लघु सिंचाई है भूजल संरक्षण की कुंजी

6 Apr 2018
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1. कृषि के लिये भूजल पर भारत की निर्भरता


मानसून में 12 फीसदी कमी के कारण 2014-2015 में खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट आई। यह इस तथ्य को उजागर करती है कि कृषि के लिये पर्याप्त पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करना जरूरी है। पानी की कमी की बढ़ती भयावहता के अलावा यह परिस्थितियाँ जमीन और जल संसाधनों के अर्थपूर्ण और सुगठित इस्तेमाल की जरूरत को अहम बनाती हैं इसलिये कृषि को सिंचाई के अधिकाधिक कारगर तरीकों की जरूरत है। अपनी क्षमताओं के चलते लघु सिंचाई प्रणालियाँ, खासकर जलवायु अस्थिरता की पृष्ठिभूमि में भारत के कृषि क्षेत्र के सामने खड़े मुद्दों को सम्बोधित करने में दूर तलक जा सकती हैं। दुर्लभ प्राकृतिक संसाधन ‘पानी’ जीवन, आजीविका, खाद्य सुरक्षा और सतत विकास की बुनियाद है। दुनिया में पानी की भारी समस्या से जूझ रहे देशों में भारत भी शामिल है जहाँ दुनिया की 16 प्रतिशत आबादी निवास करती है पर इनकी पहुँच मात्र दुनिया के कुल जल संसाधनों के केवल 4 प्रतिशत हिस्से पर ही है। खाद्य एवं कृषि संगठन, 2016 के आंकड़े के अनुसार भारत में ताजे जल का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा खेती के हवाले हो जाता है जोकि 70 फीसदी वैश्विक औसत से खासा अधिक है।

बढ़ती आबादी और परम्परागत रूप से किसानों द्वारा बाढ़ सिंचाई में जल के अत्यधिक इस्तेमाल का परिणाम यह हुआ कि भूजल का स्तर बहुत नीचे गिर गया और पीने के पानी के साथ ही घरेलू इस्तेमाल के लिये पानी की किल्लत ने देश के अधिकांश हिस्सों को अपनी चपेट में ले लिया।

भारत भूजल के बेतहाशा इस्तेमाल और संक्रमण के संकट की ओर तेजी से बढ़ रहा है (कुलकर्णी, इटी एएल, 2015)। मौसम की बढ़ती अस्थिरता, मौसम के भयंकर प्रकोप की बढ़ती आमद तथा जलवायु परिवर्तन के दूसरे सूचकों ने इस संकट को और अधिक बढ़ाया है। दक्षिण एशिया में लम्बे सूखे और भारी बारिश का अन्देशा पानी के फालतू बह जाने को बढ़ाएगा और भूजल के रिचार्ज को बाधित करेगा (सिंह, इटी एएल, 2014)।

सिंचाई के लिये पानी का बेजा इस्तेमाल


भारत चावल उगाने पर अपने जल संसाधान का आश्चर्यजनक रूप से 25 फीसदी इस्तेमाल करता है। नि:सन्देह, अकेला चावल दोषी नहीं है। भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जहाँ सभी मुख्य फसलों- गेहूँ, गन्ना, कपास आदि के उत्पादन के लिए भारी मात्रा में पानी की जरुरत होती है। जल शिक्षा संस्थान की एक रिपोर्ट (चपागैन और होएक्स्त्रा, 2010) के अनुसार भारत में चावल उत्पादन का जल पगचिन्ह (उत्पादन की मात्रा के लिये इस्तेमाल किये गए कुल पानी का अनुपात) चीन के सालाना 970 एम3 और वैश्विक औसत 13,25 एम3 के मुकाबले 2,020 एम3 है। यह घनी होती आबादी वाले देश में दुर्लभ और कीमती संसाधन का दुर्भाग्यपूर्ण इस्तेमाल है।

जल निकासी के स्रोत पर किये गए अवलोकन भी चिन्ताजनक हैं। जल निकासी का लगभग एक तिहाई भूजल से आता है। भूजल तेजी से घट रहा है और उसके रिचार्ज की कोई तेज प्रणाली नहीं है। जब भूजल का दोहन बहुत गहराई से किया जाता है तो बारिश के पानी से उसे रिचार्ज नहीं किया जा सकता और इसलिये वह देर तक अक्षय संसाधन नहीं रह सकता।

