लोकगीतों में वर्षा

ग्रीष्म के प्रचंड आतप से झुलसती धरा पावसी झड़ी से उल्लसित हो उठती है। गगन में घहराते बादल उमड़-घुमड़ जब झूम-झूम बरसने लगते हैं तो बड़े सुहावने लगते हैं और वनस्पतियों की सृष्टि के कारण बनते हैं। शीतल बयार के झोंके तन-मन को आह्लादित कर जाते हैं। पर्वत, खेत-खलिहान, मैदान जहाँ तक दृष्टि जाती है, प्रकृति धानी परिधान में सुसज्जित दिखाई पड़ती है। नदी-नाले उमड़ पड़ते हैं। ऐसे मनभावने, सुखद-सुहावने, मौसम में जब कोई प्रेमी, प्राण प्रिय पति परदेश गमन की तैयारी करे तो प्रिया को ठेस लगना स्वाभाविक ही है। इस तथ्य को लोक गायक इस तरह व्यक्त करता है-

संपवा छोड़ेला संप केंचुली हो रामा
गंगा छोड़ेली करार
पियावा छोड़ेला घर आपन हो
घरे रहु ननदी के भाय

साँप केंचुल छोड़ रहा है. बढ़िआई गंगा करार छोड़ रही हैं और मेरे प्रिय ऐसे कठिन समय में घर त्याग परदेश की तैयारी कर रहे हैं। हे ननद के प्रिय भाई! कम से कम इस बार तो सावन में घर रहो।

अब की सवनवा तू मत जा बिदेसवा
घरे रहु ननदी के भाय।

ऐसी ही अभिव्यक्ति कविवर बिहारी ने इस दोहे में व्यक्त की है-

भामा बामा कामिनी कहि बोलो प्राणेश।
प्यारी कहत लजात नहिं पावस चलत विदेश।


बरसात झमाझम हो रही है। पवन के झकोरे चल रहे हैं। संकेत से प्रिय अपनी प्रिया को बुला रहा है। प्रिया कहती है-

बूंदन भींजे हमरी सारी
कैसे आऊं बलमा
एक तो मेह झमाझम बरसे
दूजे पवन झकोरे
आऊं तो भींजे सुघर चुनरिया
नाहीं त छूटे सनेह।


उनकी सास समझाते हुए कहती है-

नाहीं डर बहुअरि भींजे क चुनरिया
डर हौ छूटे क सनेह
सनेह से चुनरी होइहैं बहुअरि
चुनरी से नाहीं सनेह।


हे प्रिय! वर्षा की बूंदों से मेरी सुंदर साड़ी भींग कर खराब हो जाएगी। नहीं आने पर स्नेह-संबंध में दरार पड़ने की संभावना है। असमंजस में हूँ क्या करूँ?

‘हे बहू! चूनर भींगने का क्या भय। डर तो प्रेम छूटने का है। चूनर से स्नेह नहीं मिलता। स्नेह बना रहने से चूनर तो मिलती ही रहती है।’

राधा-कृष्ण को आलम्बन बनाकर लोक गीतकारों ने सामान्य जन-जीवन के लोकरंजन चित्र खींचे है। यहाँ राधा-कृष्ण सामान्य नर-नारी हैं। सावन में झूले का एक दृश्य देखिए-

झूला पड़ा कदम की डारी
झूलें कृष्ण मुरारी ना
कौन काउ का बना हिंडोला
का की लागे डोरी ना
चनन काठ का बना हिंडोला
रेशम लागे डोरी ना
के हो झूले के हो झुलावे
के हो देवे तारी ना
राधा झूलें कृष्ण झुलावें
सखियां देवें तारी ना।


सावन में मेंहंदी से श्रृंगार करना सामान्य सी बात है। प्रस्तुत गीत देखिए, इसमें नारी-भावना की सहज अभिव्यक्ति है-

पिया मेंहदी लिआय दा मोती झील से
जाय के साइकिल से ना
जाके मेंहंदी लिआवा
छोटी ननदी से पिसआवा
अपने हाथ से लगावा कांटा कील से


