लोक में अवर्षा के कारण

हमारे देश में चल रहे वानकीकरण जैसे आयोजनों के माध्यम से इस तथ्य से ग्रामीण जनों को अवगत कराया जा रहा है कि अच्छी वर्षा अच्छे वनों पर निर्भर करती है।

‘रामचरितमानस’ में गोस्वामी तुलसीदास ने कलियुग-वर्णन के अंतर्गत कलियुग में बार-बार अकाल पड़ने की चर्चा की है। ‘कलि बारहिं बार अकाल परै। बिनु अन्न प्रजा बहु लोग मरे।’ अकाल की स्थिति में अन्न का उत्पादन संभव नहीं है। पानी है तो अन्न है। ‘गीता’ में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, “अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न संभवः” अन्न से प्राणियों का पालन होता है, और अन्न बादलों से संभव होता है। जब बादलों से जल नहीं बरसता है- तब अकाल की स्थिति बनती है। अकाल का शाब्दिक अर्थ होता है- समय का निषेध। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में समय की धारणा बादलों से ही निर्मित होती है। फसल जब अच्छी होती है, तब काल सुकाल बन जाता है, और फसल तो तभी अच्छी आयेगी, जब बादल खूब बरसेंगे। इसलिए बादलों का पर्याप्त बरसना सुकाल है, और बिल्कुल न बरसना या इतना कम बरसना कि फसल का उत्पादन ही न हो सके अकाल कहा जाता है। हमारे देश में अवर्षा के कारण बड़े-बड़े अकाल पड़े हैं। तुलसीदास ने ‘कवितावली’ में सोलहवीं शताब्दी में पड़ने वाले अकाल का वर्णन किया है। उन्होंने अकाल का आंखों देखा हाल प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि किसान के पास खेती नहीं बची। मजदूर को मजदूरी नहीं मिल रही। व्यापार करने वाले व्यापार से रहित हो गये हैं। भूख से लोग लगातार मर रहे हैं। सारा देस अकाल की छाया से भयाक्रांत हैं। लोग कहां जायें? और क्या करें? ये प्रश्न ही निरंतर गूंज रहे हैं। सत्रहवी और अठारहवीं शताब्दी में पड़ने वाले अकाल की चर्चा बुंदेली के एक अज्ञात कवि ने की है, “संवत् पचहत्तर की साल पड़ों है विकराल काल सोचें सब ग्वाल-बाल छोड़ों देश अन्न है।” यह संवत् सत्रह सौ पचहत्तर का अकाल था। बिहार में अकालों का सिलसिला सा ही चलता रहा है। आधुनिक युग के कवि नागार्जुन ने ‘अकाल के बाद’ कविता में लिखा है दाने आये घर के भीतर बहुत दिनों के बाद कौवे ने खुजलायी पांखे बहुत दिनों के बाद। इस कविता में कवि ने अकाल से पीड़ित मानवेतर प्राणियों का भी जिक्र किया है। अकाल केवल मनुष्य को ही पीड़ित नहीं करता है संपूर्ण जड़-जंगम भी उससे प्रताड़ित होता है।

अवर्षा से अकाल निर्मित होता है। तब अवर्षा की स्थिति निर्मित होने के क्या कारण हो सकते हैं? इन कारणों में कुछ कारण लोक जीवन में व्याप्त विश्वासों से स्पष्ट होते हैं, तो कुछ कारण वैज्ञानिक अनुमानों के आधार पर व्यक्त किए जाते हैं। लोक विश्वासों के अनुसार सूखा में पानी की कमी इसलिए हो जाती है कि बादल पानी नहीं बरसाते हैं। जब पानी ही नहीं बरसेगा तब जलाशय भी खाली हो जायेंगे, इस तरह जब जल स्रोत सूख जाते हैं- तब सूखा पड़ता है। पानी न बरसने पर ग्रामीण क्षेत्रों में एक धारणा इस रूप में प्रचलित है कि किसी व्यापारी ने पानी को भूमि में गाड़ दिया है। मेरी नानी मुझे बचपन में एक कहानी सुनाती थी। एक बार कई बरसों तक पृथ्वी पर पानी नहीं बरसा। लोग परेशान होने लगे। वे अकाल से पीड़ित होकर अपने राजा के पास गये। राजा ने ज्योतिषी को बुलाया और उससे प्रश्न किया कि उसके राज्य में पानी क्यों नहीं बरस रहा है, तब ज्योतिषी ने बताया कि फलां दिशा में पानी गड़ा हुआ है। राजा ने एक व्यापारी का आंगन खुदवाया तो आंगन में व्यापारी ने अनाज मापने के पात्र में पानी गाड़ रखा था। जैसे ही पानी ऊपर आया-वर्षा प्रारंभ हो गयी।