कृषि का प्रतिफलन भी भारी तौर पर बारिश के पानी पर निर्भर है। मानसून में 12 फीसदी कमी के कारण 2014-2015 में खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट आई। यह इस तथ्य को उजागर करती है कि कृषि के लिये पर्याप्त पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करना जरूरी है। पानी की कमी की बढ़ती भयावहता के अलावा यह परिस्थितियाँ जमीन और जल संसाधनों के अर्थपूर्ण और सुगठित इस्तेमाल की जरूरत को अहम बनाती हैं इसलिये कृषि को सिंचाई के अधिकाधिक कारगर तरीकों की जरूरत है। अपनी क्षमताओं के चलते लघु सिंचाई प्रणालियाँ, खासकर जलवायु अस्थिरता की पृष्ठिभूमि में भारत के कृषि क्षेत्र के सामने खड़े मुद्दों को सम्बोधित करने में दूर तलक जा सकती हैं।

2. लघु सिंचाई का इस्तेमाल हो सकता है कारगर


भारत में 14 करोड़ हेक्टेयर से अधिक खेतिहर जमीन है, और लगभग 45 फीसदी जमीन सिंचित है। फिलहाल, लगभग 90 लाख हेक्टेयर जमीन लघु सिंचाई की परिधि में है जिसमें लगभग चार लाख हेक्टेयर जमीन, बूँद सिंचित है। सैद्धान्तिक तौर पर लघु सिंचाई देश की लगभग 70 करोड़ हेक्टेयर जमीन कवर करने में सक्षम है। (नारायणमूर्ति, 2006)।

शोध बताते हैं कि बाढ़ सिंचाई के तरीकों के मुकाबले छिड़काव सिंचाई से 30-40 फीसदी कम पानी की खपत हो सकती है जबकि बूँद सिंचाई से लगभग 40-60 फीसदी (नारायणमूर्ति, 2006; नारायणमूर्ति, 2009)। विभिन्न फसलों के लिये लघु सिंचाई के इस्तेमाल के चलते उत्पादकता में 40-60 फीसदी बढ़त अनुमानित है। (सिंचाई और ड्रेनेज पर भारतीय राष्ट्रीय समिति, 1994; 1998)।

खासकर श्रम सघन कामकाज में यह वीड समस्या, मृदा क्षरण तथा खेती की लागत को उल्लेखनीय रूप से घटाती है। लघु सिंचाई में पानी की खपत में ऊर्जा (बिजली) का इस्तेमाल भी घटाती है जिसके लिये सिंचाई कुओं से पानी उठाना होता है (नारायणमूर्ति, 2001)।

3. लघु सिंचाई को बढ़ावा देने के लिए सरकारी सहयोग


लघु सिंचाई (एमआई) को अपनाये जाने को बढ़ावा देने की शुरूआत 2004 में एमआई पर टास्क फ़ोर्स की रिपोर्ट की सिफारिशों से हुई। रिपोर्ट में कहा गया कि एमआई टेक्नोलॉजी पर जोर दिया जाए। उसने केंद्रीय स्तर पर प्रायोजित के लिए भी सिफारिश की जो आगे चलकर जनवरी 2006 में कृषि मंत्रालय द्वारा जारी हुई। 2010 में एमआई पर सीएसएस को लघु सिंचाई के नेशनल मिशन (एनएमएमआई) तक उच्चीकृत किया गया जो 2004-15 तक जारी रहा।

2014 से एनएमएमआई को टिकाऊ कृषि के नेशनल मिशन (एनएमएसए) के तहत शामिल किया गया जो 2004-15 के दौरान खेत पर जल प्रबन्धन (ओएफडब्ल्यूएम) के तौर पर क्रियान्वित हुआ। अप्रैल 2015 से ओएफडब्ल्यूएम का एमआई घटक प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) के तहत शामिल किया गया जो 2015-16 में एमआई के लिये सीएसएस के बतौर क्रियान्वित हुआ (नीति आयोग, भारत सरकार, 2017)।

प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई)


पीएमकेएसवाई ने योजना के भीतर एमआई को अभिन्न घटक के रूप में शामिल किया। योजना सिंचाई आपूर्ति की श्रंखला के मुद्दों का लगातार समाधान उपलब्ध कराने पर केंद्रित है। भारत सरकार का घोषणापत्र ‘हर खेत को पानी’ और ‘प्रति बूंद अधिक फसल’ की थीम पर आधारित है। जहाँ सिंचाई परियोजनाओं के ढांचागत सृजन और विकास, जैसेकि कमांड एरिया विकास और जल प्रबन्धन (सीएडीडब्ल्यूएम) कार्यक्रम , वाटरशेड विकास गतिविधियों को मुख्यरूप शामिल किया गया है।

महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट (एमजीएनआरईजीए-मनरेगा)


भारत में एमआई और सिंचाई की फंडिंग के लिये इस लेख में वर्णित दूसरी योजनाओं के अलावा मनरेगा को भी सिंचाई नेटवर्कों के विकास के एक महत्वपूर्ण टूल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। मनरेगा के साथ यह जुड़ाव योजना के लक्ष्यों की पूर्ति के अलावा धन के कारगर इस्तेमाल को भी सुनिश्चित करेगा।

नेशनल वाटर मिशन:


नेशनल वाटर मिशन, जल संसाधन, नदी विकास तथा गंगा पुनर्जीवन मंत्रालय के तहत स्थापित आठ मिशनों में एक है। भारत सरकार ने जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्रवाई योजना (एनएपीसीसी) किया जिसने उस दिशा-दृष्टि को पहचाना जिसे नेशनल वाटर मिशन समेत आठों मिशनों के जरिये जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की चुनौतियों से सामना करने के लिये अपनाया जाना चाहिए- ‘जल संरक्षण, उसका अपव्यय घटाने तथा पूरे देश और सभी प्रदेशों में एकीकृत जल संसाधन विकास और प्रबन्धन के जरिये इसके अधिकाधिक समान वितरण को सुनिश्चित करने’ के मुख्य लक्ष्य के साथ।

मिशन को राष्ट्रीय जल नीति के प्रावधानों को ध्यान में रखना होगा और पानी इस्तेमाल करने की क्षमता में 20 फीसदी बढ़त करते हुए जल उपयोग को ऊंचा करने की रूपरेखा विकसित करनी होगी (जल संसाधन मंत्रालय, 2011)

4. छोटे और सीमांत किसानों तक पहुंच की चुनौतियाँ


2013 में, ग्रामीण भारत में अनुमानित 9.02 करोड़ खेतिहर घर थे। देश के कुल खेतिहर घरों में छोटे और सीमांत किसान लगभग 57.8 फीसदी हैं। भूमिधरता के लिहाज से इन किसानों की हिस्सेदारी पर गौर करें तो कुल भूमिधरों का वे करीब 85 फीसद हैं। (राष्ट्रीय सैंपल सर्वे कार्यालय (एनएसएसओ), 2014)।

छोटे और सीमांत किसानों के मुकाबले, जो अधिकतर उस भूजल पर निर्भर रहे हैं जोकि पहले से खाली होने के कगार पर है और इसलिये फसल उगाने के लिये व्यापक रूप से बारिश के भरोसे हैं, बड़े (अमूमन संसाधन संपन्न) किसानों के लिये नहर और ट्यूबवेल जैसे सिंचाई के सार्वजनिक और निजी स्रोतों का इस्तेमाल आसान होता है। छोटे और सीमांत किसान बीज, उर्वरक और दूसरी चीजों पर निवेश के लिये धन और पानी तक पहुंच का अभाव झेलते हैं। लघु सिंचाई योजनाओं का लाभ हासिल करने के लिये जल संसाधन की गारंटी अनिवार्य है।

ज्ञान और इनपुट्स तक पहुंच में यह विभेद 85 फीसदी छोटे और सीमांत किसानों को उत्पादकता जोखिमों का संभावित शिकार बना देता है। कृषि वृद्धि के अभाव ने ग्रामीण आबादी को गैर कृषि क्षेत्र में धकेल दिया है, 1999-2000 और 2011-2012 के बीच गैर खेतिहर ग्रामीण रोजगार में लगभग 12 फीसदी बढ़त करते हुए (भोगल, 2016)। उपरोक्त वर्णित संसाधनों के अभाव के अलावा छोटे और सीमांत किसानों का ऋण लेने और नयी विधियों को आजमाने दोनों के लिये जोखिम लेने की योग्यता के साथ ही फसल उपरांत ढांचे जैसे भंडारण सुविधाएं, और बाजार से जुड़ाव सीमित है।

पानी का अभाव तो रबी और बारिश आधारित खरीफ की फसल के अच्छे उत्पादन में सर्वाधिक पेचीदा संसाधन बना रहता है। किसानों को समूहों में एक साथ लाकर तमाम मसले हल किये जा सकते हैं। एक साथ वे पानी का खाता बनाने, समानता और पानी के सधे इस्तेमाल को सम्बोधित कर सकते हैं और साथ ही कृषि के बेहतर तरीकों को अपनाए जाने के लिये उन्हें प्रोत्साहित कर सकते हैं। तब किसानों के ऐसे समूह खुद अपने ढांचे विकसित कर सकते हैं, साझा सिंचाई सुविधाओं तक पहुंच बना सकते हैं और बाजारों में बेहतर सौदेबाजी कर सकते हैं।

5. समूह लघु सिंचाई- बाहर निकलने का रास्ता?


