लेह की विपदा के सबक

13 Aug 2010
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यह प्राकृतिक विपदा है। पर एक बार घटित हो गई है तो स्थिति को नियंत्रित करने की, लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था प्रादेशिक, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर मनुष्य-समाज को ही करनी है। वही हो भी रहा है। लोग और सेना के जवान ही राहत कार्यों में जुटे हैं। पुल बनाए जा रहे हैं। मलबा हटाया जा रहा हैं। सड़कों को दुरुस्त करने की कोशिश हो रही है। एक गांव चोगलुमसर तो बह ही गया है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक लगभग पौने दो सौ लोगों की मौत हो जाने की खबर है। सैकड़ों लोग लापता हैं। एक बादल फटा और कहर बरपा। टीवी चैनल दिखा-बता रहे हैं, वे उत्ताल धाराएं, वे बाढ़ दृश्य, जो एक चुनौती की तरह लहरें उछाल रहे हैं।

प्रकृति पोसती है तो तबाही भी लाती है। हर बार किसी प्राकृतिक विपदा में पहले मनुष्य लाचार दिखता है, फिर उठ खड़ा होता है, अपने पैर फिर से जमाने के लिए। लेह का संपर्क समूचे देश से टूट गया था, फिर बहाल हो रहा है, धीरे-धीरे। हवाई उड़ानें भी शुरू हो गई हैं। पर दिल को हिला देने वाली इस खबर के साथ कि मौके का फायदा उठा कर निजी एअरलाइंस ने किरायों में दुगुनी-तिगुनी बढ़ोतरी कर दी थी और नागरिक उड्डयन मंत्रालय को कड़े निर्देश जारी करने पड़े। सब कुछ सामान्य हो, इसमें तो कई दिन लगेंगे। शायद कई महीने। देसी-विदेशी पर्यटक वहां बड़ी संख्या में फंसे हुए हैं। राहत कार्य में हाथ बंटाते कुछ विदेशी हाथों और चेहरों को देख कर एक राहत हम दूर बैठे लोगों को भी महसूस हो रही है।

विपत्ति के समय देसी-विदेशी, परिचित-अपरिचित का भेद मिट जाता है। हां, हम दूर बैठे हुए हैं और इस प्राकृतिक विपदा से शारीरिक रूप से प्रभावित नहीं हैं। पर मन है कि लेह की ओर भागा जा रहा है। लेह-लद्दाख के बहुतेरे चित्र देखे हैं। उसके बारे में बहुत पढ़ा-सुना है। वहां के लोगों में से भी कुछ से तो मिला ही हूं। चंडीगढ़ के हिंदी विभाग की कुछ लेह-लद्दाख की छात्राओं की भी याद आ रही है, जिनसे वहां के एक सेमिनार में भेंट हुई थीं। और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के एक छात्र की भी। सबने लेह-लद्दाख आने का सप्रेम निमंत्रण दिया था। पर अब तक जाना हो नहीं पाया।

देश के प्रायः हर प्रदेश में जा चुका हूं। नार्थ ईस्ट के सभी प्रदेशों में। सिक्किम भी गया ही हूं। पोर्ट ब्लेयर भी हो आया हूं। दक्षिण के सभी प्रदेशों में गया हूं। राजस्थान, हिमाचल तो कई बार। अन्य सभी प्रदेशों में भी रह गए हैं तो बस दो इलाके लेह-लद्दाख और लक्षद्वीप। यह जानते हुए भी कि लेह-लद्दाख की विपदा में कोई विशेष योग दे नहीं सकता हूं, यह लिखने बैठा हूं तो इसीलिए कि शब्दों के माध्यम से ही उस विपदा से जुडूं, कुछ अपने को भी खंगालूं कि ऐसी विपत्ति पर अपनी चिंता(ओं) का बंटवारा (या कहूं साझा) किस हद तक कर पाता हूं भाई, कि बिल्कूल ही नहीं कर पाता। सबसे निर्लिप्त, अपने कामकाज में लगा रहता हूं? टीवी के परदे पर आने वाले दृश्यों को देखता हूं और फिर उठ जाता हूं। फिर देखता हूं...