इस लोक-विश्वास की जड़े पौराणिक कथाओं में भी मिल जाती है। मिथिला में एक बार भारी अकाल पड़ा। अनेक वर्षों तक पानी नहीं बरसा। उस समय मिथिला में राजा जनक का राज्य–काल चल रहा था। इस अकाल से मुक्ति के लिए राज-पुरोहितों ने राजा जनक को खेत में स्वयं सोने का हल चलाने का परामर्श दिया था। राजा जनक ने जब खेत में सोने का हल चलाया तब उसके फाल की नोक से जो भूमि खोदी गयी, उसी से सीता का जन्म हुआ। यह माना जाता है कि उसी समय रावण भी लंका में शासन कर रहा था। रावण अत्याचारी राजा की तरह विख्यात था। उसने साधुओं और संतों से कर के रूप में उनका रक्त लिया था। इस रक्त को एक बड़े पात्र में भर लिया गया था। रावण ने यह पात्र अपने राज्य की सीमा से परे राजा जनक के राज्य की सीमा में गड़वा दिया था। जबसे यह पात्र यहां आया था तब से अवर्षा की स्थिति निर्मित हो गयी थी। पृथ्वी के भीतर गाड़ा गया साधु-संतों का रक्त पृथ्वी के धन-धान्य की हानि कर रहा था। यही मिथक लोक तक आते-आते व्यापारी द्वारा पानी गाड़ने के रूप में प्रचलित हो गया है।

इन कथाओं के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है, कि पृथ्वी पर मनुष्यकृत अत्याचार सूखा की स्थिति निर्मित करते हैं। तपोवन हमारी संस्कृति में प्रकृति के संरक्षक रहे हैं। किंतु जब तपोवनों के अधिष्ठाता साधु-संतों को पीड़ित किये जाने लगा तब प्रकृति कि विनाश-लीला प्रारंभ हुई, और पानी का बरसना बंद हुआ। व्यापारी द्वारा पानी का गाड़ा जाना। पानी के प्राकृतिक प्रवाह का अवरोधक कृत्य है। पानी का वर्षण उसके प्रवाह-चक्र में निहित है। पृथ्वी के जल का वाष्पीकृत रूप बादल बनकर बरसता है। जल, वाष्प बने, इसके लिए जरूरी है उसका पृथ्वी के ऊपर आना। इस प्रतीक कथा में इस ओर भी संकेत किया गया है कि जल पर एकाधिकार नहीं होना चाहिए। ‘महाभारत’ में एक यक्ष की कथा आती है। यह यक्ष तालाब की रक्षा जरूर करता था। किन्तु उसने उस तालाब पर अपना वर्चस्व स्थापित कर रखा था। अक्सर प्यासे लोगों को उस जलाशय से प्यासा ही लौटना पड़ता था। राजा जनक द्वारा हल चलाने में यह प्रतीकार्य है कि राजा को भी श्रमशील होना चाहिए।