दुर्लभ जल उपलब्धता और छोटे एवं सीमांत किसानों की चुनौतियों की पृष्ठभूमि में, वाटर किसानों के समूहों के लिये कृषि उत्पादकता को उन्नत किये जाने की संभावना का आकलन करने के लिये कार्रवाई शोध परियोजनाएं चला रहा है। फोकस है- जल संसाधनों का समूहन करना, किसानों के अधिक बड़े समूह तक पहुंचना, बूंद और छिड़काव सिंचाई के जरिये उसकी साझेदारी करना तथा उन्नत कृषि के तरीकों के साथ किसानों का समर्थन करना।

जल संसाधनों के समूहन द्वारा लघु सिंचाई


कृषि के लिये जल संसाधनों के समूहन (और उसे लघु सिंचाई से जोड़ना कोई जरूरी नहीं) की अवधारणा कोई नयी नहीं और उसे कई अध्ययनों में जाँचा जा चुका है (रेड्डी, इटी एएल, 2014)। आँघ्र प्रदेश और तेलंगाना में ऐसी परियोजनाएं रही हैं जैसे:

(क) एफएओ द्वारा सहायता प्राप्त आँघ्र प्रदेश किसान प्रबन्धित भूजल व्यवस्थाएं (एपीएफएएमजीएस) जिसमें पानी तक पहुंच नहीं रखनेवाले घरों के समूह के लिये स्पष्ट साझेदारी, भूजल की निगरानी, और जल उपयोग क्षमता के साथ नए बोरवेल खोदना शामिल है।
(ख) ग्रामीण विकास कमिश्नरेट (सीआरडी), आँघ्र प्रदेश सरकार द्वारा सहायता प्राप्त आँघ्र प्रदेश सूखा परिवर्तक पहल (एपीडीएआई) ने भूजल प्रबन्धन के लिये ‘क्षेत्र दिशा दृष्टि’ का अनुगमन किया जहाँ बोरवेल मालिक बारिश आधारित फसलों को जीवित रखने के लिये बारिश के बड़े क्षेत्र (समग्र ब्लाक) को पूरक सिंचाई उपलब्ध कराने के लिये अपने निजी बोरवेल का समूहन करते हैं।
(ग) 2004 में विश्व एकजुटता केंद्र (सीडब्ल्यूएस) ने आँघ्र प्रदेश में सीमित पैमाने पर सामुदायिक स्तर पर जल प्रबन्धन में सामाजिक नियमन (एसआरडब्ल्यूएम) नामक कार्रवाई-शोध परियोजना की शुरूआत की।
(घ) आँघ्र प्रदेश और तेलंगाना में डब्ल्यूएएसएसएएन ने किसानों को नेटवर्क से जोड़ने और बोरवेलों के क्लस्टर से पानी की साझेदारी कराने का काम किया जिसमें हाइड्रोजिओलोजी प्रशिक्षण और मृदा संरक्षण के तरीके शामिल हैं (दीक्षित, इटी एएल, 2017)।
भूजल के साझेदारों के बीच अपने नियम हैं। कुछ के पास भूजल की स्थिति को लेकर साझेदारो को जागरूक बनाने की अनुभव आधारित दिशा-दृष्टि है। कुछ सहमति बनाने के लिये सामाजिक नियमनों को अपनाते हैं जैसे बोरवेल खुदाई पर रोक।

जहाँ यह पहल भूजल को साझा संसाधन के बतौर देखने के अर्थ में लीक तोड़नेवाली रही हैं - जाति, धर्म, आसपास की जमीन जैसे मुद्दे इस पर भारी प्रभाव डाल सकते हैं।

