उस नाम को जरूर मान्य करेंगे।

काव्यरसिक क्या कहेंगे इसका पता नहीं।

1957

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