आदिवासी क्षेत्रों में भी अवर्षा के जिम्मेवार लोक-विश्वास अपनी विचित्रताओं से परिपूर्ण हैं। छत्तीसगढ़ के सरगुजा अंचल में एक ऐसा ही विचित्र लोक-विश्वास प्रचलित है। पिछले दिनों यह तथ्य उजागर हुआ कि सरगुजा अंचल में पानी इसलिए नहीं बरस रहा है, क्योंकि किसी गांव में क्वांरी कन्या ने बंदर को जन्म दिया है। इस दोष के निवारणार्थ इस क्षेत्र की महिलायें निर्जल उपवास रख कर एक गांव से दूसरे गांव जाती हैं। ये अपने साथ लोटा और चावल लेकर ही क्षेत्रीय गांवों का भ्रमण करती हैं। एक समाचार के अनुसार सरगुजा तथा छत्तीसगढ़ में पिछले वर्षों पड़ने वाले अकाल को दूर करने के लिए अंबिकापुर की तहसील रामानुजगंज के मार्ग पर स्थित भकुरा गांव की करीब चार सौ महिलायें बिना पानी के उपवास रखकर दूसरे गांव के लिए निकलीं। इन ग्रामीण महिलाओं में शामिल भकुरा ग्राम पंचायत की पूर्व सरपंच श्रीमती गमला देवी ने बताया कि उनकी मान्यता है कि किसी गांव में कुंवारी कन्या ने बंदर को जन्म दिया है जिसके चलते बारिश नहीं हो रही है।

उन्होंने बताया कि उन्हें बीस दिन पहले दोष का पता चला, जिसे दूर करने के लिए यह उपक्रम करना पड़ रहा है। दोष निवारण में लगी महिलाओं ने बताया कि इस दोष को इस क्षेत्र से दूर करने के लिए पांच गांवों में जाकर भिक्षा लेनी पड़ती है, और उसे नदी में ले जाकर बहाने के बाद वहां स्नान किया जाता है। एक गांव से दूसरे गांव तक इस तरह का क्रम चलाया जाता है। एक गांव की स्त्रियां दूसरे गांव जाकर अपने गांव वापस आ जाती हैं, जबकि दूसरे गांव की स्त्रियां तीसरे गांव जाती हैं। इस लोक-विश्वास में भी अवर्षा का कारण वह अनाचार है, जिसमें क्वांरी कन्या बंदर को जन्म देती है। यह एक सामाजिक विडंबना है, यद्यपि इस तथ्य का कोई प्रमाण नहीं है कि क्वांरी कन्या ने बंदर को जनमा है। नदी में भिक्षा समर्पित करने का अभिप्राय वरुण देवता को प्रसन्न करने से लिया जा सकता है।

पौराणिक प्रसंगों के अनुसार अवर्षा और अतिवर्षा का कारण इन्द्र देवता का कोप है। ‘श्रीमद्भागवत’ महापुराण के अनुसार जब श्रीकृष्ण के आग्रह से ब्रजवासियों ने गोवर्द्धन पर्वत की पूजा करके इंद्र देवता की अपनी परंपरित पूजा-पद्धति में विक्षेप उत्पन्न किया, तब इंद्र ने ब्रज पर कोप करके अखंड मूसलाधार वर्षा की। इस वर्षा के परिणामस्वरूप ब्रज डूबने लगा। तब श्रीकृष्ण ने गोवर्द्धन पर्वत को उठाकर ब्रज की रक्षा की थी। श्रीकृष्ण ने मानो संदेश दिया था कि पर्वत-पहाड़ और उनकी वनस्पतियां ही अवर्षा और अतिवर्षा की कारक होती हैं। संपूर्ण भारत में यह लोक-विश्वास प्रचलित है कि इन्द्र का क्रोध अवर्षा के लिए जिम्मेवार है। उसे देवताओं की अकृपा तक विस्तारित किया गया है। यही वजह है कि अवर्षा के समय इन्द्र और अन्य देवताओं को मनाया जाता है। वैज्ञानिक विकास के साथ लोक उन कारणों से भी परिचित हो रहा है। जिनके आधार पर प्राकृतिक असंतुलन निर्मित होता है-और अवर्षा की स्थिति आ जाती है। हमारे देश में चल रहे वानकीकरण जैसे आयोजनों के माध्यम से इस तथ्य से ग्रामीण जनों को अवगत कराया जा रहा है कि अच्छी वर्षा अच्छे वनों पर निर्भर करती है। राजमार्गों पर लगे सूचना फलकों पर जो नारे लिखे जाते हैं, उनसे भी लोक शिक्षित हो रहा है। मैंने इन सूचना फलकों पर अक्सर एक नारा वर्षा से संबंधित प्रक्रिया पर केंद्रित पढ़ा है। ‘जंगल से जल, जल से जीवन।’ वृक्ष वर्षा को आमंत्रित करते है। ‘सदुक्तिर्णामृत’ ग्रंथ में उल्लेख है ‘सूख सूख कर गिर चुके पत्ते। फूलों की शोभा बन चुकी कथा पुरानी। फल अब फूटेंगे कभी-यह आशा नहीं रही। दिशा-दिशा से आने वाले पंछी हो चुके निराश। पेड़ फिर भी हैं। पाताल तक धंसी हैं इनकी जड़ें। लटकी हैं इसके तन पर सूखी जटायें। वह खड़ा है चुपचाप। अपने ध्यान में डूबा। उस बादल के बारे में सोचता हुआ। जो अचानक कभी आ सकता है।’