वाटर के प्रयास जल उपयोग क्षमता बढ़ाने और इस तरह छोटे और सीमांत किसानों के लिये जल उपलब्धता बढ़ाए जाने पर केंद्रित रहे हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की विविधता और प्राकृतिक संसाधनों तक चुनौतीपूर्ण पहुंच को ध्यान में रखते हुए वाटर विभिन्न पृष्ठभूमि में और विभिन्न प्रारूपों में किसान समूहों को एक साथ लाये जाने का प्रयोग करता रहा है।

. 1. मध्य प्रदेश के मंडला जिले में आदिवासी किसान साझा छिड़काव सिंचाई और जल स्रोत के तौर पर कुओं की खुदाई के साथ तीन खेतिहर घरों के समूहों में संगठित किये गए।
2. तेलंगाना के महबूब नगर जिले में अनुसूचित जाति के किसान तीन बोरवेल से पानी तक पहुंच के साथ 18 किसानों के समूह में संगठित किये गए।
3. महाराष्ट्र के जालना जिले में समान मूल के 14 किसानों का समूह जल स्रोत के तौर पर खुदे इकलौते कुएं के साथ बूंद सिंचाई व्यवस्था स्थापित करने के लिये साथ आया।

तीन जगहों पर किये गए काम की सुर्खियाँ और परिणाम:

क्रम

विवरण

मध्य प्रदेश

तेलंगाना

महाराष्ट्र

1

स्थान

मंडला जिला, मध्य प्रदेश

महबूबनगर जिला, तेलंगाना

जालना जिला, महाराष्ट्र

2

अवधि

2012 और 2014

2012

2017 (खरीफ)

3

स्थान Project scope

2012 में 48 समूह और 128 किसान, 173 एकड़ आच्छादित। 2014 में 79 समूह और 211 किसान,   284 एकड़ आच्छादित

18 किसान और लगभग 7.2 एकड़ आच्छादित  

एक समूह में 14 किसान, 32 एकड़ आच्छादित

4

क्षेत्र में बारिश का सालाना औसत  

1057.7 एमएम

क्षेत्र में औसत बारिश 650 एमएम (2015-16 में  यह औसत केवल 301 एमएम रहा)

725 एमएम

5

लघु सिंचाई का प्रकार

2 एचपी पम्प और पानी के पाइप, छिड़काव के साझा सेट

किसानों के समूह के लिये साझा बूंद व्यवस्था जिनकी जमीनें करीब/सटी हैं  

सबमर्सिबल पम्प से जुड़ी बूंद सिंचाई व्यवस्था

6

जल स्रोत

खुले डगवेल

3 बोरवेल

सभी 14 परिवारों के लिये साझा डगवेल

7

परियोजना परिणाम: सिंचाई के तहत लाया गया अतिरिक्त (नया क्षेत्र)

2012 की परियोजना में सिंचित क्षेत्र 173 एकड़ से 432 एकड़ पहुंचा। 2014  की परियोजना में सिंचित क्षेत्र 284 एकड़ से 711 एकड़ पहुंचा

खरीफ का क्षेत्रफल नहीं बदला। रबी का क्षेत्रफल बढ़ा और जो बारिश के अनुसार 2.4 से 7.2 हेक्टेयर हो सकता है। कुछ जमीन तीसरी फसल के लिये सिंचित

रबी के लिये 32 एकड़ की  सिंचाई के साथ खरीफ के तहत फसल बचाने की सिंचाई हुई    

8

परियोजना परिणाम: उपज

खरीफ में प्रति एकड़ उत्पादकता 3-4 कुंतल बढ़ी। समूह के करीब 50% किसान एक फसली से दो फसली में पहुंचे

कृषि विविधातापूर्ण रही और 4-5 विभिन्न सब्जियाँ और फूल उगाये गए

 

2017 में कम बारिश का मतलब है कि बूंद सिंचाई व्यवस्था की पूरी संभावना को नहीं जाँचा जा सकता। लेकिन 2018 में बारिश अगर सामान्य रही तो हमें बेहतर परिणाम मिल सकते हैं

9

परियोजना परिणाम: अन्य

सब्जी की बुआई का रकबा बढ़ा। पानी का अधिकतम इस्तेमाल

बदलाव केवल सिंचाई की व्यवस्था भर में नहीं बल्कि एससीआई1 जैसे खेती के कई दूसरे टिकाऊ तरीकों में भी आया