पत्थर पर घिसने कि मसकक्त छोटी ननद ही करे। यहाँ ननद के प्रति भाभी का परम्परागत व्यंग्यात्मक भाव परिलक्षित हो रहा है। प्रिय के हाथों से ही मेंहंदी रचाने की भावना उसके हृदय में पल्लवित-पुष्पित हो रही है।

बादल किधर से और अंधेरा किधर से आता है। इस लोकगीत से व्यंजित होता है-

कहंवा से आवै रामा कारी हो बदरिया
कहंवा से आवै अंधियरिया ना
पूरबै से आवै रामा कारी हो बदरिया
पछिमैं से आवै अंधियरिया ना।


पूर्व से बादल आते हैं तो पश्चिम से अंधेरा घिरता आता है।

बरसात में सबके प्रिय अपने घर-आँगन में भींग रहे हैं। एक मेरे ही प्रिय ऐसे हैं, जो परदेश में भींग रहे हैं। बरसात का मजा तो अपने घर में प्रिय के साथ-साथ भींगने में है-

लाये न कोई सनेश बदरिया बैरिन हो
सबके पिया भींगे घर-आंगन
मोर पिया भींगे परदेश
बदरिया बैरिन हो।


बदरी आई पर प्रिय के संदेश के साथ नहीं आई। फिर उसका आना बैर भाव निभाना है। जब महाकवि कालिदास के ‘मेघदूत’ का यक्ष बादलों से अपनी प्रिया के पास संदेश भेज सकता है। और महादेवी वर्मा आगंतुक ‘नव घन’ से पूछ सकती हैं- ‘लाये कौन संदेश नये घन’ तो लोकगीत उद्गाता की नायिका बदरी से प्रिय के संदेश की कामना तो कर ही सकती है।

एक विवाहित सुंदरी की ग्वाले से कुछ ऐसी प्रीत लगी कि उसने पति के साथ ससुराल जाने से ही मना कर दिया-

नई-नई प्रीत लगल अहिरा से
हम गवनवा नाहीं जाब
अहिरा खिवावे रबड़ी मलइया
तू का खियइबा बेइमान
अहिरा खिवावै पूड़-मिठइया
तू का खियइबा बेइमान
हम गवनवा नाहीं जाब।


पत्नी कजली खेलने मायके जाना चाहती है। पर पति की अस्वीकृति के कारण वह खिन्न होकर कहती है-

कजरी खेलन नइहर जाब
सुन ला मोर बलमू
लेला लेला आपन गहना
नाहीं मानब तोहार कहना
कहीं क हउवा तू नवाब
सुन ला मोर बलमू


कजरी खेलने मै मायके जाऊँगी ही। वस्त्राभूषण आदि सामग्री, जिन्हें आपने उपहार में दिया है, भले ही वापस ले लो। नवाब तो हैं नहीं की तुम्हारी हर बात मानी जाये।

प्रस्तुत लोक गीत में नारी-हृदय की मार्मिक अभिव्यक्ति है। वर्षा ऋतु आ गई पर प्रिय अभी तक नहीं आये-

आइ गइल बरसात रे
पिया अजहूं न अइले
तड़पे बिजुरी गरजे बादर
रहि रहि जियरा डेरात रे
पिया अजहूं न अइले
छप्पर छानी चूवे पलानी
कइसे कटी दिन रात रे
पिया अजहूं न अइले।


ऐसी ही भावना व्यक्त करता हुआ यह लोकगीत भी है-

सइयां भइले गुलरी क फूलछोटी ननदी
घिर-घिर आवै कारी बदरी
जियरा तड़पे चमके बिजुरी
सूनी सेजरिया याद सतावे
चूभे जइसे तिरसूल छोटी ननदी


और प्रिय से आग्रह करती प्रिया-

सइयां तोहें नइहर बोलइबे
अबकी सावन में
अमवा की डारी झुलुवा झुलइबे
अब की सावन में
झिमिर झिमिर बुनिया पड़े जब
तब तोहे कजरी सुनइबे
अब की सावन में।


लोक गीत सहज भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति होते हैं। वे हृदय की आह से निकलते हैं, इसलिए मर्मस्पर्शी होते हैं। लोकगीतों में जो रस है, भाव है, अनुभूति है, सरलता है, तन्मयता है, भावुकता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।

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