बढ़ता औद्योगिकीकरण और जनसंकुल शहरीकरण भी वर्षा के लिये जिम्मेवार है। इसके साथ ही ओजोन पर्त में घटित छिद्र-क्षति के परिणामस्वरूप भी अवर्षा की स्थिति निर्मित हो रही है। उद्योगों से न केवल जल प्रदूषित होता है, बल्कि जलाशयों में वाष्पीकरण की प्रक्रिया में भी अवरोध उत्पन्न हो जाता है। वाष्पीकरण के अभाव में बादलों की मात्रा में कमी आती है। एक अध्ययन के आधार पर उद्योगों में पानी की सर्वाधिक खपत के साथ ही भारतीय उद्योग पचास करोड़ टन धातु घोलकर, विषाक्त कचरा और इसी प्रकार के दूसरे अपशिष्ट जल संसाधनों में प्रवाहित करते हैं। विकासशील देशों में कुल औद्योगिक उच्छिष्ट का सत्तर प्रतिशत हिस्सा तो बिना उपचारित किये ही जल-संसाधनों में प्रवाहित कर दिया जाता है। इस तरह प्रदूषित जल, जल स्रोतों की जल-धारक क्षमता भी घटाता है, और जल को मल में परिवर्तित करता हुआ कीचड़ एवं दलदल का सृजन करता है। जल स्रोतों का उथला होना उनकी जल-केंद्रीत गतिविधियों से रहित बनाता है। इस तरह जल की सक्रियता का कम होना वर्षा-चक्र को प्रभावित करता है।

बढ़ती हुई जनसंख्या भी अवर्षा का आधार निर्मित करती है। बढ़ी हुई आबादी के निस्तारण के लिए जल की बहुत भारी मात्रा का उपयोग किया जा रहा है। शहरों में जलापूर्ति में दिक्कतें आ रही हैं। जल-प्रबंधन की उचित व्यवस्था न होने के कारण बड़ी मात्रा में जल व्यर्थ हो रहा है। ग्लोबल वार्मिंग भी वर्षा-चक्र में व्यवधान डाल रही है- वर्षा की नियमित ऋतु में विपर्यास हो रहा है। खंड वृष्टि और अनावृष्टि की परिस्थितियों के निर्माण में पृथ्वी का गर्म होना एक कारक है। पेट्रोल आदि के अतिशय व्यय के कारण वायुमंडल में बादलों की निर्मित हेतु निर्धारित परिस्थितियों का निरंतर अभाव होना। ये सभी कारण मनुष्य के द्वारा निर्मित हैं। उसकी जीवन-चर्या से इनका घनिष्ठ संबंध है।

लोक में यह धारणा प्रबल है कि वर्षा होना, वर्षा का न होना वर्षा का अधिक होना-एक रहस्य है। इस रहस्य को देवता तक नहीं जानते हैं, फिर मनुष्य बेचारा क्या समझेगा। इसके साथ-साथ लोक में यह भी स्पष्ट है कि मनुष्य के अपने कर्म ही अवर्षा की स्थिति निर्मित करते हैं। मनुष्य के दुष्कर्म और उसके अपकर्म ही अनावृष्टि के लिए जिम्मेवार हैं।

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