10

परियोजना लागत और फंडिंग

2014 की परियोजना के लिये 6.57 लाख

कुल परियोजना निवेश: 9 लाख

कुल 19 लाख- 14 लाख  अनुदान की राशि थी और 5 लाख स्थानीय योगदान था

11

परियोजना परिणाम: आर्थिक

उपज और लाभ में प्रति वर्ष प्रति एकड़ रू.  10000-12000 या 20-30% बढ़त

 परियोजना पश्चात कृषि आय लगभग दोगुनी  

अभी तक गणना नहीं। 2018-19 के फसली मौसमों के आँकड़ों की प्रतीक्षा

12

फंडिंग स्रोत

एसडीसी, आरबीएससी और एचडीएफसी बैंक

विकास और सहयोग की स्विस एजेंसी (एसडीसी), वाटर और स्थानीय योगदान  

जीआईजेड परियोजना, तथा स्थानीय योगदान। एचयूएफ के जरिये जल नेतृत्व के लिये गोलबन्दी

13

फंडिंग का मकसद

प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन और जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल

 

पानी का खाता, फसल नियोजन, रबी की सुनिश्चित बुआई। स्वैच्छिक योगदान से अधिक किसानों की उपकरणों तक पहुंच जोकि साथ ही साथ फसल उत्पादकता को बढ़ाती है

भूजल प्रबन्धन, कृषि उत्पादकता वृद्धि तथा छोटे किसानों की आजीविका सुरक्षा का संपूर्ण प्रारूप

जीआईजी अनुदान ‘भारत में खाद्य सुरक्षा के लिये मृदा उपचार और बचाव’ शीर्षक कृषि की व्यापक परियोजना का हिस्सा है

 

जल खाता और साझेदारी, जल खाता और टिकाऊ कृषि के जरिये फसल उत्पादकता सुनिश्चित करना  

14

रखरखाव फंड (एमएफ)

कोई एमएफ नहीं बना, अर्जित श्रमदान पारित फंड में जोड़ा गया

रखरखाव फंड का खाता खोला गया। फंड कृषि उपकरणों के किराए पर भी खर्च हुआ

सभी रखरखाव और संचालन लागत (बिजली) की पूर्ति के लिये प्रति किसान प्रति माह रू. 100 का योगदान हुआ

तालिका 1: तीन राज्यों में समूह लघु सिंचाई की पहल का सार

समूह लघु सिंचाई से जुड़े किसानों के सीधे अनुभव

 

‘हम गोंड किसान हैं और हमारे पास जमीन के छोटे टुकड़े हैं (अक्सर बस 2-3 एकड़)। हमने तीन का समूह बनाने का निर्णय लिया जो हर एक को 5-6 दिन सिंचाई का अवसर देगा और यह अगले चरण की सिंचाई के लिये एकदम सही समय होगा।  

 

यह बिल्कुल सही तरह से काम कर रहा है और अब हमारे पास खेती के लिये रबी का पूरा सीजन है, जबकि इससे पहले हम खेत को खाली छोड़ दिया करते थे,’ कहते हैं मध्य प्रदेश के मंडला जिले के गोपाल सिंह, मान सिंह और लांग सिंह।   

 

‘वाटर टीम की गोलबन्दी ने हमें उपलब्ध भूजल के अनुसार योजना बनाने को प्रेरित किया। यह कुछ ऐसा था जिसे इससे पहले हमने कभी नहीं किया। लेकिन यह समय की जरूरत है।

 

लगातार सूखे की स्थितियाँ फसल नुकसान की ओर ले जाती हैं। पानी बचाने की इन तकनीकों ने न केवल खरीफ की फसल को बचाने के लिये बल्कि रबी के दौरान अतिरिक्त फसल को उगाने के लिये पानी उपलब्ध कराया’, कहते हैं महाराष्ट्र के जालना जिले के रामदास नारायण धावले।  

 

तेलंगाना के बदुनापुर के अग्रणी किसान गणेश गौड़ कहते हैं ‘समूह एमआई से पहले मैं बाढ़ सिंचाई किया करता था। मेरे बोरवेल के पानी ने केवल 0.5 एकड़ की सिंचाई को संभव बनाया। बूंद के जरिये मैंने सिंचाई का दायरा बढ़ाया। इसी ने मुझे प्रेरित किया।

 

पानी की साझेदारी ने किसानों के पास उपलब्ध पानी की मात्रा बढ़ाने में सहयोग किया। यह पानी के अपव्यय को भी घटाता है। हमारे समूह के किसान मोटर की मरम्मत का खर्च भी साझा कर रहे हैं जोकि फायदेमंद है।’