नहीं, ऐसा ‘ही’ तो नहीं होता है। पर ऐसा भी होता है। फिर रुक कर, उन उद्घोषणाओं को सुनता हूं कि हमारे अमुक खबरिया चैनल का संवाददाता ही सबसे पहले वहां पहुंचा है। कुछ उद्घोषकों के स्वरों में सनसनी भी पाता हूं। मन खिन्न होता है। कैसी होड़ है कि विपदा के समय भी अपने चैनल को ‘प्रमोट’ करने की बात बिसरती नहीं है। आगे आ जाती है।

खबरें ऐसी कम आ रही हैं, या बिल्कुल ही नहीं आ रही हैं कि गली-मुहल्लों में, दिल्ली के गली-मुहल्लों में, राहत कार्य में सहयोग के लिए, धन-साधन एकत्र करने के लिए युवक-युवतियों और बुजुर्ग बड़ी संख्या में निकल पड़े हैं। हो सकता है कहीं ऐसा हो रहा हो और मुझे इसकी खबर न हो। पर अपने आसपास को, जहां रहता हूं, वहां देखता हूं तो कोई सुगबुगाहट नहीं पाता हूं। हां, इंटरनेट की दुनिया बड़ी है लोगों के ‘ब्लॉग’ हैं। उनमें कुछ हो रहा हो तो उसकी खबर नहीं है, क्योंकि उन तक मेरी पहुंच नहीं है। उन्हें बरतना आता नहीं है।

सांस्कृतिक संस्थाओं और लेखकों-कलाकारों की दुनिया में भी एक चुप्पी ही पाता हूं। उस जमाने की याद करता हूं जब किसी बाढ़, भूकंप, अकाल में कलाकार इकट्ठा होते थे। नीलामी के लिए अपने चित्र देते थे कि उनसे हुई बिक्री से जो राशि मिले वह राहत-कोष में दी जाए। अब तो कला-जगत में पहले की तुलना में बहुत पैसा आया है, पर वहां कोई पहल दीख नहीं रही है।

लेखकों की ओर से भी कोई बयान, कोई बड़ी चिंता सार्वजनिक रूप से प्रकट नहीं हो रही है। भले ही, इन क्षेत्रों से होने वाले, प्रयत्न ‘ऊंट के मुंह में जीरे के समान’ लगें पर सांकेतिक और प्रतीकात्मक चीजों का अपना महत्त्व होता है। यह भूलने वाली बात नहीं है। लेह तो पीड़ित है ही, लद्दाख भी है और मनाली की ओर से आवाजाही बंद हो जाने के कारण हिमाचल भी पीड़ित है।

प्रकृति हर बार उद्घोष करती है- मैं ‘सुप्रीम’ हूं। मानने वाले इसे मानते भी हैं। पर कुछ हैं जो नहीं मानते हैं। अगर मानते तो वे प्रकृति का, प्राकृतिक वस्तुओं का, वैसा संहार नहीं करते, वैसा दोहन, जैसा चारों ओर जारी है। पेड़ों की कटाई का, खनिजों के बेहिसाब दोहन का, नदियों को प्रदूषित करने का। लेह-लद्दाख पर हो सकता है, मनुष्य के ये ‘प्रहार’ लागू न होते हों, पर अन्यत्र तो बड़े पैमाने पर ‘हो’ रहे हैं।
अत्यंत सुंदर इलाकों में तबाही का मंजर है। याद आती है चित्रकार अनवर की एक बात, जो मुझसे उन्होंने अपनी लेह-लद्दाख की यात्रा के प्रसंग से कही थी, यही कि ‘मैं (अनवर) सुबह उठता था और पहाड़ों की ओर देखता था तो लगता था कि वे मुझसे पहले से नहा-धोकर खड़े हैं कि आओ, हमें निहारो।’ राजकुमार के लद्दाख श्रृंखला के चित्र याद आते हैं। और भी बहुत कुछ।

मेरे एक मित्र का कहना है कि राहत कार्यों में योगदान के लिए अब लोग इसलिए भी आगे नहीं आते हैं कि उन्हें (ठीक ही) यह लगता है कि उनकी दी हुई राशि और चीजें, उन तक नहीं पहुंचेंगी जो विपदा से आहत हुए हैं। हो सकता है। पर ऐसा भी नहीं लगता कि वे संस्थाएं और लोग बचे नहीं हैं, जिन्हें हम ‘जेनुइन’ मानते हैं। जो भी हो, यह देख कर अच्छा लग रहा है कि प्रिंट मीडिया इस मामले में अपनी भूमिका संवेदनशील ढंग से निभा रहा है। जो आहत हुए हैं, मारे गए हैं, जो स्कूल-गांव क्षतिग्रस्त हुए हैं, उनकी पीड़ा हम तक पहुंचा रहा है और ये खबरें भी दे ही रहा है कि कौन लोग हैं जो विपदा में लेह-लद्दाख के लोगों के साथ खड़े हैं। मनुष्य की जीवनी-शक्ति निःशेष है, यह एक बार फिर दिखाई पड़ रहा है, नीचे पानी था तो लोग पहाड़ों पर पहुंचे। बच्चों को सुरक्षित स्थान में पहुंचाया गया। उनकी तस्वीरें देख कर ही मन उछल कर उन तक पहुंच जाना चाहता है। कुछ करना चाहता है।