6. विश्लेषण और सीखे गए सबक


देश में और पूरी दुनिया में लघु सिंचाई के फायदों पर विभिन्न अध्ययन हैं (राव और बेंदापुडी, 2015)। इसी तरह वाटर के प्रोजेक्ट में आपेक्षित फायदे 1) जल उपयोग में कमी, 2) उपज में बढ़त, 3) सिंचाई के तहत अधिक क्षेत्र, 4) फसल विविधता, 4) उर्वरक और कीटनाशक जैसे दूसरे इनपुट्स के उपयोग में कमी, 5) लाभ सीमा में बढ़त, आदि देखे गए। लेकिन, जैसा कि सेक्शन 4 में उल्लिखित है, हम छोटे और सीमांत किसानों पर केंद्रित होना चाहेंगे और इसलिये समूहों में लघु सिंचाई को ले जाए जाने की पहल से अपने कुछ मुख्य अवलोकन और सीखों को सूचीबद्ध करना चाहेंगे:

1. पानी के साझा स्रोत तक पहुँच: वाटर के हस्तक्षेप के तीनों मामलों में देखा गया कि किसानों का प्रत्येक समूह पानी का समर्पित स्रोत चाहता है, चाहे वो डगवेल हो या बोरवेल। समूह को समझना चाहिए कि संसाधन (पानी) साझा संपत्ति है तथा समुदाय में हरेक का उस पर बराबर का अधिकार है।

करीब में जमीनें: साझा संसाधन की साझेदारी के लिये, यह व्यावहारिक होगा कि उन जमीनों को कवर किया जाए जो बहुत करीब या अगल-बगल हैं। ढांचा निर्माण, निगरानी, रखरखाव, आदि की जरूरत होगी जो कहीं अधिक सस्ता पड़ेगा अगर जमीनें आसपास हैं। अपने परियोजना क्रियान्वयन में वाटर ने यह भी पाया कि उन लोगों तक साझा संपत्ति या संसाधन की अवधारणा को संप्रेषित करना आसान होता है जिनकी जमीनें आसपास हैं।

रखरखाव और के लिये स्थानीय सहयोग: उल्लिखित तीनों मामलों में वाटर ने इस पहल पर समूह स्वामित्व सुनिश्चित किया- धन का कुछ हिस्सा किसानों से सीधे आया। सामुदायिक योगदान सुनिश्चित करेगा कि भंडारण और उपकरण की अच्छी गुणवत्ता है। यह तय करेगा कि रखरखाव और गड़बड़ियों की मरम्मत पर पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है।

लघु और सीमांत किसानों का समावेशीकरण: जहाँ समूह स्वामित्व के भाव का होना महत्वपूर्ण है, वहीं गतिविधि के लिये आर्थिक योगदान का होना भी जरूरी है।

सामान परिवारों/जातियों से निकले समूह: पानी जैसे ‘कीमती’ साझा संसाधन की साझेदारी किसानों के बीच खासी समझदारी और तालमेल चाहती है। जटिल सामाजिक सम्बन्ध अमूमन केवल तभी टिकाऊ रह सकते हैं जब उनके बीच मजबूत बन्धन हो जैसे एक ही जाति/धर्म के लोगों के समूह जिनकी जमीनें एक-दूसरे के करीब हों।

जरूरी नहीं कि एमआई के लिये सरकारी योजना और सब्सिडी का लक्ष्य निर्धनतम को लाभ पहुँचाए: लघु सिंचाई पर सरकारी सब्सिडी तक पहुंच के लिये जल उपलब्धता की गारंटी जरूरी है अधिकतर केवल मंझोले और बड़े किसानों के पास पानी का भरोसेमंद स्रोत होता है और इसलिये वे इस धन तक पहुंच बना सकने में सक्षम होते हैं। बहरहाल, छोटे और सीमांत किसानों को समूहों में साथ लाये जाने का वाटर का हस्तक्षेप सुनिश्चित करता है कि समावेशी तरीके से वे भी सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकें।

खेती के टिकाऊ तरीकों का समावेशन: यह महत्वपूर्ण है कि बूंद व्यवस्था अलग इनपुट नहीं मानी जाती बल्कि दूसरे सहयोगी हस्तक्षेपों से सन्तुलित बनायी जाती है। फसल सघन व्यवस्था (एससीआई) की शुरूआत ने फसल उत्पादकता को बेहतर बनाने में किसानों को मदद पहुंचाई है। फोकस में था- मृदा प्रबन्धन, पौधे के प्रकार और किस्म पर आधारित फसल के बीच फासले, अमृत खाद और अमृत पानी जैसे स्थानीय स्तर पर तैयार जैविक इनपुट्स का व्यवस्थित उपयोग तथा सूक्ष्म पोषकों का व्यवस्थित उपयोग एवं फसल विशेष की भौगोलिक परिस्थितियों के चलते होनेवाले नुकसान के प्रबन्धन के लिये सूक्ष्म पोषकों का उपयोग।