खबर है कि सेना के कई जांबाज जवान भी पानी में बह गए हैं। न जाने कितनी मार्मिक सत्यकथाएं प्रकाश में आ रही हैं। प्रकृति हर बार उद्घोष करती हैं, मैं ‘सुप्रीम’ हूं। मानने वाले इसे मानते भी हैं। पर कुछ हैं जो नहीं मानते हैं। अगर मानते तो वे प्रकृति का, प्राकृतिक वस्तुओं का, वैसा संहार नहीं करते, वैसा दोहन, जैसा चारों ओर जारी है। पेड़ों की कटाई का, खनिजों के बेहिसाब दोहन का, नदियों को प्रदूषित करने का।

लेह-लद्दाख पर हो सकता है, मनुष्य के ये ‘प्रहार’ लागू न होते हों, पर अन्यत्र तो बड़े पैमाने पर ‘हो’ रहे हैं- ये बातें ध्यान में आती हैं। देश में कई स्थानों पर इस समय बाढ़ की स्थिति है। उनके दृश्य भी दहलाने वाले ही हैं। जो बिना भीगे खड़े हैं, उनके लिए किसी हद तक तो यह समझना मुश्किल है कि बाढ़ या विपत्ति में, कंधों तक पानी में डूबे हुए होने की या पानी सिर के ऊपर से गुजर जाने की पीड़ा क्या होती है। पर यह जो संवेदना नाम का शब्द है, वह तो अपनी व्याप्ति रखता आया है।

जिस स्थान में लेह जैसी कोई विपदा उतर आती है, स्वभावतः उस स्थान से जुड़ी हुई महत्त्वपूर्ण चीजों की याद भी हो आती है और हम सोचने लगते हैं कि उन चीजों का क्या हुआ होगा? सो, इस विपदा में लेह के बौद्ध मठों का, वहां के स्कूली और अन्य शिक्षा संस्थानों का स्मरण भी बहुतों को हो आया। इन पंक्तियों के लेखक को कृष्णनाथ जी की पुस्तकों ‘लद्दाख में राग विराग’ और ‘स्पीति में बारिश’ का ध्यान हो आया, जिनके जरिए इस भूभाग की प्रकृति, वहां के लोगों और वहां के रीति-रिवाजों से लेकर, वहां की बहुतेरी सांस्कृतिक और भौगोलिक पृष्ठभूमि को समझने में मदद मिली थी।

मीडिया को वह स्कूल ध्यान हो आया, जहां आमिर खान अभिनीत फिल्म ‘थ्री ईडियट्स’ की शूटिंग हुई थी। और ये खबरें आई कि किस तरह आमिर खान ने सप्रयत्न वहां के प्रिंसिपल से बात की और विद्यालय को हर प्रकार की सहायता का आश्वासन दिया। आवासीय छात्रों को सेना और ग्रामवासियों ने सुरक्षित स्थान में पहुंचाया। देश-विदेश के न जाने कितने पर्यटकों के मार्मिक संस्मरण भी अब बहुत दिनों तक पढ़ने-सुनने को मिलते रहेंगे।

अब तक की खबरें यह संतोष भी जरूर दे रही हैं कि सेना, वायुसेना आदि के अधिकारियों और जवानों से लेकर देशी-विदेशी पर्यटकों, स्थानीय निवासियों आदि की सहयोग भावना खूब उजागर हुई है। जब ऐसी चीजें रेखांकित होती हैं तो मनुष्यता पर हमारा भरोसा बढ़ता है। लेह की इस विपदा का एक सबक यह भी है कि बचपन और छात्र जीवन से ही देश के दूरस्थ प्रदेशों और दूर बसे लोगों की भौगोलिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर पढ़ने-सुनने की सामग्री और बढ़ाई जाए- पाठ्यक्रमों में और खुद अभिभावकों द्वारा दी जाने वाली घरेलू शिक्षा में, ताकि किसी ऐसी विपदा के समय संवेदना का एक सहज प्रवाह यहां से वहां तक बहता हुआ मिले।

तो आएं, वे तूफानी लहरें, थोड़ा-सा ही सही हम सबको भिगोएं! ‘अज्ञेय’ ने किसी अन्य प्रसंग में लिखा था, ‘मुझे ऐसे मत छोड़ दो सागर, मुझे कहीं से तोड़ दो सागर’ तो कहीं से ‘तोड़’ दें वे तबाही की लहरें, जो लेह में बह रही हैं...ऐसे ही न छोड़ दें...

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