इसकी सफलता के लिये बारिश महत्त्वपूर्ण है: तेलंगाना में पायलट परियोजना में शुरूआती अच्छे नतीजों के बाद के सालों में कम बारिश हुई। किसानों के नए समूह जीएमआई स्थापित करने में पिछड़ गए और पहले के समूह ने सिंचाई का क्षेत्र कम कर दिया। ख़ास तौर पर अगर बोरवेल का पानी इस्तेमाल हो रहा है तो बूंद सिंचाई के लिये क्षेत्र का नियोजन मददगार होता है।

7. पहलकदमियों का उच्चीकरण


लघु सिंचाई के समूह प्रारूप में वाटर की पायलेट परियोजनाओं के शुरूआती परिणाम, हालांकि अभी नए हैं और पहले ही अपने विस्तार के लिये कुछ मांगें पूरी कर चुके हैं।

मध्य प्रदेश में जब 2012 में काम की शुरूआत हुई, मूल पायलेट समूह में 48 समूहों के 128 किसान शामिल थे। बाद में आतिरिक्त 79 समूहों में 211 किसानों के शामिल होने से इसका विस्तार हुआ। परियोजना में यह विस्तार मूल परियोजना के अनुसार हुआ- जल स्रोत के रूप में छिड़काव सिंचाई उपकरण और खुले कुओं को साझा करते 3 आदिवासी किसानों के समूह।

तेलंगाना में मूल पायलेट समूह में 18 किसानों का बस एक समूह था। चूंकि यहाँ भूजल का स्तर बहुत नीचा है, बोरवेल को ही जल स्रोत होना होगा जिसकी ऊंची लागत आती है। लगता है कि यह इकलौता रास्ता है जिसमें छोटे और सीमांत किसान बोरवेल तक पहुंच बना सकते हैं और पानी का समुचित इस्तेमाल कर सकते हैं। 18 किसानों के शुरूआती पायलेट परियोजना को अब विस्तारित किया गया है। आज 11 समूहों में 149 किसान संगठित हैं, जल स्रोत की साझेदारी से कोई 72 हेक्टेयर का क्षेत्रफल आच्छादित है।

महाराष्ट्र के जालना जिले में, समूह लघु सिंचाई की सफलता और वाटर द्वारा की गयी इसके प्रोत्साहन की गतिविधियों के चलते जिले के भीतर और बाहर की जगहों से किसानों से निवेदन आये। दूसरी योजना अहमदनगर के परनेर ब्लाक में शुरू की गयी। शुरूआत में 7 किसान 2.1 हेक्टेयर सिंचाई के प्रस्ताव के साथ सामने आये। उनके सिंचाई ढांचे की कुल लागत लगभग 12 लाख होगी। यहाँ ऊंची लागत ‘स्वचालित बूंद व्यवस्था’ के प्रस्तावित उपयोग के चलते है जिसमें सुदूर इलाके से फोन के जरिये जल बहाव को नियंत्रित करने की सुविधा है।

यह पूरी तरह से बारिश पर निर्भर इलाका है और पास की नदी में पानी उपलब्ध है, उम्मीद है कि 3.5 करोड़ की अतिरिक्त सिंचाई परियोजना का क्रियान्वयन जल्द शुरू हो जाएगा जिसमें 8 किलोमीटर लम्बी पाइपलाइन से पानी खींचा जाना शामिल है। योजना कृषि के टिकाऊ तरीकों और बाजार से जुड़ाव को शामिल करते हुए सिंचाई का क्षेत्रफल 40 हेक्टेयर बढ़ाने जाने की है।

ये उदाहरण दर्शाते हैं कि मध्य भारत में पानी की कमी वाले इलाकों में समूह लघु सिंचाई की बेहद जरूरत और मांग है। समुचित सरकारी सब्सिडी और योजनाओं तथा दिशानिर्देश लाभ में लघु और सीमांत किसानों को शामिल करने और अधिक बड़े पैमाने पर पहुंच बनाने में मदद करता है।

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